Friday 21 December 2018

सर्दी


द्रुत गति से किरणें फिसल गयीं
दिन के आँचल तले,
चमकती, थिरकती
धीमे से सिमट गयीं 
कोहरे के चादर तले,
कोहरा जो गुनगुनाते हुये
छू आया था वृक्षों के शिखर
और एक लम्बी रात बन 
तन गया है आसमां पर,
सन्नाटे से भरी रात,
ख़ामोशी बोल रही है
मद्धम सुर में,
अनदेखा अनचाहा सा अहसास
सर्द हो चला है,
बर्फ़ सा जम रहा है,
सर्दी की ठिठुरन
रेंग रही है खूँ में अब,
घुल रही है हवाओं में
उस धुँये संग
जो जलते पुआल से आई है,
देखो तो ख़ानाबदोशों ने कैसे
शीत को आग दिखाई है,
कहीँ कोई पिल्ला रोया,
शायद ढूंढ़ रहा है
माँ के गरम तन को,
कीट पतंगे जड़ जम गये
दुबके कहीं अमराई में,
श्वास भी अब पिघल रही है
ठंडे खिड़की किवाड़ों में,
देख कुदरत का कहर
इस धुंधली रात के हर पहर,
चाँदनी भी ज़ार ज़ार रो आई
और बूँद ओस की बनकर
सर्द होते पत्ते से वो 
देखो कैसे लिपट गयी ।
  
©®मधुमिता
जाड़ा


जाड़ा है भाई जाड़ा है
बर्फीला करारा है
हवा लगे बर्फ का कतरा
आसमां भी देखो आज है ठिठुरा
सर्द धार ऐसी कि कट रहे हाथ
बेदम लम्बी है आज की रात
अलाव जला लो
पुआल जमा लो
अहसासों की गरमाहट से
इंसानियत के औजारों से
इस रात को थोड़ा नर्म कर दो
चलों इस जाड़े को ज़रा गर्म कर दो  

 ©®मधुमिता

Tuesday 18 December 2018

मैने रात को टूटते हुये देखा है


मैने रात को टूटते हुये देखा है,
देखा है उसे बिखरते हुये,
शिकस्त खाते हुये
इन रोशनियों से,
छुपती, छिपाती,
फिर उस माहौल को 
खुद में समेट,
यकायक ,
ज़मीं पर उसको बरसते देखा है,
अवदाह सी,
भीषण अग्नि बनने को,
बनने को एक विराट दावानल
अहसासों की,
अनुभूतियों की,
चंचल और अदम्य
लपटों सी,
पाने को आतुर,
वो खोया आसमाँ,
जो पास नही था,
था बेहद दूर,
फिर थक कर,
चूर चूर हो,
धरती के माथे पर, 
पसीने की मानिंद,
उसको सजते देखा है,
सुबह सवेरे 
नन्ही सी
उस ओस की बूँद में,
उसे सिमटते देखा है,
हाँ, मैने रात को टूटते हुये देखा है।।

©®मधुमिता

Sunday 9 December 2018

जाने वाले...



जाने वालों से क्या गिला

और क्या ही शिकवा,

जाने वाले तो चले जाते हैं

ना जाने कहाँ!

ना तो वो कैद हो पाते,

ना ज़़ंजीरों में जकड़े जाते,

जाने वाले चले जाते हैं,

फिर मुड़कर नही आते हैं,

यादों को उनकी सहेज लो,

प्यार से उनको समेट लो,

इन यादों में उन संग चलो हँस लें,

खेलें ज़रा, ठिठोली कर लें,

यादों संग उनको जी जाओ,

संग अपने सदा पाओ ,

जाने वालों से क्या याराना,

क्यों उन संग दिल लगाना,

चलो अब मुस्कुराओ,

कदमों को आगे बढ़ाओ,

जाने वाले तो कब के चले गये,

बस यादों की गठरी छोड़ गये!!


©®मधुमिता



Saturday 8 December 2018

ना जाने कब
.
.

वक्त गुज़रता रहा

मन मचलता रहा

सपने बुनने लगी मैं

ख़ुद में खोने लगी मैं

थोड़ी साँवरी

ज़रा बावरी

बेपरवाह सी

अतरंगी सी

बेधड़क

बेफ़िकर

थोड़ी नाज़ुक सी

मेरे माशुक सी

ना जाने कब 

मुहब्बत जवाँ हो गयी

रोका किये मगर अब, 

नज़रों से बयाँ हो गयी...

©®मधुमिता

Thursday 6 December 2018

रात


रात को देखो तो ज़रा
कैसे खो सी गयी है !
तुम्हारे इर्द गिर्द लिपट,
रोशनी में तुम्हारी
सराबोर हो,
गुम हो रही है
तुम्हारी आँखों में,
इन दो नयनों के काजल मे,
झुकी पलकों के पीछे
चुपके से छिपकर ,
एक टक तुमको 
बस निहारती है,
चाहती है तुमसे बतियाना,
खूब हँसना 
और खिलखिलाना,
पर डरती है
तुम्हे डराने से,
इसीलिये बस घेरे रहती है,
पूरे पहर जाग जागकर,
फिर भोर तले 
गुम हो जाने को,
वापिस से फिर 
एक तिमिर में,
तुम मे ही खो जाने को ..!

©®मधुमिता

Thursday 15 November 2018

चक्रवात...



बावरा ये मेरा मन  
मन मेरा उद्धत
उद्धत जैसे हो चक्रवात
चक्रवात से कुछ अनुराग
अनुराग और अभिलाषा
अभिलाषा भरा इक संसार
संसार जिसमें हों रंग  कई
कई चित्र अनगिनत
अनगिनत से कई सपने
सपने जो बुने मैने
मैने तुम्हारे यादोँ संग
संग चलता साया तुम्हारा
तुम्हारा ही तो है ये मन    
मन जो है बावरा 
बावरा ही तो मन है ये
ये मन मेरा तनिक उद्धत  
उद्धत चक्रवात सा !!

©®मधुमिता

Monday 12 November 2018

दीपावली....


फूलों के बंदनवार सजे हैं
संग-संग मानों शहनाई बजे है
सजी हुई रंगोलियाँ
चारों ओर हैं रंगीनियाँ
आतिशबाज़ी की करतल ध्वनि
वायु संग थिरकती प्रतिध्वनि
रेशम सा कारा अंधेरा
आज दीप मालों से संवरा
चूमने को धरती का मन
उतरे हैं तारें और सारा गगन
गुलाबी सी हवा संग
दीपशिखा आज डोल रही है
रात के अंधियारे तले
तारों की बारात सजी है...

©®मधुमिता

Friday 2 November 2018

क़रीब...



भरी महफ़िल में आज 
उन आँखों के चिराग जल रहे हैं,
दूरियाँ सिमट रही हैं, 
दिलों के साज़,
धुन मुहब्बत की छेड़ रहे हैं ,
जल रही है शमा 
इतरा इतरा कर,
परवाने सब आमादा हैं
उस पर मर मिटने को,
सुरमई सी रात 
सरक रही है धीमे-धीमे,
सुनहरे सितारों को  
ख़ुद में समेट कर,
आहिस्ता-आहिस्ता 
हया की चिलमन मचल रही है,
ख़ुद आराई से शरमा कर,
सुलगते जज़्बातों को 
झुकी पलकें छिपा रहे हैं,
दो इश्क आज 
सितारों के शामियाने तले,
एक जान होने को 
क़रीब आ रहे हैं।।
 

©®मधुमिता

Wednesday 31 October 2018

ना था वो ही....


चाँद था,  सितारे थे,
और थी शमा,
बस एक परवाना ही ना था।

चूड़ियाँ थीं, बिंदी भी 
और मेहंदी उसके नाम की,
बस दिले-आशना ही ना था ।

बादलों पर थिरक रही थी, 
रौशन चाँदनी ,
फिर भी सब अन्जाना सा था।

हवा छेड़-छेड़ जाती थी,
धुन इश्किया सुनाती थी,
पर वो एक दीवाना ना था।

रात ग़ज़ल कह रही थी,
ढेरों फ़साने बुन रही थी,  
पर तेरा मेरा अफ़साना ना था। 

भरी सी दुनिया थी,
रंगीन सा जहाँ भी था,
पर तेरा बनाया आशियाना ना था।

इश्क था,  मुहब्बत थी
और थी आशिकी, 
बस तेरे प्यार का नज़राना ना था।

 ©®मधुमिता

Monday 29 October 2018

इंतज़ार...




आज रात हल्की सी ठंडी बयार 
छूकर जब निकली, 
तो सुने मैने शरद के पदचाप,
कोमल से पदचाप,
बिल्कुल उस पायल के आवाज़ सी
जो तुमने पहनाई थी मुझे, 
मधुर और कोमल,
छम-छम करती, 
ऊपर मोती सा गोल चाँद 
चमक रहा था ,
झाँक रहा था नीचे,
देख रहा था,
जब हवा, मेरे गालों को सहला
उस तक जा पहुंची थी,
सप्तपर्णी की सुगंध से लदी फदी,
हाथ बढ़ा, कोशिश की चाँद को छूने की,
उसी में तुम्हारा अक्स जो देखती हूँ,
सड़क पार जो यायावरों ने आग जलाई थी,
वह भी हल्की हो चली थी,
पर सुलग रही थी धीमे- धीमे, 
हमारे सुलगते अरमाँ हों जैसे, 
हर रोशनी,
चाँद, सितारे,
हर महक ,
हर आहट ,
तुम तलक ले जाती है मुझे,
हवा के झोंके पर सवार,
मन मेरा उड़ चलता है,
दूर, बहुत दूर ,
जहाँ एक नये क्षितिज पर 
तुम खड़े हो 
और साथ खड़ा है इंतज़ार,
इंतज़ार, जिसे चाह है
बस दो दिलों की नज़दीकी की,
तुम्हारे मेरे हाथों को थामने की,  
हमारे मिलन की ! 

©®मधुमिता

Thursday 25 October 2018

मुट्ठी भर आसमाँ ...





मुट्ठी भर आसमाँ लेकर 

निकली थी मै,

सारा जहाँ मै चुन लाई,

गुलाबी से कुछ ख़्वाब 

सजाना चाहती थी मै,

इन आँखों में देखो, 

सारा इंद्रधनुष उतार लाई,

कतरा एक ढूढ़ने चली थी, 

इस छोटी सी अंजुरी में मै 

प्रेम का सागर भर लाई ,

खुरदरे टाट से अंधेरे में

सपने कई सजा आई, 

क्षणभंगुर से इस जीवन में,

ज़िन्दगी जन्मों की जी आई,

मरुस्थल से इस दिल में

अनंत प्रेम समेट लाई,

मुट्ठी भर आसमाँ लेकर 

निकली थी मै,

सारा जहाँ मै चुन लाई ..।।


©®मधुमिता



Wednesday 24 October 2018

रब...


मेरा मन ही तेरा मंदिर है
मुझे घर-दर से तेरे क्या लेना। 
सब कुछ तो तेरा दिया हुआ है
फिर क्या खोना, और क्या पाना।
खुशियाँ भी तेरी, और ग़म भी
ज़ार-ज़ार फिर क्या रोना।
तू आदि है, तू ही अनंत
क्या मुश्किल है तुझको खोज पाना।
सैय्याद चहुँ ओर फिर रहे
ध्येय उनका, हर नाम को तेरे किसी तरह बस हर लेना।
या रब ! मै ख़ामोश हूँ देख, इंतज़ार में तेरे,
चुपके से आकर कभी तू, मेरे मन मंदिर में समा जाना।।


©®मधुमिता
चाँद....



चाँद आज शरमाया सा,
लजाया सा है कुछ,
बादलों के पीछे
लुकता- छिपता,
शायद मेरी नज़रों से
नज़र मिली जब,
तो झेंप गया वो ,
बहुत छेड़ा है मुझको इसने,
खिड़की से मेरी झाँक-झाँक कर,
रोज़-रोज़ ड्योढ़ी पर मेरे, 
बार-बार फेरी लगाकर,
आज काबू आया है ये,
क्यों भला अब छोड़ूं इसे,
खूब इसको मै सताऊँगी
गिन-गिन बदले चुकाऊँगी,
एकटक जो लगी ताकने
मनचली सी बनकर मै,
झट उड़ गया तब दूर गगन में,
देखो कैसे छिप गया आवारा, 
अब, चाँदनी के आग़ोश मे ।।

©®मधुमिता

Monday 22 October 2018

तब याद आ जाता है प्रेम ! 




शायद भूल जाती हूँ 

कभी कभी, प्रेम को,

फिर दिख जाता है 

दूधिया सा चाँद जब, 

चाँदनी संग लिपटा हुआ

तब याद आ जाता है प्रेम;

जब दिखती है

कंगूरे से झूलती 

कोमल सी लता,

पत्थर के स्तंभ से 

लिपटने को मचलती सी,

तब याद आ जाता है प्रेम;

रात में मदमस्त पवन,

मधुमालती के स्पर्श से

सुवासित हो,जब 

हिचकोले खाता है

और श्वेत सी मधुमालती

जब, लाज से गुलाबी हो

प्रेममयी हो जाती है,

तब याद आ जाता है प्रेम;

रात के अंधियारे में,

पुरानी उस किताब के 

जिल्द के भीतर छुपाई हुई

उन मटमैले ख़तों के 

धूमिल होते शब्दों को 

जब देखती हूँ,

फिर-फिर उनको जब मै, 

बार बार पढ़ती हूँ ,

तब याद आ जाता है प्रेम ! 

©®मधुमिता

Saturday 20 October 2018

शोर...


शोर बहुत है 
कुछ देर ख़ामोशी को सुन लें
बदहवास सी सोच
कल्पनायें भागती दौड़ती
यादें उमड़ती घुमड़ती 
अनर्गल से शब्द कई
बेलगाम सी आवाज़ें
नर्तन है किरणों का
छाया भी बकबकाती है
हवा कभी मचल उठती है
कोलाहल मचाती है 
भँवरा बौराया है
तितली खुसपुसाती है  
कानाफूसी का खेल है 
अनंत नादों का मेल है 
चलो चले निर्जन में
मौन से नीरव मे
 शोर बहुत है 
कुछ देर ख़ामोशी को सुन लें

©®मधुमिता

Tuesday 9 October 2018

तेरी लगे हर चीज़ यहाँ ...


सुबह तेरी
शामें तेरी,
रातें तेरी,
ये सहर भी,
सुर भी तू,
ताल भी तू,
तू बंदिशे,
तू रागिनियाँ,
स्थाई कभी,
अस्थाई कभी,
आरोह भी, 
अवरोह भी,
मध्यम,
द्रुत,
सब लय
विलय, 
कविता में तू 
संगीत में तू,
मेरा चैन भी
और सुकून भी,
धरती तेरी
आसमां तेरा
तू आशिकी
मेरी दीवानगी,
ये दिल तेरा,
ये जहाँ तेरा,
ख़्वाबों की मूरत है तू
ख़्वाहिशों का समन्दर तू,
हर घड़ी तेरी,
हर पल तेरा,
तेरी लगे, हर चीज़ यहाँ
मानों हो, ये कायनात तेरी।।


©®मधुमिता



 

Thursday 4 October 2018




रंग हैं 
पर रंगहीन से
शब्द भी हैं 
पर बेज़ुबान हैं
दुर्दान्त सी बेबसी है
चीखते हुई मायूसी भी
हर तरफ कर्णभेदी शोर है 
मृत्यु सी ख़ामोशी भी
कहते हैं सब अपने हैं मेरे
क्यों हर कोई पर अनजाना सा है
ख़ौफ़ कई हैं इर्द-गिर्द 
जो हरदम मुझे डराते हैं
अनदेखे कंकाल हैं कई
वीभत्स नाच दिखाते हैं
नासमझ सी एक समझ है
समझती हूँ लेकिन शायद सब
यादें भी हैं छुपी कहीं
जो हाथ नही हैं आतीं अब 
दिन और रात अब एक से मेरे
समय असमय सब एक समान
नींद अब कोसों दूर है मुझसे
जागना भी अब आदत है मेरी
अनसुलझे सवालों के अब 
जवाब बस ढूढ़ती हूँ
अजनबी चेहरों में हरपल 
अपनों को तलाशती हूँ
हर कोई दुश्मन लगता है
हर चेहरा पराया लगता है
कोई कहता है मै बेटा हूँ
कोई खुद को कहती है बेटी
कोई मगर ये तो बताओ 
कि कौन हूँ मै
हाँ कौन हूँ मै
किस देस से मै आई हूँ
नाम मेरा भी मुझे बताओ
अपनी हूँ कोई तुम्हारी
या कोई पराई हूँ 

©®मधुमिता

#alzheimer's 


Wednesday 3 October 2018

भूलना....


छोड़ गये हो तुम मुझे,
अपने दिल के उस छोर पर,
जो गाँठ बाँधे बैठा है
मेरे दिल के हर धड़कन से
जिनमें तुम बसते हो,
और बसती हैं यादें तुम्हारी,
खोलती हूँ उन गाँठों को जब,
तो और कस जाती हैं 
नामालूम क्यों!
उड़ाती हूँ यादोँ को हर शाम,
तो वो और रंग बिखेर जातीं हैं,
ना तुम देखते हो
और ना ही दिखते हो,
दिशाशून्य सी चल रही हूँ
धुमिल पड़ती स्मृति पटल पर,
गर तुम यूँ मुझे 
भुला दोगे  धीरे  धीरे ,
तो  मै  भी  तुम्हे 
हौले-हौले से,
भूलने की कोशिश 
तो कर  ही सकती  हूँ !!

©®मधुमिता

Tuesday 2 October 2018

प्रेम कहाँ छुप पाता है...


ठंडी बयार सी
दहकती अंगार सी
सूरज सा चरम
चान्दनी सी रेशम 
धूप छाँव के से खेल में
अद्भुत से बेमेल में
प्रेम कहाँ छुप पाता है
नयी कविता लिख जाता है 
नयनों में चहकते काजल सी 
पैरों में खनकती पायल सी
नयी बोली दे जाता है
शब्द नये सजाता है 
बोले अनबोले के फेर में
ख़ामोशी के हेर में
सब कुछ बदला सा लगता है
जब जहां नया सा लगता है
जब दिल बल्लियों उछलता है
अनुराग आँखों से छलकता है
तब प्रेम कहाँ छुप पाता है
नयी कविता लिख जाता है 

©®मधुमिता  

Tuesday 18 September 2018

मुस्कुराया जाये... 


चलो इस टूटे दिल को समेट
उसे प्यार से जोड़ा जाये,
जज़्बातों को पंख लगा 
ऊँचे आसमानों को छू आया जाये ।

इन हाथों को हाथों में लेकर
दो दिलों को जोड़ा जाये,
इन दो आँखों के आँसुओं को
मुहब्बत की गर्माहट से पोंछा जाये ।  

चलो ले चलूँ मै तुमको
एक नये रोशनी पूंज की ओर,
एक नयी राह पर 
एक नवीन रंगीन सुबह की ओर। 

निकल चलो इस आँधी 
और इस बेताले बेसुरे शोर से,
बह जाने दो सब विषाद 
इन आँखों के कोर से।

अश्कों की बरसात में से
कुछ मोती फिर संभालें जाये,
बीते हुये दिनों में से
खोई मुसकान को ढूँढ़ा जाये।

देखो तुम मेरी आँखों में
चलो सपनों को बटोरा जाये,
सतरंगी से ख़्वाबों के बीच
चलो फिर मुस्कुराया जाये। 


©®मधुमिता

Sunday 9 September 2018

प्यार की पांति...

तुम नयनों में काजल बन समा जाओ
मै बिंदिया सी दमक जाऊँ
तुम धूप बन आँगन मेरे उतर आओ
मै छाया बन लिपट जाऊँ
तुम मेघ बन जब आ जाओ
मै बारिश बन बरस जाऊँ
तुम शांत सागर से मुझे अपना जाओ
मै चंचल दरिया सी तुम में समा जाऊँ
तुम प्यार की पांति लिख जाओ
मै गीत बना तुमको गा जाऊँ

©®मधुमिता  

Tuesday 28 August 2018

चलो ना अब जाने दो!





चलो ना अब जाने दो!

एक घाव ही था

देखो ना, अब भर गया,

बहा था खून बहुत,

आँसू भी बहे थे खूब,

पर देखो तो, अब तो सब सूख गये,

हाँ, टीस तो बहुत है अब भी,

दर्द भी उठता है,

हल्का सा निशां भी एक रह जायेगा,

पर बस इतना भर ही;

यही तो जीवन है,

मिलना, बिछड़ना,

कभी ठोकर खाना,

कभी चोटिल होना, 

सब लेकिन किंचित हैं,

यथार्थ पर क्षणिक ,

बस रह जाती हैं कुछ यादें

धुंधली धुंधली सी

उस ज़ख़्म के निशां में, 

तो अब व्यर्थ ही क्यों 

तुम यू आँसू बहाती हो ? 

छोड़ो अब इस सूखे घाव को कुरेदना,

चलो ना अब जाने दो!

©®मधुमिता


Sunday 26 August 2018

इश्क हैं हम...


नर्म सी
कुछ गर्म सी
मीठी सी
मदहोश भी
मासूमियत से लबरेज़
मेहरबां जो हम हो जायें
जहाँ सारा सँवर जायें 
दिलेर हैं
बहादुर भी 
गर्मजोशी 
हममें हर पल है बह रही
नज़ाकत से सज धज
नीले आसमाँ को कभी छू आतें
कभी मदमस्त हवाओं को चूम आतें
फ़िक्र भी हम 
सुकून भी 
ख़लिश भी हम
मेहरबानी भी 
मासूमियत 
और नादानी भी 
ज़हीन भी 
हसीन भी
सुलगते जज़्बातों में हम
बहकते अंदाज़ों में हम
बेख़ौफ़ आते जाते
दिलों को हम चुरा लाते 
ख़्वाब भी हम
हम ही है हकीकत 
खुशी और खुशबू भी 
रंग और मौसीकी भी 
इश्क हैं हम
मुहब्बत आपकी
आपकी आशिकी
इस दुनिया में आपके
हम सा ना कोई 

©®मधुमिता

Saturday 18 August 2018

गंगा मयी...



सुलग रही थी मै,
धधक रही थी मै,
कुछ ज्वर से,
आवेश में,
ज्वार सी 
ऊफन रही थी,
विह्वल थी,
अज्ञान था,
सर्वज्ञान का भान था;
भागीरथी सम,
अलकनंदा, 
मंदाकिनी सी
कूदती-फांदती, 
हर बांध तोड़ 
भागी जा रही थी,
बेतहाशा,
बेकाबू..
कि उस किरण ने 
थाम लिया मुझको,
बोली, " ला दे दे",
" दे,अपनी उष्णता मुझको,"
"बाँट ले ये ओज मुझ संग",
और ढांप लिया 
मुझे अपने आँचल से,
जिस तल छिपी थी
असीम प्रकाशमयी गंगोत्री,
जो भिगो गयी मुझे,
संचारित कर गयी
नूतन चेतना,
दिखा गयी जीवन सारा,
समझा गयी जीवन सार,
उन्मादी उन्मुक्तता 
को लयबद्ध कर गयी,
अग्नि थी अब भी,
पर दावानल की ज्वाला नही,
मै शांत हो गयी,
शीतल हो गयी,
जीवन ज्ञान से 
लदी फदी,
बह चली थी मै,
मै, अब गंगा हो गयी थी ।।

©®मधुमिता

 

Thursday 9 August 2018

अब जाने दो....


चलो ना! अब जाने दो!
क्यों टाँकती हो इन रंग-बिरंगी कतरनों को
इस तार तार होती रिश्तों की चादर पर?
हाँ, ये दूर से लगती तो बेहद खूबसूरत है,
और फिर तुम्हारी कारीगरी भी तो गज़ब है
जो इन महीन और नाज़ुक धागों से इनको 
बेइंतहा मुहब्बत से सीती हो !
दिल से जोड़कर रखती हो!
पर इनसे भान होता है, इनके एक सार ना होने का,
अहसास होता है एक टूटन का, 
हर पैबंद ढांक रहा है एक गर्त को,
जिनमें बसे हैं असंख्य भंवर,
झंझावत और चक्रावात ,
जो तैयार हैं तुमको सोखने को, एक अनंत, अदृश्य में,
आत्मसात करने को चिरकालिक अंधकार में,
बस एक टाँके के चटकने भर की दरकार है !
कोई मायने नहीं अब इसे संभालने की, 
लाख कोशिशें कर लो, अब ये ना संभलने की,
हर पैबंद एक चोट है,
सुंदर सी पट्टी के पीछे, रिसती हुई;
चलो ना, कुछ नये धागे बिन लायें,
एक नई रंगीन चादर बुन डालें,
सजायें नये रंगों से,
नये सपनों से, 
मैली बेहद है ये
बेकद्र भी बहुत,
अब इसको ना रोको,
वक्त के सलवटों में चलो
इसको अब दफ़ना दो,
चलो ना! अब जाने दो!        

©®मधुमिता

Wednesday 2 May 2018

बसंत...


छंट गया भीषण अंधियारा
प्रकाशमय हो गया अम्बर,
सर्द हवा के चादर के बीच
झांक रहा उजला सूरज!
दृश्य सजे हैं अनगिनत,
चहुँ ओर है मधुरम सुगंध,
नव किसलय हैं,
नूतन कलियाँ, 
भवरों का गुनगुन,
चहकती हुई
पंछियों की धुन,
रस लहरी है, 
है रंगों की झड़ी,
उत्साह है, उल्लास है,
अनंत आनंद का आभास है,
प्रेम-प्यार की है बयार,
राग-अनुराग की 
हर पल बहती धार,
गुलाबी सी मदहोशी है,
बासंती रागिनी, 
स्वर्णिम से सपने,
स्वप्निल सा मौसम,
सपनों में बसंत है कोई,
या बसंत में कोई सपना !

©®मधुमिता


Friday 13 April 2018

मदारी...


जमूरे!
बोलो मदारी!
खेल दिखायेगा?
दुनिया को नचायेगा?
पर कैसा खेल
और कौन सा नाच?
वही जो तुझे सिखाया है,
इतने बरसों से बताया है!
पर मै कैसे सबको नचाऊँगा?
सबकी जीवन डोर को कैसे घुमाऊँगा?
ये दुनिया तो खुद ही सरपट भागती है,
बेतहाशा यूँ ही नाचती है,
अनदेखी सी डोर से बंधी,
कभी उठती, कभी बैठती,
बताओ तो ज़रा, किसने थामी है उनकी डोर?
सबकी डोर है उसके हाथ,
वही जो देता है सबका साथ,
नचाता है, 
बिठाता है,
हँसाता है,
रुलाता है,
वही तो है सबसे बड़ा मदारी!
रचा हुआ सब उसका सारा,
सृष्टि, सृष्टा सब वही है,
उसी की बिसात बिछी है,
चल उठ अब, खेल दिखाते हैं,
दुनिया को नचाते हैं,
सब उसी का खेला जान,
उसी की मरज़ी मान,
क्यों जमूरा!
हाँ मदारी।
 
 ©®मधुमिता 


 

Friday 6 April 2018

रात...

सलेटी मख़मल सा ये आसमां,

बहुत अकेला है देखो!

ना तो चंदा का साथ है,

ना चाँदनी की चिलमन,

ना कोई रात का परिंदा है

और ना ही कोई पतंगा,

मोम सी पिघल रही है रोशनी शमा की

सहर के इंतज़ार में,

हर लम्हे की साँसों को सुन लो,

दस्तक जो देतीं वक़्त के दरवाज़े पर,

ख़ामोशी को सुनो,

छुपी हुई है वो इस शब के सलवटों में,

ख़ौफ़ है उसे इस अंधेरे से

गुम हो रही है जिसमें हर उजली सी उम्मीद,

देखो! आज रात स्याह बहुत है,

कुछ सितारे तुम सजा क्यों नही देते!

©®मधुमिता

Sunday 18 March 2018

कहो तो तुम क्या हो!



रेशम सा सहला जाते हो,
ठंडी हवा सा सिहरा जाते हो,
इत्र की महक हो!
हो शहद की मिठास!
कुछ तीखे से,
कुछ नमकीन,
बारिश की बूंदों सा
भिगो जाते हो,
मनचले बादल सा
फिर फिर उड़ आते हो,
खुली आँखों से देखा ख़्वाब हो,
सवाल कभी, तो कभी जवाब हो,
उलझन हो,
सुकून हो,
साँस हो,
आस हो,
हर पल रहते आसपास हो!
कौन हो?
क्या हो?
एक अहसास हो महज़,
या कोई सच हो?
कहो तो तुम क्या हो!

©®मधुमिता 

Saturday 3 March 2018

सूरज....



अलसाई नज़रों से जब देखा किये हम
तो एक अलसाई सी मुस्कान लिये
शरारती सी सुबह ने हमे सलाम किया,
जवाब में मुस्कुराये ही थे 
कि बादलों की ओट से झाँकते दिखे ये ,
हौले से हमें अपनी रोशनी में समेटने लगे,
उनकी सुनहरी किरणें थिरकने लगी
जिस्म पर हमारी, मचलने लगी रोम रोम में ..
कसमसा कर हमने रज़ाई और कस ली,
बस अधखुली सी नज़रों से जब देखा उन्हे,
तो बड़ी रौब में इतरा रहे थे वो,
कभी सामने आ जाते, 
कभी बादलों में गुम हो जाते,
खेल रहे थे हम संग, आँखमिचौली,
करते हुये कई अठखेली,
अम्मा! क्यों नही कहती आप इनसे कुछ!
कहिये कहीं और जाकर इतरायें,
किसी और पर अपना जादू चलायें,
बदमाशी पर जो हम उतर आयें 
तो हथेलियों में बंदकर 
उतार लायेंगे आसमान से
और कैद कर लेंगे अपने कमरे के फानूस में,
फिर हमसे मत कहियेगा छोड़ने को
इस मग़रूर और आशिकाना 
बदमाश से सूरज को! 
  
©®मधुमिता 

Tuesday 13 February 2018

बस दो गज़ ज़मीन को पा जाने को..



कभी रोते हो,
कभी रुलाते हो,
मुस्कान मिटा आते हो,
ज़ोर खूब आजमाते हो,
बस दो गज़ ज़मीन को पा जाने को!


मरते हो,
मार जाते हो,
लुट जाते हो,
लूट आते हो,
बस दो गज़ ज़मीन को पा जाने को!

तेरा मेरा करते हो,
अपना पराया जपते हो, 
ज़मीं दर ज़मीं बाँट आते हो,
राम औ' रहीम को अलग बताते हो,
बस दो गज़ ज़मीन को पा जाने को!

कभी ख़ौफ़ हो,कहीं मौत हो,
संत्रास कहीँ, कभी संताप हो,
चोट हो, आघात हो,
हे मनु! क्यों इतने घृणित हो तुम?
अंत मे बस दो गज़ ज़मीन को पा जाने को!

©®मधुमिता