Monday 29 October 2018

इंतज़ार...




आज रात हल्की सी ठंडी बयार 
छूकर जब निकली, 
तो सुने मैने शरद के पदचाप,
कोमल से पदचाप,
बिल्कुल उस पायल के आवाज़ सी
जो तुमने पहनाई थी मुझे, 
मधुर और कोमल,
छम-छम करती, 
ऊपर मोती सा गोल चाँद 
चमक रहा था ,
झाँक रहा था नीचे,
देख रहा था,
जब हवा, मेरे गालों को सहला
उस तक जा पहुंची थी,
सप्तपर्णी की सुगंध से लदी फदी,
हाथ बढ़ा, कोशिश की चाँद को छूने की,
उसी में तुम्हारा अक्स जो देखती हूँ,
सड़क पार जो यायावरों ने आग जलाई थी,
वह भी हल्की हो चली थी,
पर सुलग रही थी धीमे- धीमे, 
हमारे सुलगते अरमाँ हों जैसे, 
हर रोशनी,
चाँद, सितारे,
हर महक ,
हर आहट ,
तुम तलक ले जाती है मुझे,
हवा के झोंके पर सवार,
मन मेरा उड़ चलता है,
दूर, बहुत दूर ,
जहाँ एक नये क्षितिज पर 
तुम खड़े हो 
और साथ खड़ा है इंतज़ार,
इंतज़ार, जिसे चाह है
बस दो दिलों की नज़दीकी की,
तुम्हारे मेरे हाथों को थामने की,  
हमारे मिलन की ! 

©®मधुमिता

No comments:

Post a Comment