Saturday 24 December 2016

मासूम ख़्वाब..




कुछ यादें ताक पर धरी हैं,
झाङ-पोंछकर, चमका रखी हैं।

चंचल सी साँसें कई
इधर-उधर बिखरी पङी हैं।

जज़्बातों की लौ 
सुलग रही है आले पर,

कुछ अल्हङ से अरमान
झूल रहे हैं फ़ानूस पर।

अहसासों की पोटली
टांग रखी है दीवार पर,

नटखट सा चेहरा तुम्हारा
खेल रहा लुकाछिपी।

किताबों के पन्नों के बीच कुछ दिन छुपे हैं,
जिन्हें  ढूढ़ रही दो आँखें मेरी, 

कुछ मखमली से दिन 
और रेशमी रातों की झालरें भी सजी हुई हैं।

झरोखे से झाँक रहे हैं 
कुछ  मासूम ख़्वाब,

सम्भाल लेना इन्हें,
देखो, कहीं गिर ना जायें!

©मधुमिता

Tuesday 20 December 2016

अक्स..



ना वफ़ा से कोई रिश्ता, 
ना ज़फा से कोई सरोकार,
ना कोई आज,
ना ही कोई कल, 
अपना भी नही,
ना ही बेग़ाना,
ना चमक,
ना रौनक,
बेरंग सा चेहरा,
बेनूर आँखें,
गड्ढों में धंसे 
टूटे सितारों से,
ना मुस्कान,
ना आन, बान, शान,
थकी हुई सी,
टूटी हुई, 
लाश बन चुकी
एक जीवन सी,
खुद को ढूढ़ती,
आईने में एक बिंब 
अनदेखी, 
अनजानी सी
देखती हूँ, 
डर जाती हूँ, 
मुँह मोड़ लेती हूँ 
उससे,
या खुद से ?
मटमैले, बेजान से इस
चेहरे को नही जानती मै,
ख़ुद ही अपने अक्स को 
नही पहचान पाती हूँ अब...!!

©मधुमिता

Sunday 18 December 2016

टूथपेस्ट के बुलबुले....



पेपरमिंट सी,
कभी मीठी,
कभी नमकीन,
दातों के बीच 
कुलबुलाती,
मुँह में स्वाद भर जाती,
कसमसाती, 
बुदबुदाती, 
भर जाती सनसनाहट,
अनदेखी सी गर्माहट,
ताज़गी की अहसासें, 
ठंडी सी साँसें, 
कभी बनती,
कभी फूटती,
मुँह में मिठास सी घोलती,
मेरे अधरों को चूमती, 
मुस्कुराहट दे जाती,
सफेद-गुलाबी झाग से घिरी, 
टूथपेस्ट के बुलबुलों सी
यादें तुम्हारी. ..!

©मधुमिता

Tuesday 13 December 2016


वो पुराने दिन..



वो पुराने दिन भी क्या दिन थे
जब दिन और रात एक से थे,
दिन में रंगीन सितारे चमकते,
रात सूरज की ऊष्मा में लिपटे बिताते।


फूल भी तब मेरे सपनों से रंग चुराते,
तितलियाँ भी इर्द गिर्द चक्कर लगातीं,
सारा रस जो मुझमें भरा था,
कुछ तुममें भी हिलोरें लेता।


कोरी हरी घास पर सुस्ताना, 
मेरे बदन पर तुम्हारी बाहों का ताना बाना, 
पतंग से आसमान में उङते,
एक दूसरे में सुलझते उलझते।


शाम की ठंडी बयार, 
होकर  मेरे दिल पर सवार, 
छू आती थी लबों को तुम्हारे,
मेरे दिलो दिमाग़ पर रंगीन सी ख़ुमारी चढ़ाने।


रातों ने काली स्याही 
थी मेरे ही काजल से चुराई,
जुगनु भी  दिये जलाते,
मेरे नयनों की चमक चुरा के।


चाँद रोज़ मेरे माथे पर आ दमकता,
गुलाबी सा मेरा अंग था सजता,  
सितारों को चोटी मे गूंथती 
ओस की माला मै पहनती।


अरमानों की आग में हाथ सेंकते,
एक दूजे में यूँ उतरते,
तुम और मै के कोई भेद ना होते,
बस हम और सिर्फ हम ही होते।


एक ही रज़ाई में समाते,
भीतर चार हाथ चुहल करते, 
तब मोज़े भी तुम्हारे , 
मेरे पैरों को थे गरमाते।


क्या सर्द, क्या गर्म,
हर चीज़ मानो मलाई सी, नर्म,
बस एक पुलिंदा भरा था हमारे प्यार का,
पर था वो लाखों और हज़ार का। 


काश वो दिन फिर मिल जाते,
दीवाने से दिल कुछ यूँ मिल पाते,
कच्ची अमिया और नमक हो जैसे,
या गर्म चाशनी में डूबी, ठंडी सी गुलाबजामुन जैसे।

©मधुमिता

Monday 12 December 2016

रोशनी सी बिखेरते हैं. ...




हर एक मौसम में रोशनी सी बिखेरते हैं 
ये चाँद सा चेहरा तेरा ,
चाँदनी के फूल सी पाक मुस्कान तेरी,
हीरे सी तराशी दो आँखें तेरी,
चम्पई सोने सा बदन तेरा,
ये रेशमी चमकते गेसू तेरे,
माथे पर चमचम चमकती बिन्दिया तेरी,
दमकता सा ये हीरे का लौंग तेरा,
कजरारी सी चमकती नजरें तेरी,
छनकती काँच की चूड़ियाँ तेरी,
छमकती हुईं पाज़ेब तेरी,
सूर्ख़ लाल लब तेरे,
ग़ुलाबी सी मदहोशी तेरी,     
हर वक्त धधकते अरमान तेरे,
हर अंधेरे को मुझसे दूर करते
रौशन करते, मखमली धूप से 
ये जज़्बात  तेरे...
हर एक मौसम में बस रोशनी सी बिखेरते हैं ।।

©मधुमिता 

पहली पंक्ति वसी शाह से

Wednesday 7 December 2016

बिछी पलकें. .....



शाम ने रंगी चादर बिछाई हुई है,
सितारों ने महफिल सजाई हुई है,
हवा की तपिश गरमाई हुई है,
कली कमल की यूँ खिल रही है,
बाग़े वफ़ा भी यूँ शरमा रही है,
जैसे वो मेरे लिये पलकें बिछाई हुईं हैं ।


झिलमिलाती कालीन बिछाई हुई है,
धड़कनों की ताल पर, दिल ने तान छेड़ी हुई है,
हर कूचे,गलियारों में वो झांकती मिली है,
पलटकर,पलक में वो ग़ायब मिली है,
इंतज़ार भी यूँ अब इतरा रही है,
जब उसने मेरे लिये पलकें बिछाई हुईं हैं ।


दुल्हन सी शब सजाई हुई है,
जुगनुओं ने बारात निकाली हुई है,
झींगुरों की सरगम ने, अनोखी सी धुन सजाई हुई है,
मेरे शब्दों ने झीनी सी झालर एक बनाई हुई है,
क्योंकि छुईमुई सी वो, सुर्ख, शरमाई हुई है,
इंतज़ार में मेरे जो पलकें बिछाईं हुईं हैं।।

©मधुमिता

Monday 5 December 2016

बदलाव...



सुबह बदली सी है,
शाम भी बदली बदली,
हवा का रुख़ भी बदला सा है,
बदली सी है कारी बदली।


गाँव बदल रहे हैं, 
शहर बदल रहे हैं,
बदली सी धरती अपनी,
बदला बदला सा आसमान।


नज़र बदल रही है,
नज़ारे बदल रहे हैं,
बदले से हैं यहाँ ईमान,
बिल्कुल बदल गया इंसान।    


दुनिया बदल रही है,
ज़माना बदल रहा है,
बदल रही हैं ख़्वाहिशें,
बदल से रहे हैं अब सपने।


बदले बदले से हैं सब जो थे अपने,
बदल गये हैं रास्ते, 
बदल से गये हैं सबके दिल अब,
ना जाने कैसे, कब बदल गया यूँ सब।


प्रौद्योगिकी का ज़ोर है,
प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा की होङ है,
मानव भी मशीन सा हो गया है,
वाहन सा इधर उधर जीवन को ढोह,दौङ रहा है। 


कुछ भी पहले सा ना रहा,
रिश्ते नाते भी अब बदल गये,
दोस्त भी अब पहले से ना रहे,
शायद हम भी कुछ अब बदल से गये।।

©मधुमिता