गंगा मयी...
धधक रही थी मै,
कुछ ज्वर से,
आवेश में,
ज्वार सी
ऊफन रही थी,
विह्वल थी,
अज्ञान था,
सर्वज्ञान का भान था;
भागीरथी सम,
अलकनंदा,
मंदाकिनी सी
कूदती-फांदती,
हर बांध तोड़
भागी जा रही थी,
बेतहाशा,
बेकाबू..
कि उस किरण ने
थाम लिया मुझको,
बोली, " ला दे दे",
" दे,अपनी उष्णता मुझको,"
"बाँट ले ये ओज मुझ संग",
और ढांप लिया
मुझे अपने आँचल से,
जिस तल छिपी थी
असीम प्रकाशमयी गंगोत्री,
जो भिगो गयी मुझे,
संचारित कर गयी
नूतन चेतना,
दिखा गयी जीवन सारा,
समझा गयी जीवन सार,
उन्मादी उन्मुक्तता
को लयबद्ध कर गयी,
अग्नि थी अब भी,
पर दावानल की ज्वाला नही,
मै शांत हो गयी,
शीतल हो गयी,
जीवन ज्ञान से
लदी फदी,
बह चली थी मै,
मै, अब गंगा हो गयी थी ।।
©®मधुमिता
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