Thursday 9 August 2018

अब जाने दो....


चलो ना! अब जाने दो!
क्यों टाँकती हो इन रंग-बिरंगी कतरनों को
इस तार तार होती रिश्तों की चादर पर?
हाँ, ये दूर से लगती तो बेहद खूबसूरत है,
और फिर तुम्हारी कारीगरी भी तो गज़ब है
जो इन महीन और नाज़ुक धागों से इनको 
बेइंतहा मुहब्बत से सीती हो !
दिल से जोड़कर रखती हो!
पर इनसे भान होता है, इनके एक सार ना होने का,
अहसास होता है एक टूटन का, 
हर पैबंद ढांक रहा है एक गर्त को,
जिनमें बसे हैं असंख्य भंवर,
झंझावत और चक्रावात ,
जो तैयार हैं तुमको सोखने को, एक अनंत, अदृश्य में,
आत्मसात करने को चिरकालिक अंधकार में,
बस एक टाँके के चटकने भर की दरकार है !
कोई मायने नहीं अब इसे संभालने की, 
लाख कोशिशें कर लो, अब ये ना संभलने की,
हर पैबंद एक चोट है,
सुंदर सी पट्टी के पीछे, रिसती हुई;
चलो ना, कुछ नये धागे बिन लायें,
एक नई रंगीन चादर बुन डालें,
सजायें नये रंगों से,
नये सपनों से, 
मैली बेहद है ये
बेकद्र भी बहुत,
अब इसको ना रोको,
वक्त के सलवटों में चलो
इसको अब दफ़ना दो,
चलो ना! अब जाने दो!        

©®मधुमिता

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