Monday 29 August 2016

सुकून 





माँ की गोद में क्या सुकून था!
ना घबराहट, 
ना कोई तङप, 
बस इत्मीनान की नींद, 
नही जहाँ कोई डर
और ना ही कोई फिकर।



माँ की गोद से उतरे
तो स्कूल की फिक्र,
मास्टर जी डाँट
और पिताजी की फटकार,
नम्बरों की चिंता 
प्रशंसा के साथ निंदा,
सब मिलकर एक अजीब सा गुब़ार,
सोचों का विशाल अंबार।



फिर  आगे की शिक्षा,
परीक्षा ही परीक्षा, 
ना भूख, ना प्यास,
बस आगे निकलने की होङ
ऊँचे उङने की आस,
ना चैन की नींद, 
ना इत्मीनान की साँसें, 
हर घङी हम बस बदहवास से भागे।



फिर आया रोज़ी 
रोटी का खेला,
दुनिया का अजब झमेला,
धक्कम-धक्का 
ठेलम - ठेल,
हाथ आये बस
आटा, दाल,
साबुन, तेल ।



साथ ही आ गयी साथी की सवारी,
लो दौङ पङी गृहस्थी की गाङी,   
साङी, कपङा, बच्चे, 
स्कूल, फीस, हस्पताल,
शादी, राशन, इत्यादि, 
कभी मृत्यु तो 
कभी जंचगी की तैयारी,
सुकून तो मानो फिसल गई थी,ज़िन्दगी से सारी।




अधेङावस्था थी और गजब,
बच्चे बङे हो गये थे अब,
अब उनके स्थायित्व की चिंता थी भारी,
फिर उनके रोजगार की चिंता 
शादी और बच्चों की बारी,
चैन कहीं खो गया था,
इत्मीनान भी गुम गया था,
वो माँ की गोद का सुकूं, अब कहाँ था।



समय अब मिट्टी में मिलने का है,
मिट्टी माँ सी समझाती है,
कि ग़म ना करो ऐ इंसां!
मिट्टी में वो सुकुन तो पा लेते हो,
जिस सुकून को तलाशते 
पूरी उम्र गुज़ार जाते हो ।।

©मधुमिता

Thursday 25 August 2016

सुकून तुझको मिल जाये 



देखती हूँ तुझको करवटें बदलते हुए,
खुली आँखों को तेरी नींद को तङपते हुए,
रातों को सुबह में बदलते हुए,
साँसों को तेरी उलझते हुए ।


देखा है तुझे इधर-उधर, भटकते, 
अनजानी राहों पर बस यूँ ही चलते,
अपने ख्यालों में इस कदर खोते
कि पहचानी गलियाँ भी भूलते।


कहाँ खो गई ना जाने तेरी मुस्कान!
चेहरे पर झलकती जीवन भर की थकान,
माथे पर अनगिनत शिकन,
मानों दिल से अलग हो गयी हो धङकन।


हर पल मचलता वो दिल कहाँ है? 
हर कुछ कर जाने को वो जोश कहाँ है?
ढूढ़ कर ले आऊँ तुझे, तू बता कहाँ है
तू? मुझे बता दे, खुद को छोङ आया कहाँ है?


तेरी हँसी बिना ये जीवन वीरान है,
ढूढ़ रही हर घङी तेरी मुस्कान है,
तू मेरा गौरव और मान है,
तू खुद ही तो खुद की शान है।


कहाँ खो गयी ज़िन्दगी तेरी,
क्यों उलझ कर रह गयी तकदीर तेरी?
क्यों खुशियों ने तुझसे नज़रें फेरी?
काश मै बन पाती दवा तेरी!


कैसी ये तङप और घबराहट है?
हर वक्त क्यों छटपटाहट है!
कौन सा वो डर है जो डरा रहा है!
क्यों यूँ तू अंदर ही अंदर तिलमिला रहा है?


रुक जा ज़रा दो घङी ढंग से साँस तो ले,
खून को बदन में दौङ जाने तो दे,
होंठों पर एक मुस्कान खेलने तो दे,
आँखें बंद कर, नींद को आँखों में उमङ  आने को दे।


बस अब! कोई तकलीफ ना तुझ तक आये,
तुझपर ना ज़रा भी आँच आये,
काश कुछ ऐसा हो जाये,
कि सुकून तुझको मिल जाये....

© मधुमिता

Monday 22 August 2016

बाॅस की बीवी 


जया और निम्मी मुझे बाहर तक छोङने आई थीं । गला रुंधा जा रहा था, एक अजीब से दर्द से मानों घुट रहा था। आँखें छलछला रही थीं। "मैम आप आओगे ना कल" निम्मी पूछ रही थी।जया मेरा हाथ पकङ कर कह रही थी," प्लीज़ आ जाना।तुम नही रहोगी तो मै अकेली हो जाऊँगी"। मेरे पास कोई जवाब ना था। लिफ्ट आई और मै जल्दी से अंदर घुस गयी। जया और  निम्मी हाथ हिलाकर कर बाय कर रही थीं और लिफ्ट के दरवाज़े बंद हो गये। लिफ्ट धङधङाती नीचे चल दी।

खुद को अकेला पाकर आँखें भी बरस गयीं । हथेली  के दोनों तरफ  से आँख और नाक से निकल पङी धाराओं को पोंछने लगी। लिफ्ट जल्दी ही, हवा के वेग सी, नीचे पहुँच गयी और मै बाहर।

जया और निम्मी मेरी सहकर्मी थीं ,मेरे पति अतुल और उनके पार्टनर श्यामल की कम्पनी में। वही कम्पनी जिसे मैने कुछ नही से, बहुत कुछ बनते हुये देखा था। तब से साथ थी मै जब गिने चुने एमपलाॅईस थें और आज इतना बङा ताम झाम,सैंकड़ों लोग काम करते  हुए । तब जब खुद पानी भरकर पीते हुये भी मुझे कभी दिक्कत नही हुई और ना ही सहयोगियों के लिए चाय-पानी का सामान खरीदकर लाते हुए कोई शर्मिंदगी महसूस हुई।

कभी डिजाइनिंग करवाना,कभी प्रोडक्ट स्टोरीज़ लिखना, कभी डिसपैचेस का रिकॉर्ड तो कभी सेल्स फिगर्स का हिसाब । लोगों को इंटरव्यू करना, नये लोगों को काम सिखाना....यहाँ तक की बोतलें, डब्बे गिनवाना, प्रिन्टस चेक करना, प्रूफ़ रीड करना, सब कुछ तो करती थी।

उसके ऊपर से अतुल की झल्लाहट सहना, उनके गुस्से का शिकार होना। कोई काम नही होता था समय पर तो सारा गुस्सा मुझपर उतरता। किसी बाहर वाले की गलती की सज़ा भी मुझे ही भुगतनी पङती कितनी बारी। कई बार तो सहयोगियों को बचाने की खातिर खुद सामने होकर अपने आप ही झेल लेती थी उनका गुस्सा । मेरी खुशमिजाज़ी की वजह से सहयोगी भी खुश रहते और काम भी खुशी से करतें,फिर भले ही कितनी ही देर हो जाती । सब कुछ अच्छा चल रहा था ।

फिर धीरे-धीरे काम बढ़ने लगा, ज़्यादा लोग जुङने लगे और बढ़ने लगीं कोई लोगों की असुरक्षा की भावनाएँ । कल तक जो सारे काम मै कर रही थी, दस लोगों का काम कर रही थी ,मेहनत कर रही थी, तब किसी को भी कोई परेशानी नहीं होती थी, लेकिन अब कुछ लोगों को आपत्ति होने लगी थी । मेरा कुछ भी बोलना या कहना उनके अधिकारों का हनन नज़र आने लगा । एक सहकर्मी से मै अब ' बाॅस की बीवी ' बन गई थी ।

हद तो तब हो गई जब एक दिन मुझे अंदर बुलाया गया- अंदर श्यामल और अतुल दोनों ही थे । फिर  एकदम से श्यामल शुरू हो गये - आपको ये करने की क्या ज़रूरत है, वो करने की क्या ज़रूरत है. . और अंत में मुझे तरीके से मेरी हदें और अधिकार बता दिये गये । मुझे एक शब्द भी बोलने नही दिया गया । मै अतुल की तरफ देख रही थी । मगर उन्होंने चुप्पी साध रखी थी । मेरी तरफ देखा भी नही और ना ही कुछ भी बोलें -ना ही बाॅस की तरह, ना ही सहकर्मी की तरह । मै चुपचाप उठी और बाहर आ गई ।

भोजन का समय था । सब लंच करने गये थे । कुछ ही लोग थे बाहर । मैने अपना लैपटॉप बंद किया, अपना पर्स संभाला, सारे दराजों को बंद कर चाभी निम्मी को पकङाकर कहा कि अंदर बता देना मै घर चली गई । शायद मेरी नज़रों ने बहुत कुछ बयान कर दिया था इसलिये निम्मी और जया परेशान हो उठी थीं और मेरे पीछे-पीछे आ गईं थीं ।

मै चलती ही जा रही थी और खुद से पूछ रही थी - " क्या ये कम्पनी मेरी नही थी? क्या इसको बनाने में मेरा कोई योगदान नहीं है?"
"क्या उनकी असुरक्षा की भावना उनको डरा  रही थी? या फिर मेरी मशहूरी, मेरी सफलता, काम करने का तरीका और लोगों के बीच मेरी ख्याति ने उनको हिला कर रख दिया था? "

और अतुल वो तो कुछ भी नहीं बोले थें मेरी तरफ से -ना बाॅस की तरह, ना ही किसी सहकर्मी की तरह । उनका व्यवहार तो बिल्कुल ही असहनीय था ।क्या वे भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं या फिर इसलिए कुछ नही बोलें क्योंकि मै उनकी पत्नी थी!

अचानक मेरी तंद्रा टूटी । मेरी बिल्डिंग के गार्ड भैया मुझे आया हुआ कुरियर देने को आवाज़ लगा रहे थे । मैने अचकचाकर उनसे कुरियर लिया और धन्यवाद कहा ।

पता नही कब और कैसे चलते-चलते मै अपनी बिल्डिंग तक आ गई थी । पसीने से तर बतर । गला भी सूख रहा था । आँखें छलछला रही थीं । तभी सामने दो मार्ग नज़र आये - एक जो अतुल और श्यामल की ओर जाता था और दूसरा जो पता नही कहाँ ले जाने वाला था।

तभी मैने अपने लिए दूसरा रास्ता चुन लिया ।

मंज़ूर था मुझे नयी राह पर अकेले चलना, नही मंज़ूर था मुझे ' बस ' " बाॅस की बीवी" बनना ।

ऐक्सेस कार्ड से गेट खोला मैने । सामने लिफ्ट खङी थी । आत्मविश्वास से भरे कदम मैने अंदर रखे, नंबर दबाया । लिफ्ट धङधङाती हुई ऊपर चल दी।

© मधुमिता 

Sunday 21 August 2016

अंगारे




स्याह अंधेरी रात में 
दीये की लौ का साथ,
कंपकंपाती सी जाङे
के अंधियारे को 
थोङा रौशन कर जाती है,
बंधा जाती है आस
एक अधूरे से वादे
के पूरा होने का।


इन तन्हाइयों में,
खामोशी भी एक
अनोखा संगीत सुनाती है,
लौ की फङफङाहट
कोई वाद्य यंत्र 
बजाती है,
दूर कहीं,  झींगुरों 
ने भी रागिनी छेङी है।


बारिश की बूंदों ने भी
खिङकी से लिपट-लिपट,
मेरी तंद्रा तोङी है,
मेघराज भी गरज -गरज कर
बारबार हैं  डरा जाते ,
उनसे लिपटने की चाहत में,
उनके ना होने का अहसास, 
बेदर्द से, करा जाते हैं ।


सर्द, बेरंग सा कमरा
है, और कुछ धुंधली
सी मटमैली यादें,
गरमाईश देने की
कोशिश करती
एक बेचारी रज़ाई, 
जिसमें सिमट कर भी सिहर उठती हूँ,
जब उनकी यादें नसों में दौङ जायें।


नींद खङी है दरवाज़े पर,
आँखें रस्ता रोके खङीं हैं,
कई रंगीन सपनों की 
जागीर है आँखें, 
कैसे किसी और को 
सौंपें खुद को!
सबके बीच मै बैठी हूँ 
एक धङकता दिल,बेहाल लिए। 
  

वो कोसों दूर हैं
पर लिपटे मेरे तन से हैं,
मन मेरा ये घर है उनका,
साँसों को भी नाम उनके किये,
इस बेरंग सी रात को
उनका ही नाम रंगीन कर जाता है,
उनके मुहब्बत का ही रंग है
लाल से तङपते दिल में।


लाल सी ही जल रही
लकड़ियाँ एक कोने में,
मेरी तरह ही ये भी जल रही,
चुपचाप इस वीरान सी
गुमसुम सी रात में,
अकेले में, कसमसाकर,
भागती धङकनों को थामकर,
इंतज़ार करती आँखें फाङे हुये मै। 



कुछ गुलाबी से अरमान 
कुलांचे मार रहे हैं,
उनसे मिलने को 
हुये जा रहे बावरे,
दिल भी अनर्गल बोले जा रहा
धङक-धङक कर आवारा सा, 
कुछ जज़्बात भी हैं, जो सुलग रहे हैं 
इन सुर्ख अंगारों की मानिंद....

©मधुमिता

Thursday 18 August 2016

ओ हरजाई 



तू कहाँ छुप गया है,
ना कोई खबर ना पता है,
ज़िन्दगी भी वहीं ठहर गई ,
मेरी दुनिया भी तभी सिमटकर रह गई,
लफ़्ज़ ठिठुर रहे हैं,
अहसास सर्द पङे हैं, 
जज़्बातों में जमी है बर्फ की चादर,
चाहत की आग सुलग रही पर दिल के अंदर।


अधर अभी भी तपते हैं,
तेरे अधरों को महसूस करते हैं,
आँखों में आ जाती नमी है,
सब कुछ तो है मगर,एक तेरी कमी है,
नज़रों को तेरे साये का नज़र आना भी बहुत है,
तू जो दिख जाये तो 'उसकी' रहमत है,
तेरे सीने में छुप जाने को जी चाहता है,
तुझे अंग लगाने को दिल करता है।


तेरे सुदृढ़ से बाहुपाश, 
घेरकर मुझको आसपास,
मुझे अपने में समा लेना तेरा,
तेरी धङकनों में समा जाना मेरा
और मेरी साँसों का,
एक जुगलबन्दी मानों धङकनों और श्वासों का,
एक अदृश्य धागे से बंधे थे हम,
जिसे चटकाकर,तोङ गये एक दिन तुम।


आज भी उसी दुनिया में रहती  हूँ,
तेरी साँसों को ही जीती हूँ,
धङकनों में बसी हैं धङकनें तुम्हारी,
तन-मन में महकती बस खुश्बू तुम्हारी
जो महका सी जाती है यादों को,
ज़रा बहका भी जाती मेरे दिल को,
हर पल तेरी यादों को है समर्पित,
खुद को तो तुझे कभी का कर दिया अर्पित।




 अब ये दिल मेरा मानता ही नही,
मेरी अब सुनना ये चाहता भी नही,
कब तक इसे मनाऊँगी, 
झूठे दिलासों से बहलाऊँगी,
मुझसे तो ये रूठकर है बैठा,
हर पल तेरा नाम है रटता, 
किसी दिन तुझे ढूढ़ने निकल ना जाये,
वापस फिर मेरे हाथ ना आये। 

  

मेरी नसों में बहते रुधिर 
की हर बूंद है अधिर, 
समाकर तेरा नाम अपने मे,  
जो गूंज उठती हर स्पन्दन में,
अब तो आँखें भी तेरी तस्वीर दिखाती है,
पलकें किसी तरह तुझे अपने में छुपाती हैं,
जो दुनिया ने देख सुन लिया नाम तेरा,तो होगी रुसवाई,
आजा अब तो साँसें तेरे लिए ही अटकी हैं,ओ हरजाई ।। 

©मधुमिता

Tuesday 16 August 2016

प्यार के निशान 




ये मखमली सा गुलाब का फूल,
नाज़ुक सा,अपने अंदर
मोती को छुपाये,
स्वर्णिम सी आभा लिये
इतराते हुये,
क्या इसे पता है कि इसका 
मखमल तुमसे ही है?
सारी नज़ाकत तुम्हारी,
गुलाबी से आवरण में 
तुम मेरे अंदर समाई हुई,
रेशमी,झीनी चादर 
में मेरे दिल को समेटे हुये,
अपने स्पन्दनों से
मेरे हृदय को रोज़ धङकाती तुम। 



ये हरे-हरे पत्ते,
चमचमाते, झिलमिलाते 
से,सूरज की किरणों तले,
क्या इन्हे पता है
कि तुम भी इनकी तरह,
हरी-भरी सी,चमकती सी,
मेरे दिल के अंदर नर्तन 
करती हो,गुनगुनाती हो?
लहलहाती हो हरे धान सी,
मेरे अंतर्मन में हरियाली करती,
खोजती मुझको,
मेरे ही छाती के अंदर,
अंदर तक अपनी जङें फैलाकर,
कोने-कोने,टटोलती तुम।


प्यार ही प्यार बिखरा है चारों ओर,
गाती हुई खामोशी पसरी है हर ओर,
बसंत ने अपने रंग बिखेर दिये हैं 
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिये,
तितलियाँ रंग लिये मंडरा रही हैं,
रंगने तुम्हारे हसीन सपने,
सपने जो अंतहीन हैं, 
बिल्कुल हमारे प्रेम की तरह,
अनंत और हर पल जीवंत, 
इस नीले आसमान 
और रंगीन ज़मीन 
पर हर तरफ है हमारा नाम,
हमारे प्यार से ढका हुआ है
ये धरती और आकाश ।


एक दूसरे की बाँहों में, 
प्रेम आलिंगन में बद्ध हम,
तुम्हारा चेहरा मेरे सीने मेें 
छुपा हुआ,
मेरी बाहें तुम्हे समेटे हुए,
इस रेतीली,सुनहरी सी 
धरती पर लेट ,
मौसमों का आना-जाना 
देखते,इंतज़ार करना,
हर पल,हर क्षण के
बदलने का, कब फूल खिलेंगे
या पत्ते झङेंगे शाखों और लताओं से,
सर्द सी अलसाई दुपहरी में 
पतझङ को खेल करते देखा करते हम और तुम।  


खामोश सा मंज़र,
खामोश खङे दरख़्त,
खामोशी से लिपटी लतायें,
खामोश समन्दर,
चरचराती, फरफराती लपटों 
के साथ लहलहाती लाल आग, 
चटकती लकड़ियाँ,उनमें से 
निकलता,गहरा खामोश धुआँ,
सर्र-सर्र सरकती हवा
टकरा जाती खिङकी के शीशों से, 
भरभराकर खामोशी को चीरती 
हुई बर्फीली आवाज़ ,
अपने प्यार की धुन में बेसुध
खामोश बैठे हम। 
  

हमें यहीं बने रहना है,
क्योंकि ये हवा,ये मौसम,
पतझङ और बसंत, 
सब हमें यहीं ढूढ़ेगे,
आवाज़ लगायेंगे हमें,
पुकारेंगे हमारा नाम लेकर,
यही हमारा पता है,
हर पत्ते,हर फूल पे लिखा है
नाम मेरा और तुम्हारा, 
ये ज़मीं,आसमां,
जङें,पेङ,हवा,
आग,धङकन,स्पन्दन,
सब साक्ष्य हैं 
मेरे ,तुम्हारे प्यार के।


यही हमारा नीङ है,
हर ओर लहरों की भीङ है,
हर पतझङ के पत्ते पर नाम हमारा है,
हर हवा के झोंके में स्वर हमारा है,
बसंत का राग हम ही हैं, 
सुर्ख़ गर्म आग भी हम हैं,    
मेरे सीने में घर बनाये हुए तुम,
मै तुम्हारे सीने की गरमाईश में गुम,
मखमली तुम्हारे हाथों को थामे
समय की राह पर चलते,
तुम्हारे संग गाते,गुनगुनाते,
फूल सी तुमको बाँहों में उठाकर,
हम दो,शांत आग को दिल में बसाते,
अजेय प्यार के निशान बनाते।।

©मधुमिता

Saturday 13 August 2016

उङान....



छोटी-छोटी हथेलियाँ, छोटी सी उँगलियाँ, बंद मुट्ठी, उसमें मेरी उँगली। गुलाबी सा छोटा सा बदन, बङी-बङी आँखें और तीखी सी नाक, पापा और दादी जैसी। ऐसे थे मेरे नन्हे -मुन्ने।बस एक के बाल थे लम्बे और काले और छोटे के सुनहरे और घुंघराले। बङा सनी और छोटा जोई।मेरे जिगर के टुकङे।

उनका रोना, सोना, उठना,खाना,पीना,मुस्कुराना सब एक चलचित्र की तरह आज आँखों के सामने से गुज़र गया।उनका पहला शब्द, पहला कदम, पहली बार गिरना, खूद अपने हाथों से खाना खाना,ज़िद करना कुछ भी तो नही भूली मैं।आज भी सब याद है। मानों वक्त अभी भी वहीं है और मै अपने बच्चों में मग्न।
उन दिनों पतिदेव काम में ज्यादा मसरूफ रहते थें । घर की,बाहर की, काम की, सासू माँ की और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी बस हमी पर।दो नटखट , बातूनी बच्चे जिनके पास दुनिया भर के तमाम सवाल होते और एक मै जो कभी हाँ-हूँ  कर और कभी पूरी तल्लीनता से जवाब देती हुई।ऐसे वक्त में फुल्लो ने मेरा बहुत साथ दिया । जी हाँ फुल्लो,घर के कामकाज में मेरा हाथ बंटाती, बच्चों का ध्यान रखती,उनकी सहेली, मेरे बच्चों की फुल्लो बुआ।बहुत ध्यान रखा उसने मेरे बच्चों का।खेलती,खाना खिलाती,बाल काढ़ती और बहुत कुछ ।

पूरा दिन काम के बाद थक जाती थी,पर इन बच्चों की बातें, नित नयी कारस्तानियाँ, हंसी सब थकान मिटा देती। पता ही नही चला कब एक-एक करके दोनों के स्कूल जाने की बारी आ गयी। होमवर्क, असाइनमेंट, खेलकूद, संगीत, नाटक इन सब चीजों के साथ जीवन कटने लगा। भागा दौङी थी, पर थी मज़ेदार। हर एक लम्हे,हर काम का लुत्फ उठाया मैने...फिर चाहे वो सुबह ज़बरदस्ती नींद से उठाना हो, काॅम्पिटीशन की तैयारियां हों या पी.टी.एम. में जाकर टीचर से शैतानी के किस्से सुनने।  

दोनों की अपनी अपनी खासियतें और खामियां थीं, उसके बावजूद पढ़ने में अच्छे, एक्स्ट्रा करिक्यूलर ऐक्टिविटी में भी बेहतर। सबसे बङी बात लोगों का दर्द समझने वाले। मैंने बहुत कम छोटे बच्चों को ऐसा करते पाया है।
दिन और रात पलक झपकाने के साथ ही मानों बीतने लगे। हम दोनों चाहते थे कि हमारे बच्चे खूब ऊँची ऊङान भरें। अच्छे इंसान बने। हम दोनों उनके पंख सशक्त करने में लग गये। मालूम ही ना पङा कब बच्चे किशोरावस्था को लांघकर जवानी की दहलीज़ पर खङे हो गये।

आज उनके पंख फङफङा रहे हैं । उङने को तैयार हैं ।ना जाने कब मेरा घोंसला छोङ ऊँची उङान भर लें ।आज दोनों अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गयें हैं । आजकी प्रतिस्पर्धा की होङ में वे भी जुट गए हैं ।मै रह गई हूँ अकेली. ...कभी उनके पलंग पर लेट कर उनको अपने आसपास महसूस करती हूँ, कुछ वैसे ही जैसे बचपन में मुझसे लिपट कर दोनों लेटते थें और कहानियाँ सुनते-सुनाते सो जाते थे। कभी उनके पुराने खिलौनों में उनका बचपन ढूढ़ती हूँ ,तो कभी उनके पुराने छोटे-छोटे कपङों में उन्हें तलाशती हूँ ।कहानियों की पुरानी किताबों में उनके हाथों से लिखे शब्दों में उनके नर्म   हाथों को महसूस करती हूँ ।

थक कर जब दोनों चूर हो जाते हैं तो,अपनी गोदी में छुपा लेने को दिल करता है ।दोनों अपनी मंजिलों को पा लेने की जब बातें करते हैं, तब माँ का दिल मेरा कहता है-"बच्चों ज़रा धीरे -धीरे चलो", पर मूक मुस्कान से उनके जज़्बे को निहारती रह जाती हूँ । 

विह्वल हैं दोनों अपनी उङान भरने को,दूर आसमानों में कहीं अपनी मंज़िल पाने को। रोकना चाहती हूँ, माँ हूँ....कैसे जी पाऊँगी इन्हें अपने आसपास फुदकते हुए, खिलखिलाते हुए देखे बगैर ।पर ये तो उनमुक्त पंछी हैं, इन्हें पंख भी हमने दिये, पंखों को सशक्त किये,उङना भी सिखाया। फिर आज मन क्यों अधीर है? यही तो जग की रीत है शायद ।
जाओ मेरे बच्चों, भरो अपनी उङान, करलो मंज़िल को फतह।।

©मधुमिता

Tuesday 9 August 2016

बरखा रानी


घिर-घिर आये मेघा लरज-लरज, 
घरङ-घरङ खूब गरज-गरज,
प्रेम की मानो करते अरज,
धरती से मिलने की है अद्भुत गरज।


रेशम सी धार चमकीली,
नाचती थिरकती अलबेली
सी,करती धरती से अठखेली, 
मानो बचपन की हमजोली ।


बूंदों के मोती,
हर पत्ते पर गिरती,
आगे पीछे हिलती डुलती,
फिर उनपर चिपक कर बैठी।


किया है स्नान आज फूलों ने,
खिल-खिल गयीं आज बूंदों से,
रेशम सी पंखुङी में
बंद कर कुछ मोती क्षण में ।


मीठी-मीठी बरखा की फ़ुहार, 
शीतल करती बूंदों की बौछार, 
पिऊ-पिऊ पपीहा करे पुकार, 
दूर गगन में गूंजे मेघ-मल्हार ।


प्यासी धरती की प्यास बुझाती, 
उसकी तङप मिटाती, 
नदियों में अमृत भर जाती,
निर्मलता चारों ओर फैलाती।


मुझको को भी नहला ये जाती,
हौले से बूंदें मुझे पुचकारती, 
बार-बार यूँ मुझे छेङ-छेङ जाती,
पिया मिलन की आस जगाती।


तन को दे जाती शीतलता,
पर सजन की याद में जिया है जलता,
पल-पल उसको याद है करता,
बादलों की गरज की तर्ज़ पर ये दिल है धङकता।


बरखा रानी क्यों बैरन तुम बन जाती?
मेरे दिल की जलन क्यों तुम ना मिटाती?
जब तुम धरती से मिलने आती 
क्यों मेरे पिया को भी ना साथ मे लाती?


फिर हम सब मिलकर मुस्काते,
मिलकर ही भीगते भीगाते, 
पानी की ठंडी धार ओढ़ते, 
बूंदों को हथेली में जोङते।


अबके जब तुम फिर से आओ,
घने,स्याह बादल भी लाओ,
सबकी जब तुम प्यास बुझाओ,
मेरी एक अरज सुनती जाओ,
मेरे प्रेम की पांति ले जाओ,
पिया को मेरे साथ लिवा लाओ।


नही तो अकेली मै तङपती रह जाऊँगी,
प्रेम-अग्नि में झुलस जाऊँगी, 
पिया-पिया करती रो पङूँगी,
बूंदों में तुम्हारी एक सार हो जाऊँगी।


मेरे अंत का लगेगा लांछन तुमपर,
चाहे तुम बरसो इधर उधर,
मेरी प्यास जो बुझाओ अगर,
तो मानूँ तुम्हे सहेली जीवनभर।। 
  

©मधुमिता

Monday 1 August 2016

हमारी मूरत




ये अथाह सागर जानता था हमारा प्यार,
जानती थी ये भीगी सी, मख़मली बयार,
रेत, सीप और मोती,
लहरें, झाग,मछलियाँ बङी-छोटी, 
पत्थर,कंकङ और खड्डे,
पानी भरे वो मचलते गड्ढे,
सबको हमारा नाम पता था,
इश्क करना था अपना काम पता था।


इन्हीं फूलों, इन्हीं पत्तों के बीच कहीं 
अंकित है हमारा पहला चुम्बन अभी भी,
अनंत पवित्रता का प्रतीक,
बिल्कुल वैसे ही,ठीक
जैसे भौंरे की छुवन से 
कली फूल बनती जैसे,
वैसे ही दो लब हमारे,
जुङते प्यार के फूल खिलाने।


ऐसा फूल जो है चिरकालिक, 
प्यार सिर्फ जिसका मालिक,
हमारा प्यार मीठे झरने की तरह,
फूट रहा था हर जगह,
पत्तों की हरियाली में,
फूलों के जीवंत रंगों में, 
लहरों की शिखाओं में,
स्वर्णिम रेत की चमकार में।


हर दिन कई नये फूल खिलते,
साथ हमारे अधर जुङते,
एक दूसरे से लिपटे हम,
समय वहीं गया था थम,
हवाओं में बिखरी थी तुम्हारी खुशबू,
मेरी बाँहों में तुम,मेरी आबरू,
हर क्षण हमारा नाम गूंजता,
हाँ वहीं हमारा दिल था बसता।    


हमारे प्यार का बसंत,
रंगीन,जीवंत, अनंत,
दो धङकते दिल,
जो गये थे मिल, 
घूल गये थे हम एक दूजे में ,
लहू भी दौङ रहा था एक दूजे की धमनियों में,
मेरे सीने में सिमटा तुम्हारा चेहरा,
मेरे चेहरे पर तुम्हारे रेशमी,उङते बालों का सेहरा।


गर्मी,सरदी,बसंत,बहार,
ठंडी-ठंडी बारिश की फ़ुहार,
हर एक खुश था हमारे मिलन पर,
पंछी,तरु, प्राणी हर,
हर पत्ता, हर फूल इतरा रहा था,
प्रेम हमारे साक्ष्य जो भी बन रहा था,
एक दूसरे के प्यार में चूर,
हम दोनों के चर्चे थे मशहूर ।


मशहूर थे हम वीरानों में,
ऊँचे आसमानी उङानों में,
फूलों और पत्तियों में,
डालियों और जङों में,
हर जगह थी हमारी छाप,
लेती थी लहरों की थाप
नाम हमारा दिन और रात,
हवा भी करती बस हमारी ही बात ।    


एक दूसरे की बाँहों में सिमटे,
दो बदन आलिंगन में लिपटे, 
हृदय की धङकन का गीत,
रुमानी सा, गुलाबी संगीत, 
आसमान की चादर तले,
तारों की झालर तले,
एक हुये हम दोनों धीरे-धीरे,
चुपके से यूँ ही सागर के तीरे।


ऐसे ही तुम मुझमें सिमटी रहो,
मुझसे आलिंगनबद्ध रहो,
मेरी पलकें तुम्हारे गेसू संवारती,
लब मेरे करते प्रेम आरती,
सब कुछ प्रेम मय हो जाता,
समय का पहिया भी थम जाता,
तुम मुझे देखती,मै देखता तुम्हारी सूरत,
ऐसे ही काश बनी रहती,अजर,अमर हमारी मूरत।।

©मधुमिता