Thursday 30 June 2016

जाने दो



छोङो ना सब,
जाने दो अब।

क्यों हो परेशान?
मत हो यूँ हैरान,
हर उस चीज़ को उङ जाने दो,
नज़दीक उनको मत आने दो,
जो तुमको हिला जाती हैं 
सिर से पाँव तक सिहरा जाती हैं।

ये यादें  और तस्वीरें,
नही बदलेंगी ये तकदीरें,  
ये तो बस गंदगी और कूङा है, 
तुम्हारे रास्ते का रोङा है,
इन सबको तुम बाहर फेंको,
दूर करो,इनको मत रोको।

फेंको इन्हे खिङकी से बाहर 
और लगा लो मन के दरवाज़े का किवाङ,
दिल में नही रखो कोई शक,
इनका नही तुमपर अब हक,
ज़िन्दगी का तुम्हारे ये अब हिस्सा नही
नही बना सकते नया किस्सा कोई।

अब तो ये बन गये इतिहास,
नही इनसे लगाओ आस,
इन यादों की चित्रों को फाङ दो,
कतर कतर,उन कतरनों को जला डालो,
कर आओ इनकी विदाई,
छोङ दो जो प्रीत थी इनसे लगाई।

इन आँसूओं की धाराओं को
इन यादों के दागों को धो लेने दो,
नव शक्ति और नये नज़र का पैमाना 
जो है तुमने अब पाया ,
इनसे तुम पाओगे सीख कई,     
नई राहें और मंज़िलें नई।

ये यादें नही,बस थे हल्के से तूफान,
इनसे लङ सकता हर  इंसान,
ये गुज़र चुके हैं,नही कर सकते अब कोई हरकत,
ना ये बदल सकते अब किसी कीमत पर,तुम्हारी किस्मत,
तो अच्छा यही कि इन्हे चले जाने दो,
फिर,फिर इन्हे ना अपने पास आने दो।

जाने दो अब,
छोङो ना सब।।

-मधुमिता

Wednesday 29 June 2016

परी


मिट्टी से गढ़ी है, 
नन्ही सी परी है, 
ना माँ की दुलारी,
ना बाबा की प्यारी,
ये सङकें ही घर है इसका ,
यहीं सारा जग है जिसका ।

ना गुङिया,मोटर गाङी, 
ना बर्तन,कप-प्लेट,ना रेलगाङी,  
कोई खिलौना नही खेलने को,
नही कोई झूला झूलने को,
बस है भूख और गरीबी,
कोई और नही,बस यही दोनों इसके करीबी।

ऊपर खुला आसमान, 
नीचे गर्मी और थकान, 
कभी सर्दी की रातों की ठिठुरन,
कभी बरसात में बचता,बचाता भीगता बदन,
सूरज,चंदा इसके साथ ही चलते,
आजू-बाजू,बस,साईकिल और गाङियाँ भगते।

माँ -बाबा सब खो जाते हैं,
अपने कामों में रम जाते हैं,
रह जाती है बस यही अकेली,
ना कोई दोस्त,ना सहेली,
मिट्टी ही है इसका खिलौना, 
मिट्टी ही इसका बिछौना । 

अपनी नन्हीं मुट्ठियों में भर मिट्टी, 
कभी बिखेरती, कभी समेटती, 
कभी उसी से मानों किस्मत की लकीरें बनाती, 
फिर नन्ही उंगलियों से उन्हें मिटाती, 
देखो तो विधाता का खेल, 
नन्ही परी से करवाया मिट्टी का मेल ।

रूखे-सूखे से हैं उसके बाल, 
आज़ाद सी उसकी चाल, 
चेहरे पर छोटी सी नाक 
और मासूमियत से भरे हुए दो आँख, 
सूरज से तपा बदन, 
कुदरत का एक अनमोल रतन ।

तप-तपकर भई सोना, 
सोना तपकर भई कोयला,
जब परी बङी हो जायेगी,
क्या तब भी यहीं रह जायेगी!
या तपकर हीरा बन जायेगी, 
अपनी ही धार से कट कर,मिट्टी में ही रम जायेगी।

या अपने माँ-बाबा जैसे हो जायेगी,
अपनी ही जैसी इस सङक पर,एक दूसरी परी ले आयेगी,
इन्हीं सङकों पर यूँ ही चलती रहेगी
और एक दिन कहीं खो जायेगी ,
बन जायेगी वही मिट्टी, 
या पाऊँगी उसे,दो पंख फैलाकर,नभ में उङती,फिरती।

क्या कोई इस परी को बेटी बनायेगा! 
कोई इसको अपनायेगा ! 
इसकी मासूमियत को संभाल कर,
देकर इसको अपना एक घर,
मिट्टी से गढ़ी इस परी को दे पंख सुंदर,
ताकि उङती फिरे वो, नये आसमानों को छूकर ।।

-मधुमिता 

Monday 27 June 2016


ओ बेरहम


आँखें आँसूओं से भरीं,
होंठों पर जम गयी है पपङी,
कोई लट इधर है,तो कोई उधर,
बिखरी,बिखरी, जटायें सी, 
बालों में ना तेल,ना कंघी,
ना माथे पर बिंदी ,
ना गालों पर लाली
ना आँखों में काजल की धार,
ना चूङी की खनक,
खो गयी पायल की झंकार ।

नही इत्र की महक है आसपास,
नही कोई रंग जीवन में, 
पर अभी भी तुम्हारी खुशबू है
रची-बसी मेरे रोम-रोम में, 
पागल सी मैं जिये जा रही,
इस खूशबू की आस में,
बंजर सी इस रेती में,
मृगतृष्णा सी प्यास लिये,
एक-एक दिन गिनती जाती हूँ,
साँसों का बोझा साथ लिये । 

तुम्हारी यादों को अब तलक 
जी रही हूँ, शायद कल भी
यूँ ही जीती जाऊँगी, मर मर कर,
तुम्हारे इंतज़ार में, 
कभी ना खत्म होने वाली,
टकटकी लगाकर देखती रहती हूँ,
सामने से गुज़रती सङक और गली
को,हर साये से तुम्हारे आने का अहसास
होता है,और उसके गुज़र जाते ही,
हाथ आ जाता है  नाउम्मीदी का साथ ।

मुझे याद है जब मिले थे तुम आखिरी बार,
करने अपने शब्दों के वार,
कहा था तुमने कि अब नही चल पायेंगे साथ,
बहुत रोई थी मैं,दिया था वास्ता
अपनी रंगी सी,खुशनुमा दुनिया का,
जो दोनों ने मिलकर बसाई थी,
अपने सपनों के सतरंगी गोटों से सजाई थी,
पर तुमने मेरी एक ना मानी,
रोता बिलखता देखकर भी तुम 
ना पसीजे, ना रुकने की ठानी।

कैसे बेरहम निकले तुम,
पहले तो हर ज़ख़्म पर
मरहम लगाते थे,
मीठे-मीठे बोलों से अपनी
मन को कैसे लुभाते थे,
क्यों हो गये इतने निष्ठुर,
मारकर मुझको ठोकर,
मेरी यादों से भी लिया मुँह मोङ,
मुझको बर्बाद करते हुये, 
क्यों तुम्हारी रूह ना कांपी!

कोई एक आँसूं भी मेरा
तुमको पिघला ना पाया,
कोई भी अदा मेरी 
तुम्हे मोह जाल में बांध ना पायी,
मेरे जहाँ को छोङकर,
मेरी दुनिया को बेरहमी से तोङकर,
मेरी  बर्बादी पर तुम यूँ 
मुस्कुराकर  चल  दिए,
जैसे कि हमारी अपनी दुनिया  
कभी, कहीं बसी  ही ना  थी ।।

-मधुमिता

Friday 24 June 2016

बेटी की अभिलाषा 



आज भी मै बेटी हूँ तुम्हारी, 
बन पाई पर ना तुम्हारी दुलारी,
हरदम तुम लोगों ने जाना पराई,
कर दी जल्दी मेरी विदाई।

जैसे थी तुम सब पर बोझ, 
मुझे भेजने का इंतज़ार था रोज़,
मुझे नही था जाना और कहीं,
रहना था तुम्हारे ही साथ यहीं।

पर मेरी किसी ने एक ना मानी,
कर ली तुम सबने अपनी मनमानी,
भेज दिया मुझे देस पराया,
क्या सच में तुमने ही था मुझको जाया?

जा पहुँची मैं अनजाने घर,
लेकर एक छुपा हुआ डर,
कौन मुझे अपनायेगा,जब तुमने ना अपनाया,
यहाँ तो कोई नही पहचान का,हर कोई यहाँ पराया।

यहाँ थी बस ज़िम्मेदारी, 
चुप रहने की लाचारी, 
हर कुछ सुनना,सहना था,
बाबुल तेरी इज्ज़त को संभाल कर रखना था।

क्यों तुमने मुझे नही पढ़ाया,  
पराये घर है जाना,हरदम यही बताया,
क्यों मुझे आज़ादी नही थी सपने देखने की,
ना ही दूर गगन में उङने की ।

सफाई,कपङे,चौका,बरतन,
इन्हीं में बीत गया बचपन,
यहाँ नही,वहाँ नही,ऐसे नही,वैसे नही,
बस इन्हीं में बंधकर रह गयी।

प्रश्न करने की मुझे मनाही थी,
उत्तर ढूढ़ती ही मै रह जाती,
कुछ पूछती तो,टरका दी जाती,
आवाज़ मेरी क्यों दबा दी जाती!

आज भी मैं पूछूँ ख़ुद से,
क्यों सिर्फ बेटा ही ना मांगा तुमने रब से?
बेटा तुम्हारे सिर का ताज,
वो ही क्यों तुम्हारा कल और आज ?

बेटा कुलदीपक कहलाये,
वही तुम्हारा वंश चलाये,  
है उसको सारे अधिकार,
उसी से है तुम्हारा परिवार।

मुझे क्यों नही मिला तुम्हारा नाम,
मैं भी क्यों नही चलाऊँ तुम्हारा वंश और काम,
मैं भी क्यों ना पढ़ूँ और खेलूँ,   
दूर,ऊँचे सितारों को छू लूँ ।

इस बार तो तुमने करली अपनी,
अगली बारी मैं ना सुनूँगी सबकी,
हाँ,अगले जन्म मै फिर घर आऊँगी,
फिर से तुम्हारी बेटी बन जाऊँगी ।

हर प्रश्न का जवाब माँगूंगी तुमसे,
साथ रहूँगी सदा तुम्हारे ज़िद और हठ से,
प्रेम प्यार, मै सब तुमसे लूँगी ,
हक और अधिकार अपने,सारे लेकर रहूँगी।

खूब पढ़ूगी, खूब खेलूँगी,  
इस जग में, बङे काम करूँगी,
नाम तुम्हारा रोशन होगा,
सिर तुम्हारा गर्व से ऊँचा रहेगा।

तब तुमको मुझे पूरी तरह अपनाना होगा,
बेटे और बेटी का भेद तुम्हें मिटाना पङेगा, 
दोनों को एक से जीवन का देना वरदान, 
मुझे भी अपने दिल का टुकङा मान,बनाना अपनी जान। 

तब चटर पटर मैं खूब बतियाऊँगी, 
इस बार की सारी कसर पूरी करूँगी,
कभी माँ के आँचल तले छिप जाऊँगी,
कभी बाबा की गोदी में बैठ लाङ करूँगी।

तब तुम मुझसे,मेरी इच्छाओं कहाँ बचकर जाओगे,   
सुन लो, इस दुनिया की ना तब सुन पाओगे,
बेटा और बेटी,दोनों का साथ रहेगा,तुम्हारे साथ, 
मै भी पाऊँगी तुम्हारा सारा प्यार,सिर पर तुम्हारे आशीष का हाथ।।

-मधुमिता

Thursday 23 June 2016

नश्वरता


आज चाँद जब कर रहा था अठखेलियाँ,
विचर रहा था मेरे आसपास की गलियाँ,  
मैं भी आँखें मींचे, कर रही थी ठिठोली,
दोनों इक दूजे संग खेल रहे थे आँखमिचौली।

मैं परदे के पीछे से रहती ताकती,
छुपकर धीरे से झाँकती,
अलसाया सा वो धीमे से बढ़ता आगे को,
बदमाश देखो,ढूढ़ रहा मुझको।

कभी वो छुप जाता बादलों के पीछे,
तो कभी मैं अलगनी के नीचे,
निकल आता कभी वो अचानक, 
होती ढप्पे की उसकी,हल्की सी धमक।

कभी करता सितारों से गपशप,
मैं तब उसे निहार रही थी,गुपचुप, 
कभी करता वो उनसे ठिठोली, 
बचपन की उसकी,ज्यों हो सहेली ।

जैसे ही मैं सामने निकल आती,
उसको मेरा मज़ाक उङाते पाती,
हँस हँस कर मेरी खिल्ली उङाता, 
बेईमान देखो,मुझे कैसे हराता।

उसे मैं पकङना चाहूँ, 
दिल करे,उसे अपने अंगना ले आऊँ,
बोल बोल कर उसे थका दूँ,
फिर आखिर मैं उसे हराऊँ।

पर वो नही आता किसी फेर में,
ऊपर, और ऊपर हो जाते,ज़रा सी देर में,
मैंने फिर एक जुगत लगाई,
परात भर पानी ले आई।

परात के जल भर में उसको लिया खींच,
अब रखूँगी उसको अपनी आँखों में भींच,
खूब करूँगी उसके आगे पीछे भागा दौङी, 
बनूँगी अब मैं भी उसकी हमजोली ।

पर वो धीमे धीमे खिसकता गया,
पहले परात से बाहर आया,
फिर खोया उसको आंगन से
एक कोने से दूजे कोने को चल दिया वो आसमान में।

मैं कोने में खङी उसे जाते देखती रही,
रुआँसी सी हाथ मलती रही,
मुझे वाकई में देखो वो हराकर चला गया,
अपने स्थायित्व में भी नश्वरता मुझे दिखा दिया।

मैं मूर्ख उसे चली थी कैद करने,
जो चलता चलेगा,कभी ना थमने,
स्थाई होकर भी पाठ पढ़ा गया जीवन का,
सब कुछ स्वपन है,हकीक़त बस नश्वरता।।

-मधुमिता 

Sunday 19 June 2016

ख़त



यादों की गलियाँ सजी हैं,
कुछ झालरें,पुराने दिनों की लगीं हैं,
कुछ रंगी से दिन हैं बिछे,
कुछ रेशमी रातों के पीछे।

मेरी खिङकी के नीचे तेरा खङे रहना ,
चुपके से आकर,मेरी आँखें,अपनी हथेली से मीचना,
बेसब्री से तेरा करना,मेरा इंतज़ार, 
क्यों याद आ जाता है बारबार ।

मुस्कुराकर मुझे फूलों का गुच्छा थमाना,
झिझकते हुये, घबराते हुये,मेरा कबूल करना,
ना-ना करते भी,मुहब्बत को अपनाना
और उसकी गिरफ़्त में बिल्कुल खो जाना।

छुट्टियों में हर दिन,दूजे को ख़त लिखना,
जुदा होकर भी,तुझे करीब महसूस करना,
जुदाई के बाद,एक एक ख़त को पढ़ना, 
दिल ही दिल में दूसरे की तङप को समझना।

एक एक ख़त को संभाल कर रखा है मैंने,
संजो रखी है हर वो खुशी जो दी है तूने, 
हर हर्फ जो लिखे तूने, एक एक मोती है,
हर खुशी एक गहना,जो तुझ संग बटोरी हैं।

आज ना वो तू ही है,ना ही वह खुशियाँ रहीं,
हर चीज़ है आज,मानों बदली बदली,
रह गयीं हैं बस यादें अब
मेरे पास और वो तेरे ख़त सब।

हर एक ख़त तेरी मौजूदगी का कराती है अहसास,
हर एक लफ्ज़,आज भी मंडराता मेरे आसपास,
ज़िन्दा हूँ मैं क्योंकि ये ख़त हैं,
यही आज तेरी-मेरी हक़ीकत हैं ।  

किताबों के पन्नों के बीच,
अब भी रही हूँ यादों को सींच,
तेरे ख़तों की मटमैली सलवटों पर,
अपने इश्क के वर्क चढ़ाकर,उन्हें दिल से संवारकर।

-मधुमिता

Friday 17 June 2016

गर्मी की छुट्टी 


गर्मी बढ़तीं जाती है,
सूरज की किरणें,चढ़ती जातीं हैं,
आम के पेड़ की छायाँ आँगन में, 
हर शाम कोलाहल प्रांगण में ।

होम वर्क को नहीं करता मन, 
दिल मांगे रसना हर पल,   
फिर पड़ी मम्मी की डाँट ,
और दोस्तों  के साथ  खानी चाट  l

आम ,रस, कोल्ड कॉफ़ी की फ़रियाद ,
चलो भागो,नानी के घर की आई याद,  
जहाँ रानी  है  मम्मी की माँ,
ठंडी ठंडी प्यार की छाँ।

पढ़ाई ,टीचर का ना कोई डर, 
खत्म हुई बस  सारी  फिकर, 
मस्ती का अब  माहौल  सुहाना, 
दोस्तों  संग  खेलना  खिलाना ।

गर्मी का  अब  है नो  डर, 
अब तो  बस  नानी  का घर,
फुल ओन  मस्ती,  फुल ओन  फन,
गर्मी  की हुई  छुट्टी,भई टन  टन टन।।

-मधुमिता 

मेरे नन्हे दोस्तों के लिए सप्रेम 

Thursday 16 June 2016

तेरे इंतज़ार में 



तबियत कुछ नासाज़ है,
दिल ज़रा उदास है,
तेरे ना होने से इधर,
मैं हूँ बेसुध सी,बेखबर।

माथे की बिंदी ना दमके,
चमचम चमचम क्यों ना चमके!
क्यों फीकी सी पङी है इस कदर,
सूर्ख़,फिर भी बेरंग मगर।

खिलखिलाती ना चूङियों की खनक,
टीस उठाती सी मानो इक कसक, 
बोल उठती है खनखनाकर, 
तू किधर,तू किधर।

पायल की मीठी झंकार
भी बजने से करती इंकार,
फिरती थी दिन रात जो छनछनाकर, 
अब बैठी है मुझसे रूठकर।

कानों की बाली,
मस्त सी मतवाली,
अब ना झूमती इतराकर,
बस देखे मुझको टुकुर टुकुर।

सोने का मेरे गले का हार,
निष्तेज़ पङा करे चित्कार,
बार बार तुझे ढूढ़कर,  
चुप है देख थक हार कर।

नज़ाकत से भरी मेरी चाल,
अब हो रही है बदहाल,
ले चलती है यूँ घसीटकर,
तेरी आवाज़ की लय पर।

तेरी आहट के बिना,
सब कुछ सूना,
अब तो आजा,ना रह और मुँह मोङकर, 
तेरे दरस की प्यासी,यूँ ही चली ना जाऊँ,सब कुछ छोङकर।। 

-मधुमिता

Monday 13 June 2016

किस्मत की पहेलियाँ 


खुली हुई हथेलियाँ,मानो,
किस्मत  की  पहेलियाँ l

लकीरों  का  ताना  बाना,
ना  जाना,  ना  पहचाना, 
जुडी  हुई, ना  जाने  क्यूँ !
कैसे मेरे  नसीब  से  यूँ ,
मकड़जाल  सी  ये रेखाएं ,
ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ, 
मानों मेरी किस्मत को नचाती,
कठपुतली की भांति,
कहीं कटी राह,तो कहीं बाधा है,
कुछ भी ना पूरा,सब आधा है,
इन लकीरों में गुंथी हैं मेरी चाहते,
कुछ ख्वाहिशें और कुछ हसरतें,
एक आङी-टेढ़ी तस्वीर बनाती है,
जो रह रह मुझे डराती है,
मेरे सपनों को परे ठेलती, 
खुशियों को पीछे धकेलती,
जाले में फंसी इक प्राण सी,
ज़िदा,तङपती,निष्प्राण सी,
निकलने की कैसे कोशिश करूँ,
किस ओर चलूँ,किस ओर दौङूँ,
इनमें मैं फंसती जा रही,
इन्हीं में उलझती ही जा रही,
कोई तो बताये उपाय निकलने का,
इनके मनसूबों से बचने का,
देखो कहाँ-कहाँ ये ले  जा रहीं,
अपनी ही मरज़ी करे जा रहीं 
ना जाने,किस  ओर, आहिस्ते से,
अनजाने से रास्ते से,
चुपके-चुपके,ये लकीरें,
बिना  बताये , धीरे  धीरे।

खुली हुई ये मेरी हथेलियाँ,मानो,
किस्मत  की अनसुलझी पहेलियाँ ।।

-मधुमिता 

Thursday 9 June 2016

तू कहीं है यहीं


कुछ  अनकहे  अलफ़ाज़ ,
कुछ बुदबुदाते  से अहसास,
तेज़  होती  साँसे,
मनचली सी ख्वाहिशें
और धडकनों  का  साज़ ,
जो देती हर पल आवाज़,
यूँ  दिल  ने  कहा ,
तू  कहीं है यहीं ,
यहीं कहीं,
मेरे  आस  पास !

हवाओं का मचलना,
किरणों का रंग बदलना,
गुलाबी से गाल,
बयां करते दिल का हाल,
ऐसे में कोयल की कूक,
उठा जाती दिल में एक हूक,
फिर दिल ने कहा,
तू कहीं है यहीं,
यहीं कहीं,
मेरे आस पास!

फूलों का हल्के से मुस्कुराना,
तितलियों का यूँ ही पंख फङफङाना,
मतवारी सी बयार का मुझे छेङ जाना,
चिङियों की जोङी का कोटर में छिप जाना,
कुछ तो बयां कर जाता है,
तेरे आने के निशां दे जाते हैं,
और दिल ने कहा,
तू कहीं है यहीं,
यहीं कहीं,
मेरे आस पास!

आसमां पे बिखरी आभा सिंदूरी,
समां पर छाया मानों,नशा अंगूरी,
अंगारों सी धधकती,
बिजली सी चमकती,
मेरे प्यार भरे अहसास,
सरपट सी भागती हर साँस,
जो दिल ने कहा,
तू कहीं है यहीं,
यहीं कहीं,
मेरे आस पास!

अब ना छिपो,आ जाओ सामने,
मेरे दिल को सम्भालने,
मेरे हाथों को थामने,
मुझे गले से लगाने,
तुझमें सिमटना चाहती हूँ,
अब भी देख तुझे ढूढ़ती हूँ,
जब दिल ने कहा,
तू कहीं है यहीं,
यहीं कहीं,
मेरे आस पास!!

-मधुमिता



परायी



हाँ हूँ मै पराई

लो कह दिया मैंने

खुद को ही पराई....



सबने जी दुखाया,

कहके मुझे पराया,

बाबा की बेटी बन,

बनके भाई की बहन,

निभाए मन से सारे बंधन,

फिर भी मुट्ठी भर अन्न

पीछे फेंक माँ के आँगन,

चुकाने पड़े  सारे क़र्ज़,

निभाए सारे जितने थे फ़र्ज़,

कर दी मेरी विदाई,

कह कह कर मुझे पराई......



आई पिया के देस,

बदला ठौर, बदला भेस,

तन मन सब वारा,

अपनाये नए  संस्कार,

परिवार और परंपरा,

निभाये सदा

ही मान-मर्यादा, 

बनी बहू,भाभी,बीवी,

फिर भी कहलाई बेटी पराई,परजाई,

पराये घर से आई,

बनी  मै यहाँ भी पराई.....



कैसा बेदर्द  है ये नसीब,

रिश्ते सारे लगते अजीब,

किया खुद को समर्पण,

माँगा तो सिर्फ अपनापन,

हर रिश्ते को प्यार से संजोया,

हर मोती को प्रेम माला में पिरोया,

हाय रे ये किस्मत का तिरस्कार,

बन के रह गयी नातेदार,

हूँ सक्षम, स्वावलंबी और सम्मानित,

पर जन्मों  से श्रापित,

कोई तो सुझाये कोई युक्ति,

जो दे जाए मुक्ति

परायेपन के बोध से,

मै भी जाऊं अपनाई

और कभी ना कहलाऊं परायी,

परायी,पराई,पराई !!!

 -मधुमिता

Monday 6 June 2016

हसरतें हैं, चाहते हैं और हैं ख्वाहिशें




हसरतें हैं, चाहते हैं और हैं ख्वाहिशें
ज़िन्दगी के रंग बिरंगे बुलबुले
खुशनुमा है,खुशफहम है,फिर भी है गर्दिशें,
दोस्ती है, है मुहब्बत, साथ फिर भी रंजिशें,
खौफ है,और मौत है और हैं यूरिशें,
फिर भी है मुक्कम्मल हौसले, है तुझ पे नाज़िश,
तू हसीं हैं,ख़ूबसूरत, तू माह -वाश,
बे साख्ता ,बे अंदाज़ा,पाकीज़ा ।

मदमस्त है, सुकून है,है हर दिन नए परवान
ये वक़्त बेशकीमती,हर गोशा गिरां
इक कशिश है,इक करम है हरसू  करीम,
हर तस्वीर को तेरी हमकरते तस्लीम,
ना कशाकश,है बस इक कशिश,
खुबसूरत सी कोई कहानी परीवश,
ज़िन्दगी तू इक आदत है, नशा है,
जादू,जाज़िब,जज़्बाए जुनूं है ।

है जज़्ब सब तेरे चश्मो चमन में,
ऐ कमबख्त छुपा ले हमे भी दामन में,
मग़रूर,कमज़र्फ दुनिया बेहोश है, 
हर पल को जी लेने में हम मदहोश है,
तेरे साए में,तेरी बज़्म में
सन्नाटे भी सुनाते मीठी सी नज़्म हैं,
तेरे दामन को थामने की ज़ारी हैं कोशिशें,
हसरतें हैं, चाहते हैं और हैं ख्वाहिशें!!!

-मधुमिता 

Saturday 4 June 2016

भाई


बहुत थी मैं उसदिन रोई,

अजीब पीङा में जब,माँ गयी,

पर देखो तो, माँ  आई, माँ  आई, 

साथ  में  अपने,भाई  को भी लाई  l


थकी  हुई सी  माँ ,साथ  नन्हा सा  खिलौना 

माँ  लेटी  तो  साथ बिछ  गया,उसका भी  बिछौना, 

नहीं पसंद  था, अपने  साम्राज्य में ये अनजाना  अधिकार, 

कहीं  हुआ था  कोमल मन पे हल्का सा प्रहार l


फिर  धीरे-धीरे  खींचने  लगा  उसकी  ओर  मेरा  मन, 

हर बात  अद्भुत  लगी, उसकी  हंसी,उसका रुदन, 

कुछ  ऐसे  ही , खेल  खेल में बीतने लगा यूँ  बचपन

बाँध  रहा  था  हम  दोनों  को ,प्रेम-प्यार के रिश्ते का  बंधन l


माँ  के  नाभ  के बंधन  को  छोड़  आये  हैं ,

राखी  के  धागे  से  एक  दूसरे  की  नियति  जोड़ आये हैं; 

कभी  वो प्रहरी , तो  मै  बनी  पहरेदार 

कभी  मैंने उसको  थामा ,उठाये उसने मेरे नाज़-नखरों के भार l


एक  दूसरे  के  पूरक , एक  दूसरे   की  ढाल, 

माँ -पापा  की  ज़िन्दगी  के  मौसिकी  और  ताल ,

किस्मत से  मिलता  है  ऐसे  भाई  बहन  का  साथ, 

तुम्हे  थामने  को रहेंगे  सदा  तत्पर  ये  हाथ l


मायके का  अंश  हो तुम , 

मेरे  लिए मेरा  वंश  हो तुम,  

दोनों  मिल  उन  संस्कारों  को  आगे  बढ़ाएंगे ,

राखी  का  ये  पवित्र  वादा  हमेशा  यूँ  ही  निभायेंगे ll

-मधुमिता 

Friday 3 June 2016

चाहती हूँ मैं 


दौङना चाहती हूँ मैं, 
क्या मुझे वो राहें दोगे?

दुनिया को देखना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे वो नज़रें दोगे?

अपने दिन और रातों को रंगना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे वो रंग दोगे?

खिलखिलाकर हंसना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे वो खुशियाँ दोगे?

आसमान को छूना चाहती हूँ मैं ,
क्या मुझे वो पंख दोगे?

पढ़ना और लिखना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे ज्ञान का वो वरदान दोगे?

अपना नसीब को खूद लिखना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे वो कलम दे दोगे?

अपने मन की करना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे वो ख्वाहिशें पूरी करने दोगे?

सपने भी देखना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे वो सपने देखने दोगे?

अपने लिए कुछ करना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे कुछ करने दोगे?

हर किरदार से परे,ख़ुद बनना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे 'मै' बनने दोगे?

खूबसूरत सी इस ज़िन्दगी को जीना चाहती हूँ मैं,
क्या मुझे वो सांसें दोगे?

अपने तन और मन की आज़ादी चाहती हूँ मैं,
क्या मझे इन बंधनों से कभी मुक्त कर दोगे?

अपने जवाब खुद ढूढ़ना चाहती हूँ मैं, 
बताओ,कब मुझे इन प्रश्नों को पूछने से छुटकारा दोगे?

-मधुमिता 

Wednesday 1 June 2016

बारिश की बूंदें 


जलती हुई सूरज की किरणों के बीच,
तपती हुई हर चीज़, 
जल, थल, खेत, मकान, 
गरमी से बोझिल हर जान।

ऐसे में मेघों की गङगङाहट, 
ऊपर नीचे होते चातकों की फरफराहट, 
बूंदों की चाह में ऊपर ताकता हर प्राणी,
तभी अचानक चेहरे पर पङता, बारिश का पानी ।

लहराती सी,बरसती हुई,बूंदें ठंडी-ठंडी,
गर्म धरती के हृदय से उठती,महक सोंधी-सोंधी,
कभी तेज, कभी धीरे से, नाचती हुईं बौछारें,
तन-मन को ठंडक पहुँचाती,ठंडी सी फुहारें।

नाच उठे हैं देखो तो पंख फैलाकर कैसे सारे मोर,
पिऊं,पिऊं  की आवाज़ लगाते,देख घटा घनघोर,
बच्चों की टोली भी भीगे,पानी में छपछप करते पाँव,
तो कहीं पर लगे हुए हैं, दूर तैराते,अपनी कागज़ की नाव।

   
सब कुछ है,हर कहीं धुला धुला,
हरे भरे से तरु दल,आसमां नीला
सा,मुस्काते से फूल और कलियाँ,
साफ सुथरी सी सङकें,गालियाँ ।

प्रेमी यूगलों के,दिल हो उठे रुमानी,
पेङों के नीचे रुकते,कपङों से निचोङते पानी,
मस्ती भरे बारिश की बूंदों के बीच मिल,
करीब आते दो तेज़ी से धङकते दिल।

मज़ा बहुत है बेमौसम की बरसात में,
चाय पकौङे और हर भीगी भीगी बात में,
भागते,भीगते,बूंदों को पकङने की होङ में,
नीचे गिरते,छलछलाते फुहारों की शोर में ।

मनमोर को करता मदमस्त,ये बूंदों का खेल,
पानी की डोरियों से करवाता,ज़मीन आसमां का मेल,
प्यासी सी धरती की प्यास बुझाते ये नन्हीं सी बूंदें,
मैं भी देखो महसूस कर रही इन फुहारों को,बैठी,आँखें मूंदे।।

-  मधुमिता