सर्दी
द्रुत गति से किरणें फिसल गयीं
दिन के आँचल तले,
चमकती, थिरकती
धीमे से सिमट गयीं
कोहरे के चादर तले,
कोहरा जो गुनगुनाते हुये
छू आया था वृक्षों के शिखर
और एक लम्बी रात बन
तन गया है आसमां पर,
सन्नाटे से भरी रात,
ख़ामोशी बोल रही है
मद्धम सुर में,
अनदेखा अनचाहा सा अहसास
सर्द हो चला है,
बर्फ़ सा जम रहा है,
सर्दी की ठिठुरन
रेंग रही है खूँ में अब,
घुल रही है हवाओं में
उस धुँये संग
जो जलते पुआल से आई है,
देखो तो ख़ानाबदोशों ने कैसे
शीत को आग दिखाई है,
कहीँ कोई पिल्ला रोया,
शायद ढूंढ़ रहा है
माँ के गरम तन को,
कीट पतंगे जड़ जम गये
दुबके कहीं अमराई में,
श्वास भी अब पिघल रही है
ठंडे खिड़की किवाड़ों में,
देख कुदरत का कहर
इस धुंधली रात के हर पहर,
चाँदनी भी ज़ार ज़ार रो आई
और बूँद ओस की बनकर
सर्द होते पत्ते से वो
देखो कैसे लिपट गयी ।
©®मधुमिता