Thursday 4 October 2018




रंग हैं 
पर रंगहीन से
शब्द भी हैं 
पर बेज़ुबान हैं
दुर्दान्त सी बेबसी है
चीखते हुई मायूसी भी
हर तरफ कर्णभेदी शोर है 
मृत्यु सी ख़ामोशी भी
कहते हैं सब अपने हैं मेरे
क्यों हर कोई पर अनजाना सा है
ख़ौफ़ कई हैं इर्द-गिर्द 
जो हरदम मुझे डराते हैं
अनदेखे कंकाल हैं कई
वीभत्स नाच दिखाते हैं
नासमझ सी एक समझ है
समझती हूँ लेकिन शायद सब
यादें भी हैं छुपी कहीं
जो हाथ नही हैं आतीं अब 
दिन और रात अब एक से मेरे
समय असमय सब एक समान
नींद अब कोसों दूर है मुझसे
जागना भी अब आदत है मेरी
अनसुलझे सवालों के अब 
जवाब बस ढूढ़ती हूँ
अजनबी चेहरों में हरपल 
अपनों को तलाशती हूँ
हर कोई दुश्मन लगता है
हर चेहरा पराया लगता है
कोई कहता है मै बेटा हूँ
कोई खुद को कहती है बेटी
कोई मगर ये तो बताओ 
कि कौन हूँ मै
हाँ कौन हूँ मै
किस देस से मै आई हूँ
नाम मेरा भी मुझे बताओ
अपनी हूँ कोई तुम्हारी
या कोई पराई हूँ 

©®मधुमिता

#alzheimer's 


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