Saturday 28 May 2016

नरासुर


भयावह हो,मासूम हो?कैसा है चेहरा तुम्हारा?
घूमते हो बीच हमारे, फिर भी ना जाना हमारा,
नज़रें तुम्हारी अनजानी सी,
अनदेखी, ना पहचानी सी,
ना जाने किस किसको ढूढ़ते रहते हो,
ना जाने किस किसका शिकार करने निकले हो !

कभी कोई मामा,चाचा,
कहीं तो भाई, काका,
कहीं अंकल, तो कहीं सखा,
हर कोई अपना सा लगा,
अनदेखे से भी लोग बहुत है,
एक ही सी मगर सबकी सूरत है।

कहीं कोई निरस्त्र,अबला नारी,
शिकार हो गयी हवस की तुम्हारी,
कभी कोई किशोरी उज्जवल,निर्मल सी,
आँखों में लिए मासूम सपने,कोमल सी,
ध्वस्त हो गयी तुम्हारी मर्दानगी के आगे,
फिर भी तुम अट्टहास करते रहे,तार-तार कर अस्मिता के धागे ।

कोई और नही गर, तो कोई बच्ची ही सही,
मासूम,कोमल,बेबस कली  कच्ची ही सही,
उसके दर्द और रूदन से तुम्हारी मर्दानगी 
और सर उठाकर,फूली नही समाएगी, 
तुम्हारे मर्दन से शायद उसका दम भी घोंट जाओगे,
कोई शिकन ना होगी चेहरे पर तुम्हारे,फिर भी मर्द कहलाओगे।

इतना ही नही बस हमारे हिस्से, 
चर्चित बहुत है तुम्हारे किस्से,
कभी हमारे अंदर लोहे की छङ डालोगे,
कभी अपने खूनी हाथ से हमें टटोलोगे,  
किसी के अंदर बोतल घुसाओगे,
तो किसी निरीह,अबोध को सिगरेट से दागोगे।

किसी का मुँह दबा, वहीं गाङ दोगे,
किसी को तङपते हुये,नग्न सङक पर फेंक दोगे,
कभी किसी को बोरी या सूटकेस में भर दूर ले जाओगे,
कहीं किसी को बंद कमरे में रोज़-रोज़ नोच खाओगे,
कब भरेगा ये राक्षस सा मन तुम्हारा,
कब तुम समझोगे दर्द हमारा । 

ये दुनिया भी आराम से सो रही है,
जागी हुई,पर आँखें बंद कर रखी है,
दो दिन को मोमबत्तियाँ जला हमारी याद में,
नारेबाज़ी करके दिन और रात में, 
मानों कूद पङे हो साथ हमारी आग में,
फिर रफ्ता-रफ्ता भूल जायेगी चंद दिनों के बाद में।    

कौन रखेगा हमारा मान,
कैसे बचाएँ हम अपनी मर्यादा,हमारी आन,
तुम्हारे घर भी तो माँ-बहन होंगी,
क्या वो भी तुम्हारी पाशविकता का शिकार होती होंगी!
सच कहें,तुम तो इंसान कहलाने के काबिल ही ना रहे,
तुम तो ढोर-डंगर से भी बदतर ही निकले।।

-मधुमिता 

Friday 27 May 2016

चाह


जुङे हुये दो बेरंग लब हैं,
इनमें क्यों रंग भरना चाहते हो!!

हर अंग मेरा बेज़ुबान है,
तुम कैसे उन्हें बुलवाना चाहते हो!! 

सूखी हुई सी आँखें हैं,
इनमें आँसूं क्यों लाना चाहते हो!!

टूटा हुआ दिल है मेरा,
उसे जोङने की क्यों जुगत लगाते हो!!

अनगिनत ज़ख़्मों से भरी हूँ,
उन पर क्यों मरहम लगाते हो!!

रोम-रोम मेरा दर्द से भरा है,
तुम उनको सुकून पहुँचाना क्यों जारी रखते हो!!

रूह मेरी भटक रही है, 
तुम क्योंकर उसे बसाना चाहते हो!!

हर धमनी मेरी सिकुङ रही है,
उनमें रक्त संचरण बेकार ही करना चाहते हो!!

मैं बस एक अचल लाश हूँ,
तुम इस मुर्दे को जिलाना चाहते हो!! 

मैं तो एक ख्वाब हूँ,
तुम मुझमें हकीक़त क्या ढूंढ़ते हो!!

मैं ख़ुद ही इक सवाल हूँ,
मुझमें क्यों जवाब तलाशते हो!!

ढीठ सा यूँ, क्यों मन तुम्हारा है,
अनसुलझे को सुलझाने की यूँ ज़िद कर बैठे हो!!

दिल तुम्हारा, नासमझ बहुत है,
नादान से! ये क्या तुम बेवजह चाह बैठे हो!!


-मधुमिता

Thursday 26 May 2016

प्यार भरे वो दिन



क्या तुम्हे याद है कब हम-तुम मिले थे,
काॅलेज के गलियारों में यूँ ही बतियाते चले थे,
हल्की सी मूँछों वाले,कमसिन से तुम, 
जवानी की दहलीज़ पर खङीं,कोमल से हम,
वो एक दूसरे से नज़रें चुराना, 
दूसरों की नज़र बचाकर,नज़रें मिलाना,
वो भोले से,मस्ती भरे दिन सुहाने, 
अपने दिल के नग़में,होंठों पर अपने ही तराने।

ना जाने कैसे हम आयें पास,बनने को एक जान,
दोनों थें कितने अलग,कुछ भी ना था एक समान,
तुम गुमसुम से,चुप बैठते,हौले से देते हंस,
मै बातूनी चिङिया,एकदम मुँहफट सी बस,
खिलखिलाकर हंसती थी मैं,
क्लास,कैंटीन,हर जगह में, 
सहेलियाँ मुझे कोहनी मारती,
जब तुमको मुझे देखती पाती।

एक नाटक में एकबार,एकसाथ हिस्सा लेना,
चरित्रों को निभाने खातिर,इक दूजे का हाथ थामना,
बोलों को रटते-रटते, दोनों का करीब आ जाना,
धीमे-धीमे एक दूसरे के दिल को दिल से करार आना,
फिर रोज़ तुम्हारा किसी बहाने मेरे बस में चढ़ जाना,
फिर बहाने से मुझे घर तक छोङकर आना,
दुनिया से हम छुपते छुपाते,
मुहब्बत के अपने अफ़साने बनाते।

क्लास के बाहर मेरे,तुम्हारा चहलकदमी करना,
डर के मारे कभी अध्यापक को देखना,
कभी किताबों में डर से अपना मुँह छुपाना,
फिर बाहर निकल,तुमपर बस बरस जाना,
मज़ाक मेरा उङाते हुये,तुम्हारा हल्के से मुस्कुराना
और मेरे हर डर,हर गुस्से पर मानों ठंडा पानी फिर जाना,
वह झूठे गुस्से,मान मनौव्वल के दौर थे कितने हसीन,
जब था रिश्ता हमारा रेशमी धागे सा मुलायम और महीन।

हफ्ते भर हमारा कट्टी-कट्टी खेलना,
एक दूसरे से दूर रहना,एक शब्द भी ना बोलना,
फिर यकायक सात दिनों के बाद तुम्हारा सामने आना,
इशारों-इशारों में बहुत कुछ अनकहा कह जाना,
फिर शुरू हुआ साल दर साल साथ चलने का सिलसिला,
बेचैन सी हुई नज़रें, जब दिल हुआ जाता था मनचला,
हर पल,हर घङी करती रहती तुम्हारा इंतज़ार,
नज़रें जब सुकून पातीं,करके तुम्हारे छब का दीदार।

यूँ ही चलते चलते इक रोज़ दो दिल बने इक जान,
रखते हुये एक दूसरे का मान,
बंध गये हम एक, ना टूटने वाले बंधन में,
अग्नि,सितारों और नक्षत्रों के साक्ष्य मे,
धीरे-धीरे दो से हम तीन हुए,तीन से चार,
किंतु बरकरार रहा वैसे ही हमारा प्यार,
परिभाषा ज़रूर बदल गयी थी प्यार शब्द की
पर अब भी हम रह रहे थे एक दूजे में जी।

पर अब कुछ बदल सा गया है कहीं मानो,
तुम अपने काम में खोने से लगे हो ये जानो,
वही मैं हूँ, वही हो तुम भी,
शायद कुछ दोष है इस वक्त का ही,
प्यार भी है और इकरार भी,
कद्र भी है और आभार भी,
फिर भी कुछ ख़लिश सी है ना जाने क्यों,
वो मस्ती भरे पल,वो मनचला सा दिल जाने कैसे खो गया यूँ।

जीवन के चक्रव्यूह में शायद हम फंस गये,
ज़िम्मेदारियों के अहसास तले घुट गये,
हर पल जी लेने की चाह में,
आगे बढ़ने की आस में, 
कुछ पल पुराने दूर कहीं छूट गये,
ना जाने कब रेत की भांति,मुट्ठी से निकल गये,
आज भी पुराने वो दो पल भी गर,किसी तरह जी पाऊँ, 
तुमको ले साथ में,वो खिलखिलाते,मस्तममौले,प्यार भरे दिन जी आऊँ ।।

-मधुमिता      
  

Sunday 22 May 2016

तुम ही 


अंधियारे को उघाङती हुई,
रोशनी सी बिखेरती हुई,
वो छुपी सी इक काया,
मुस्कुराती हुई ,तुम ही हो ना?

शांत सी हवा में मानों,पायल की छमछम,  
हल्के से कानों में बजती,साँसों की सरगम,
वो वीणा की झंकार सी लगती,
मौसीक़ी की सुर ताल में रंगी,तुम ही हो ना?

बारिश की बूंदों में जलतरंग सी बजती,
फिर इंद्रधनुष सी सजती,
सातों रंगों में,सब रंगने वाली,
रंगीन सी अदाओं में,तुम ही हो ना?

फूलों का मख़मली स्वरूप, 
चंदा का वो शीतल सा रूप,
नर्म,नाज़ुक सी कच्ची कली,
फूल बनने को बेसब्र, तुम ही हो ना?

रातों को सितारों भरा आंचल फहराये, 
अंधेरे में एक चिराग  जलाये,
गर्म अहसासों को सुलगाये, 
मुझे ख़ुद में समटने को तैयार,तुम ही हो ना?

गर्मी की रातों बोझिल रातों में,सर्द हवा का झोंका,
आतुर होती मेरी धङकनों को,प्यार से जिसने टोका,
उनींदी सी आँखों में ढेरों सपने सजाये,
अपने आँचल में हर जज़्बात को टांके,तुम ही हो ना?

सरदी की भरी दुपहरी,
उसपर एक किरण सुनहरी,
माहौल को गरमाते हुये,
सूरज की स्वर्णिम रश्मि सी,तुम ही हो ना?

तुम्हारे होने का यहीं आसपास कहीं,
मेरे दिल की हर धङकन देता है गवाही,
तुम्हारी हर साँस की आवाज़,
मेरे वीरान सी ज़िन्दगी का साज़,हो तुम ही।

अहसास है मुझे प्यार का तुम्हारे, 
चाहूँ मैं तुम्हें बस पास मेरे,
हर घङी,हर पल मिलकर जियें,
मेरे दिल की हर धङकन, हो तुम ही।

अब सच बताओ ,छुपकर मुझे देखने वाली, तुम ही हो ना?
बेपनाह मुझसे मुहब्बत करने वाली, तुम ही हो ना ?
मेरी बेरंग सी ज़िन्दगी में ढेरों रंग भरने वाली,तुम ही हो ना?
सोंधी-सोंधी बारिश  की फ़ुहार, तुम ही हो ना?

लब तुम्हारे बोलें ना बोलें, 
नज़रों ने तुम्हारी, हर राज़ खोले,
कर गयीं वो बयां खुद ही, 
मेरी जान वो हो तुम ही,मेरी जान तुम ही!!

-मधुमिता  

Wednesday 18 May 2016

झूठ का पाश




खुद को,झूठ के एक लौह जाल में घेर लिया तुमने
झूठ का ये लिहाफ़,क्यों ओढ़ लिया तुमने,
ये भी झूठ और वो भी झूठ,
हर वचन पर,सच जाये टूट,
हर मोङ पर तुम्हारे बोल,
सिखा जाती है ये अनमोल,
कि किसी के कहे पर ना करो विश्वास,
किसी से ना बांधो इतनी आस
कि दिल को पहुँचे भारी आघात;
और झूठी लगने लगे अपनी ही बात।

वो कसमें, वो वादे सभी झूठे,
जिनके पीछे, सब अपने मेरे छूटे,
झूठे तुम्हारे रिश्ते नाते,
हर एक तुम्हारी सच्चाई बता जाते,
क्यों तुम्हारी नज़रें हर झूठ को ना कर पाईं बयां,
क्यों कर गईं वो,यूँ मुझसे दग़ा,
क्यों नही वो बता पाईं तुम्हारा सच,
तुम्हारे हर झूठ में गयी  वो रच,  
मेरा सच भी रूठ गया है मुझसे आज,
तुम्हारे झूठ के भंवर में फंस,जो मैने सुनी ना उसकी आवाज़।

फंसकर रह गयी मैं झूठ के इस सुदृढ़ पाश में,
तुमपर करती रही भरोसा,सच्ची आस में, 
पर हर कदम पर डाला तुमने झूठ का जाल,
मैं कमबख्त फंसती गयी इसमें,तुम्हारे इश्क में बेहाल,
हर झूठ तुम्हारा दे जाता गहरा एक चोट, 
तुम उसे भी बना देते,मेरी सोच का खोट,
कितना तुम्हे बदलने की,करी कोशिश मैंने,
तुमको सच्चा जानने की थी बस ख्वाहिश मन में,
पर झूठ ने तो सोच को भी तुम्हारी, मैला कर दिया था,
रगों में जो दौङती थी तुम्हारे,उस खूं को भी मटमैला कर दिया था।

ना जाने,ऐसी ही एक झूठ बनकर रह गयी मै कब,
जब सब झुठलाने लगे,ये जाना मैंने तब,
तुम्हारे झूठ के साये में अब मै भी झूठी कहलाती हूँ,
तुमपर किये भरोसे पर अब,खुद ही खुद से झुंझलाती हूँ,
चल रहा है अंतर्मन में झूठ और सच का घमासान,
मै और मेरा वजूद भी झूठा,शायद मेरे दिल ने भी लिया है मान,
शायद तुम्हारे झूठ ने विजय पायी,हार मान ली है सच ने,
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को ही झुठला दिया तुमने,
मेरे सच की दुनिया में,कर दिया मुझे मूक, पूर्णतया मौन,
पशोपेश में हूँ,कि आख़िर सच्चा कौन और झूठा कौन !!!

-मधुमिता

Sunday 15 May 2016

हाँ मुझे है प्यार 



क्या मै तुमसे करती हूँ प्यार,
हाँ प्यार है, या है इनकार, 
बङी ही उलझन में पङ गयी हूँ , 
क्यों तय कर नही पा रही हूँ ,
कभी लगता है करती हूँ प्यार, 
कभी लगे,शायद नही है अब इकरार,
और इसी हाँ-ना के फेर में, 
आनाकानियों के हेर में, 
मैं काफी सारी दूरी तय कर आयी,
तुम्हें प्यार करने से,ना करने तक आ गयी,
दिल मेरा नर्म से पत्थर का बना जाता है,
खूं मेरा गर्म से सर्द सा  हुआ  जाता है ।

क्या मैं तुम्हारा करती हूँ इंतज़ार,
हो के बेचैन और बेकरार,
शायद हाँ! नही!शायद ना,
मुझे नही है अब फर्क पङता,
चाहे तुम आओ,चाहे ना आओ,
मेरे पास ना आकर,कहीं भी जाओ,
मेरा दिल अब हो चुका बेज़ार, 
बेवजह,यूँ ही बैठी बेकार 
में,देखती तुम्हारी राह, 
निकलती हर आस बनकर आह,
हर आह अब बन जाती  है  इक शोला,
जो हमारे रिश्ते के हर तार को, जाती है जला।

क्या वाकई में मै तुमसे करने लगी हूँ नफरत?
क्या नही मुझे अब तुमसे उल्फ़त! 
या सिर्फ तुमसे ही करती हूँ मुहब्बत;
और इसी बात की है बौखलाहट, 
कि करती हूँ प्यार तुमसे और सिर्फ तुम्ही से,
जब दरकिनार कर दिया मुझे,तुम्ही ने तुमसे,
करना चाहती हूँ नफरत तुमसे जी भरकर,
देखना चाहती हूँ प्यार को नफरत से तौल कर, 
पर ये निष्ठुर प्यार पर जाता है भारी, 
हर नफरत की भावना है इससे हारी, 
तुम्हारे प्यार में बनी जा रही मैं बिल्कुल अंधी, 
दूजे तरफ आग की मानिंद, फैली जा रही नफरत की आंधी । 

इस अंतहीन सी कहानी में, 
अकेली बस दीवानी मैं, 
कैसे खुद को मैं करूँ  शांत, 
कैसे लूँ ख़ुद के ग़म मैं बांट, 
ऐसे ही तृष्णा में तङपती रहूँगी, 
अधबुझी सी आग में सुलगती रहूँगी, 
प्यार और नफरत के पशोपेश में, 
बेदर्द अहसासों के आग़ोश में, 
दिल मेरा तंग हुआ जाता है, 
हाँ-ना की उलझती गुत्थी में, दंग हुआ जाता है , 
इस बिचारे से दिल को,मैं,किस तरह समझाऊँ, 
क्या-क्या गुज़र रही मुझपे,मैं इसको क्या कुछ बताऊँ !

मेरे तुम्हारे इस बेमेल से मेल में, 
मुहब्बत और नफरत के अंधे खेल मे,
आखिर में गयी, मैं ही हार,
रोएँ मेरी आँखें खूं के आँसूं हज़ार, 
मिली मुझे प्यार करने की सज़ा, 
क्या यही थी ऊपरवाले की रज़ा? 
कठोर बन गयी इस कदर क्यों मेरी नियती, 
क्या शिकायत करूँ,शायद यही है उसकी प्रकृति, 
यहाँ मैं जीते हुये भी, हर पल मरूँगी, 
फिर भी तुमसे ही प्यार करती रहूँगी, 
तुम्हारा प्यार दिल में लिये, मैं जीती जाऊँगी,
खून,मांस,धङकनों की बनी,चाहे मुर्दा कहलाऊँगी।।

-मधुमिता 






Thursday 12 May 2016


दूर ना जाना


कभी भी इतनी दूर  ना मुझसे जाना,
कि मुश्किल हो जाये पास आना,
बहुत लम्बी होती है एक दिन की दूरी भी
जब बैठी रहूँ मैं इंतज़ार में,कुछ बेइख़्तियारी सी भी
है, जब चिराग की लौ भी टिमटिमाने लगे
और चांदनी भी कुछ धुंधलाने लगे ,
जब सो जाये दुनिया सारी,
तब रात काटना हो जाये भारी,
हर पल दिल को तेरी ही चाहत है, 
हर आवाज़ लगती,तेरे पैरों की आहट है।

कोने में धीमियाती अंगीठी, 
जब घूरे मुझको ,गुस्से में, रूठी
सी,मेरे बहते आँसूं भी उसे पिघला ना पाये,
बेदर्द दहक दहक कर मुझे जला जाये,
उसकी धुँए की धारा मेरी नज़र को जलाने लगे,
घोंट मेरी साँसों  को,कुछ यूँ मेरा गला दबाने लगे,
तुझसे दूरी शायद उसको भी खलती है,
कमबख्त उस बात का बदला भी मुझ ही से लेती है, 
आ जाना इन आँखों में आँसूं सूखने से पहले,
इस मासूम से मेरे दिल  के टूटने से पहले।

खिङकी पर बैठी मैं ताकती हूँ बाहर,
दूर कहीं धुंधली सी तेरी तस्वीर आती है नज़र,
तेरे दिल के धङकनों की तरंगें मुझे छूने लगती हैं,
जैसे पानी की लहरें धरती को छूती हैं, 
नम आँखें मेरी  टिक जाती है तुझ पर,
ओस की बूंद हो जैसे किसी पत्ते पर,
हर क्षण करती मुझमें, तेरा ये इंतज़ार,
एक अनोखा,जादुई सा जीवन संचार, 
आ जाना सितारों के डूबने से पहले ही,
इन थकी आँखों के मेरे मूंदने से पहले ही।

तेरे आने से पहले गर मेरी ये आँखें बंद हो जायेंगी,
तो दूरियाँ और भी लम्बी सी हो जायेंगी, 
दोनों के दरमियाँ ना मिटने वाले फ़ासले होंगे,
दोनों की दुनिया भी अलग अलग होंगे, 
मैं ना रहूँगी,पर दिल मेरा घूमता रहेगा यहीं,
ढूढ़ता रहेगा तुझको हर कहीं, 
मिलने को तुझसे हरदम बेकरार,
कहने को तुझसे यही बारबार,   
कि कभी भी इतनी दूर  ना मुझसे जाना,
कि मुश्किल हो जाये हमारा पास आना।।

-मधुमिता 

Tuesday 10 May 2016

अकेला 



जीवन के सफर में अकेला हर शख्स यहाँ,
हर छोटे बङे रस्ते पर अकेले ही चला जा रहा,
अक्स बहुत हैं बिखरे इधर,
पर अपना ही अक्स सिर्फ दिखे जिधर,
आजू-बाजू, पीछे -आगे ,
कहीं भी जाये,कहीं भी भागे,
मीठी बोली कई यहाँ बोले,
कोई नही जो साथ होले,
जो आगे बढ़कर थामे हाथ,
कोई नही जो चल दे साथ ।

कोई नही जो सुने व्यथा,
ना कोई जो प्यार से चूमे माथा,
कोई नही जो सपने दिखाए, 
उन राहों पर आगे ले जायें,
कोई नही जो जगाए आस,
आकर बैठे उसके पास, 
कहे चलो आओ दु:ख बांटे,
मिलजुल कर ये दिन काटे,
हर कोई सोचे बस अपना,
अपनी ही मंज़िल,अपना सपना।

हर कोई यहाँ देखे अपना स्वार्थ,
ना करे कोई यहाँ परमार्थ, 
राम नाम की गाथा गाये,
पर मनुष्य जन का ना साथ निभाये,
आगे बढ़ने की लगी है होङ,  
धक्का-मुक्की,अंधी दौङ,
मेरा मेरा करता रहता है, 
पर अंत में खाली हाथ जाता है,
फिर भी क्यों ना एक दूजे के हो,
क्यों ना एक दूसरे का साथ दो।
  
चल रे मना अब तू भी हो जा तैयार,
कोई नही यहाँ अपना यार,
कोई जो तेरी खुशियों में खुश हो ले,
कोई ऐसा,जो तेरे ग़म संजो ले,
जो हाथ पकङ कर ले चले आगे,
थामकर वक्त के धागे, 
हर कोई यहाँ अपने में खोया,
किसी को क्या,जो तेरा दिल है रोया,
कोई नही रिश्तों का मोल,
अब तो अपनी आँखें खोल ।

अब ना कर किसी का इंतजार,
ना रूला इन आँखों को बारबार,
अकेले ही चलता चल, 
हर रोज़,आज और कल,
हिम्मत कर और बढ़ आगे,
और तेरे अहसास सारे  जागे, 
अकेले चलना ही तेरी तकदीर है पथिक,
और कुछ की इच्छायें ना रख अधिक, 
देख हर कोई अकेले ही चला जा रहा, 
जीवन के सफर में अकेला हर शख्स यहाँ ।।  

-मधुमिता

Saturday 7 May 2016

माँ मेरी 

तुम्हारे हाथ का हर एक छाला,
चुभा जाता है इस दिल में एक भाला,
हर एक रेखा जो तुम्हारी पेशानी पर है,
एक दास्तां बयां कर जाती किसी परेशानी की है,
बता जाती है वो दर्द को,जो सहे तुमने,
हमें लाने इस हसीन जहां में अपने।

उंगलियाँ पकङ चलना सिखाया, 
मामा,दादा,बोल बोल देखो खूब बुलवाया,
खाना खाना, नाचना गाना सब सीखे तुमसे,
तंग किया,फिरकी की मानिंद घुमाया,फिर भी ना खीजीं हमसे,
हर रोज़ नयी तैयारी थी,
हम ही तो तुम्हारी फुलवारी थीं ।

क, ख,ग तुमने ही सिखाई,
ए,बी,सी थी तुमने लिखवाई,
कविता पाठ कराती थी तुम,
चित्रकारी की अध्यापिका भी तुम,
हर कला को विकसित किया है मुझमें,
हर गुण तुमसे विरासत में पाई मैंने ।

दिखलाई तुमने सही राह, 
मंज़िल अपनी पाने की चाह,
सच की राह पर चलते रहना अटल,
बताया,हर सही बात पर करना अमल
और झूठ को सदा दूर खदेङना, 
सदा सच्चाई का दामन ही थामना।
  
दृढ़ता का तुमने ज्ञान दिया ,
पक्के इरादों का सम्मान किया, 
निडर हो आगे बढ़ना सिखाया,
ज़िन्दगी की राह में गिरकर,फिर उठना सिखाया,
सच को सच और झूठ को झूठ बोलने की हिम्मत दी,
हर ग़लत से जूझने की हौसला अफ़ज़ाई की।

आज मैं जो भी हूँ,सिर्फ तुम्हारी वजह से हूँ, 
तुम्हारी नज़रों में अपना अक्स ढूढ़ती हूँ, 
हाङ मांस से गङी हूँ तुम्हारी, 
तुम्हारे खून से ही सींची ये तुम्हारी दुलारी, 
तुम्हारे वजूद का हिस्सा हूँ मैं , 
तुम्हारा ही लिखा हुआ किस्सा हूँ मैं।

तुम्हारा खिलाया हर कौर आज भी दौङ रहा मेरी धमनियों में, 
तुम्हारी हर सीख कूट-कूट कर भरी है हर रग रग में,
इंसानियत का पाठ पढ़ाया,
हर मुश्किल में मुस्कुराना सिखाया,
जीवन को जीने की अजब कला सिखाकर, 
क्या खूब मिसाल बन गई तुम, अपने फर्ज़ निभाकर।

आज एक माँ हूँ मैं भी,
समझती हूँ एक माँ के मन की
चिंता,प्रेम,सोच और प्यार, 
जो मांगे ना कोई अधिकार, 
माँ,माँ के बोल में ही वह ढूढ़े मान,
है माँ में हर प्रेम,समर्पण और सम्मान ।

तुम्हारा दिया हर कुछ है मेरा,
ये जीवन,साँसें और नाम भी मेरा,
आँचल की छाँव में तुम्हारे,
दोनों जहां हैं मेरे,
मुझसे कभी रूठो जो तुम,
वो दर्द कभी सह ना पायेंगे हम।

मेरे सर पर तुम्हारा खुरदुरा सा हाथ रहे,
हर दुःख में तुम्हारा साथ रहे,
साहस और संयम की तुम प्रतिमूर्ति,  
कोई ना कर पाये कभी किसी माँ की पूर्ति, 
माँ तो ऊपरवाले की देन है अनूठी,
नही कभी इसमें कोई त्रुटि।

बस इतनी अब चाह है मेरी,
झुर्रियों भरे चेहरे पर  तुम्हारी,
सदा मुस्कान खेलती रहें,
धूमिल होती नज़रों में तुम्हारी खुशियाँ बस तैरती रहें, 
हर ग़म से कोसों दूर रहो तुम,
यही रब से कहते हम।

आज भी तुम्हारा ही दिया नाम चलता है,
कोशिकाओं में तुम्हारा ही खूं बहता है,
जैसी भी हूँ माँ,मैं हूँ तुम्हारी बेटी,
रब से ये करूँ मैं विनती,
गर और जन्म ले मैं इस जग में आऊँ 
हर जन्म में बस,माँ,तुमको ही अपना माँ पाऊँ ।।

-मधुमिता 

मातृ दिवस के अवसर पर माँ को समर्पित 

Friday 6 May 2016

कैसे!!

आसमां, बहुत है पास मेरे,
कठोर बहुत हैं हवाओं 
के थपेङे, निष्फल करती मेरे
हर उस कोशिश को, मानो 
मुझे रोकना ही, उसका
एक मात्र ध्येय ये तुम जानो।

उङ सकती हूँ इस दुनिया से 
कहीं परे,जहाँ गले मिलूँ
मैं कोमल,धवल बादलों से,
खूब करूँ अठखेलियाँ
उनसे,तोङ सारे बंधन,
तोङ कर सब बेङियाँ।

सुनहरे से कुछ सपनें हैं 
इस जहां के पार,
जिनको पाने में है
पूर्णता मेरे अंतर्मन 
की,हर कोशिश पर जारी 
है,करने को मेरे मन का दमन।

हर कोई मुझको रोक रहा है 
देकर प्यार का वास्ता,तो कोई हक 
से, मेरी ख्वाहिश को टोक रहा है,
दामन में है प्यार सभी का,
कैसे तोङूँ दिल सबका
और पा लूँ अपने मन का।

दिल में ऊँचे उङने की चाहत बहुत है, 
आँखों में गगन से मिलने के सपने, 
नीचे बहुत से रंग बिखरे हैं, 
जो खींच लेते मुझे अपनी ओर,
पर मन मेरा व्याकुल बहुत है,
छूने को नीले आसमान का छोर।

झिनी सी रेशम की जाली सी,
मोह माया के इस महिन
झरोखे में से,मैं तितली सी,
निकलूं तो निकलूं कैसे
समझ ना पाऊँ!नाज़ुक से मेरे पंख 
फैलाकर,अासमांओं को छू लूं ,तो कैसे!!

-मधुमिता

Wednesday 4 May 2016

बचपन


तितली सी उङती फिरती थी,
ठुमक ठुमक कर,इतराती,  
सारे रंग संजो लेती थी,
खुशियों से मुस्काती।

माँ-बाबा से बकबक बकबक,
भाई से नादां सी खटपट,
गुङियों में तमाम ज़िन्दगी जी लेना,
सपनों की सुंदर सी दुनिया में पलना।

ना मेरा था,ना तेरा था,
सब कुछ जब हम सबका था,
झगङे होते थे जब क्षण भर के, 
मुस्कुराते थे सदा जब मन भर के।

इसे मारना,उसे रुलाना,
फिर खुद ही जाकर पुचकारना, 
कट्टी-अब्बा का वो खेल,
कैसा था वो अनूठा मेल।

खो-खो,किकली,पकङम पकङाई,  
स्टापू,पोशम पा और छुप्पन छुपाई, 
पासिंग द पार्सल,फ़ारमर इन द डेन,
भाई किसकी है बारी,वन,टू,फाईव,सिक्स,टेन।

ना कपङों की परवाह थी,
ना मंदिर-मस्जिद की थाह थी,
जब सारा जहां था मकान अपना, 
अनंत खुशियों से भरा सपना।

जब सारे हम थे भाई बहन,
समझ पर तब थी बङी गहन,
दुश्मनी किसे कहते थे,हमें ना था पता, 
तब हमारे दिलों को,किसीने ना था बांटा।

खुशियों की थीं किलकारियाँ,
मौज मस्ती से भरी सवारियाँ, 
पाक,निर्मल, छोटे से दिल थे,
जिनमें बङे बङे सपनों के बिल थें।

ना ऊँच नीच, ना जात पात, 
हमको तो बस करनी होती,अपने दिल की बात, 
एक से ही थे हम सबके सपने,
सारे हम सब थें जब,अपने ही अपने।

खाते पीते साथ साथ जब,
एक ही था जब हम सबका रब,
बचपन के वह दिन निराले,
कोई बीते सालों से निकाले ।  

-मधुमिता

Tuesday 3 May 2016


ध्रुव तारा


मै अपने कमरे मे बैठी थी। परेशान -कुछ बातों के अर्थ ढूढ़ने की कोशिश मे। जितना मै सोचती उतनी ही तेज़ी से मेरी कुरसी हिलने लगती और पेशानी पर पसीने की कुछ और बूंदे उभर आतीं।
रसिका दीदी मुझे छोङकर चली गयीं थी उस दिन,हमेशा हमेशा के लिए ।मेरा बालमन इस बात को स्वीकारने को बिल्कुल भी तैयार ना था।ऐसे लगता था बस यहीं तो हैं वो,कहीं मेरे आसपास । बस अभी आएंगी और कहेंगी ," उठो देखो बाहर कितने फूल खिले हैं ।चलो चित्र बनाते हैं ।"
मेरी नज़र बरबस ही एक तस्वीर पर चली गई, जिसमें उन्होंने प्यार से मुझे जकङ रखा था और एक प्यारी सी मुस्कान उनके होंठों पर खेल रही थी।मुझे अपनी छोटी बहन मानतीं थीं।हर समय मेरा साथ देने को बेताब, मेरा ही क्यों कितनों की मदद किया करती थीं वो।
 आज भी मुझे वह दिन याद है -मै छोटी सी, डरी सहमी हुई नये स्कूल जा रही थी। बस स्टाॅप पर माँ छोङने आईं थीं । छूटते ही एक सुंदर सी, लम्बी-लम्बी चोटियों वाली दीदी ने मेरा हाथ  थामा और बोलीं, "आंटी मै रसिका।आज इसका फर्स्ट डे है? कोई बात नही मै ध्यान रख लूंगी। क्या नाम है ? विच क्लास? " माँ ने भी मुस्कुराते हुए उनकी सारी बातों का जवाब दिया और तसल्ली से मुझे उनके हवाले कर चली गईं ।
स्कूल में मुझे मेरे क्लास तक ही नही छोङा बल्कि कुछ बच्चों से मेरी पहचान भी करवाई।टिफिन टाईम में भी मिलने आईं और बाद में मुझे बस से भी उतारा ।  
शाम को मैं घर के गेट पर खङी होकर बाहर पार्क में खेलते बच्चों को देख रही थी । हम शहर में नये आये थे और अभी काॅलोनी के बाकी बच्चों से मेरी पहचान नही थी।तभी रसिका दीदी गेट के सामने आ खङी हुईं ।"अरे मधु तुम अकेली क्यों खङी हो? चलो सबके साथ खेलो।आओ मै तुम्हे सबसे मिलाती हँ", और मेरा हाथ पकड़ कर मेरा परिचय सब बच्चों से करवाया।इस तरह मेरी कई मित्रताओं की सूत्रधार रसिका दीदी ही थीं ।
मेरा कोई ऐसा दिन नही जाता, जिसमें मुझे उनकी ज़रूरत ना पङती।माँ भी उनकी मम्मी से बङी बहन जैसा स्नेह करने लगीं थीं ।
हर चीज़ में मुझे प्रोत्साहित करने का मानों दीदी ने बीङा उठा लिया था।
मैं गाती अच्छा थी,आवृत्ति भी अच्छी करती थी। रसिका दीदी हर प्रतियोगिता में मेरा नाम लिखवातीं, जमकर प्रैक्टिस करवातीं और मेरे जीतकर आने पर और जमकर नाचतीं। हाँ कुछ भेंट भी अवश्य लातीं अपनी मम्मी के साथ ।
उनको फोटोग्राफी का शौक था ।सारा दिन किसी ना किसी तस्वीर को कैमरे में कैद करती रहतीं ।उन्हीं के कैमरे से मैने पहली तस्वीर ली थी उनकी। हालांकि ज़्यादा अच्छी नही थी,पर उन्होंने खूब तालियां बजाई थीं।उनके साथ रहकर मेरे चरित्र का और मेरे गुणों का भरपूर विकास हो रहा था । माँ भी बहुत खुश थीं ।कहतीं मेरी तो दो बेटियाँ हैं।बङी ने छोटी का हाथ थाम रखा  है ।मैं भी एक छोटे से पिल्ले की भांति उनके पीछे पीछे घूमती रहती ।
मै चित्रकारी ठीकठाक कर लेती थी,पर रंग भरते हुए सारा गुङ-गोबर हो जाता था ।एक प्रतियोगिता आने वाली थी और मैं भाग लेना चाहती थी।मेरी कक्षा में  जो अच्छी चित्रकारी करती थी,उसने मेरा मज़ाक उङाया और बोली कि मै नही जीत सकती।मै खूब रोई। घर जाकर भी मेरा रोना जारी रहा।शाम को दीदी आईं और जो उन्होंने कहा वह सब मैंने आजतक गांठ बांधकर रखा है । पहले तो उन्होंने मेरे आँसू पोंछे,फिर कहा कि," रोती रहोगी तो भाग कैसे लोगी।" 
उस दिन उन्होंने मुझे अपनी खुद की पहचान बनाने का महत्व समझाया।बोलीं कि लोगों के कहने से कुछ नही होता । होता है तो अपनी इच्छा शक्ति और मेहनत से और ना जाने कितने नाम गिना दिये जिन्होंने अपनी लगन,इच्छा शक्ति और मेहनत से अपनी अलग पहचान बनाई और कामयाबी पाई।बाकी मुझे तो सिर्फ रंग भरने पर मेहनत करनी थी। उस वक्त मुझे कुछ ज़्यादा तो समझ नही आया था पर मेहनत वाली बात मेरी समझ में आ गई थी ।
अगले दिन रसिका दीदी के ये कहने पर," भाग तो लो प्रतियोगिता में ।वह भी तो बहादुरी का काम है।हारना जीतना ही सिर्फ मायने नही रखता।जीत मेहनत और उस भावना,उस लगन की होती है", मै जाकर अपना नाम लिखवा आई।फिर  शुरू हुई मेरी मेहनत।रोज़ अलग अलग चित्र बनाती और रंग भरती।पहले दीदी को दिखाती,फिर आर्ट टीचर को।धीरे धीरे मेरी कला निखरने लगी।टीचर भी बहुत खुश थीं ।
धीरे धीरे प्रतियोगिता का दिन भी आ गया।पूरे भारत से बच्चे भाग ले रहे थें।मै भी पहुँची।कोई डर,कोई ख़ौफ़ नही,बल्कि आत्मविश्वास से भरी हुई ।टॉपिक दिया गया और मै अपने चित्र में डूब गई।समय खत्म हुआ तो देखा काफी लोग मेरे चित्र की फोटो ले रहे थे ।लगा ठीक ही बना होगा ।घर वापस आई,सबको बताया और धीरे धीरे भूल गयी।चित्रकारी पर जारी रही।
दो महीने बाद एक दिन प्रार्थना के समय प्रिंसिपल ने कहा कि उनको एक महत्वपूर्ण उदघोषणा करनी है। फिर उन्होंने जो कहा उससे मैं भौंचक्की रह गई ।चारों ओर तालियों की गूँज थी और मेरी आँखों में आँसू ।मेरी नज़रें रसिका दीदी को ढूंढ रहीं थीं। उनसे गले मिलकर उनको बताना चाहती थी कि मै सर्वप्रथम आई थी ।उनकी छोटी सी बहन ने उनकी बात मानी थी और अव्वल आ गई।दीदी उस रोज़ स्कूल नही आईं थीं। उनके बोर्ड की परीक्षा भी निकट थी,शायद इसीलिए।
किसी तरह समय काटा दिनभर। छुट्टी हुई,बस में बैठी,घर पहुँची।घर पर माँ नहीं थीं।पता चला रसिका दीदी के यहाँ हैं।मै निकलने को तैयार ।मुझे रोकने की कोशिश की गई, पर मै कहाँ रुकने वाली थी।भाग ली दीदी दीदी करते।गेट खोलकर अंदर घुसी।अंदर लोगों का जमावङा।धक्का मारकर आगे निकली तो दृश्य देख मेरे शब्द गले में ही घुट गये।सामने दीदी नीचे लेटी हुई थीं,ऊपर उनके सफेद कपङा था,आँखें बंद, निष्क्रिय सा शरीर । सब रो रहे थे।माँ को देख उनके पास गयी,उनसे पूछा तो पता चला कि सुबह दीदी को कुछ साँस लेने में तकलीफ हो रही थी । हस्पताल ले जाया गया,वहाँ डाॅक्टर कुछ समझ पाते,उससे पहले ही वो इस दुनिया को छोड़ गयीं थीं।
मै रोती हुई भागी और अपने कमरे में बंद हो गई ।मेरी सोच मेरा साथ नही दे रही थी।क्यों चली गईं दीदी।भगवान ने उन्हें क्यों बुला लिया।मैं तो उनके साथ खुशी बंटना चाहती थी,जो उन्हीं की देन थी।जितना मैं सोचती,उतना ही उलझती जा रही थी।तभी मुझे उनकी कही बात याद आई -"कुछ भी हो जाए,कभी घबराना नही,चाहे कोई साथ हो या नही, बस आगे बढ़ते जाना।"
हाँ अब मुझे आगे बढ़ना था,उनके बताए रास्ते पर चलकर,उनकी कही बातों को अपनाकर। उन्होंने मुझे कहानी सुनाते हुए कहा था कि जो इस दुनिया से चले जाते हैं वे सब तारा बन जातें हैं ।मैं उठी और अपने आँसू पोछें,फिर कभी ना रोने के लिए,क्योंकि दीदी को हँसते मुस्कुराते लोग अच्छे लगते थे। 
रसिका दीदी भी  अब एक तारा बन गयीं थीं-"ध्रुव तारा"!!! मुझे राह दिखाती,मुझे मेरे मंज़िल की ओर ले जाती मेरी अपनी "ध्रुव तारा"।।

-मधुमिता