Tuesday 28 August 2018

चलो ना अब जाने दो!





चलो ना अब जाने दो!

एक घाव ही था

देखो ना, अब भर गया,

बहा था खून बहुत,

आँसू भी बहे थे खूब,

पर देखो तो, अब तो सब सूख गये,

हाँ, टीस तो बहुत है अब भी,

दर्द भी उठता है,

हल्का सा निशां भी एक रह जायेगा,

पर बस इतना भर ही;

यही तो जीवन है,

मिलना, बिछड़ना,

कभी ठोकर खाना,

कभी चोटिल होना, 

सब लेकिन किंचित हैं,

यथार्थ पर क्षणिक ,

बस रह जाती हैं कुछ यादें

धुंधली धुंधली सी

उस ज़ख़्म के निशां में, 

तो अब व्यर्थ ही क्यों 

तुम यू आँसू बहाती हो ? 

छोड़ो अब इस सूखे घाव को कुरेदना,

चलो ना अब जाने दो!

©®मधुमिता


Sunday 26 August 2018

इश्क हैं हम...


नर्म सी
कुछ गर्म सी
मीठी सी
मदहोश भी
मासूमियत से लबरेज़
मेहरबां जो हम हो जायें
जहाँ सारा सँवर जायें 
दिलेर हैं
बहादुर भी 
गर्मजोशी 
हममें हर पल है बह रही
नज़ाकत से सज धज
नीले आसमाँ को कभी छू आतें
कभी मदमस्त हवाओं को चूम आतें
फ़िक्र भी हम 
सुकून भी 
ख़लिश भी हम
मेहरबानी भी 
मासूमियत 
और नादानी भी 
ज़हीन भी 
हसीन भी
सुलगते जज़्बातों में हम
बहकते अंदाज़ों में हम
बेख़ौफ़ आते जाते
दिलों को हम चुरा लाते 
ख़्वाब भी हम
हम ही है हकीकत 
खुशी और खुशबू भी 
रंग और मौसीकी भी 
इश्क हैं हम
मुहब्बत आपकी
आपकी आशिकी
इस दुनिया में आपके
हम सा ना कोई 

©®मधुमिता

Saturday 18 August 2018

गंगा मयी...



सुलग रही थी मै,
धधक रही थी मै,
कुछ ज्वर से,
आवेश में,
ज्वार सी 
ऊफन रही थी,
विह्वल थी,
अज्ञान था,
सर्वज्ञान का भान था;
भागीरथी सम,
अलकनंदा, 
मंदाकिनी सी
कूदती-फांदती, 
हर बांध तोड़ 
भागी जा रही थी,
बेतहाशा,
बेकाबू..
कि उस किरण ने 
थाम लिया मुझको,
बोली, " ला दे दे",
" दे,अपनी उष्णता मुझको,"
"बाँट ले ये ओज मुझ संग",
और ढांप लिया 
मुझे अपने आँचल से,
जिस तल छिपी थी
असीम प्रकाशमयी गंगोत्री,
जो भिगो गयी मुझे,
संचारित कर गयी
नूतन चेतना,
दिखा गयी जीवन सारा,
समझा गयी जीवन सार,
उन्मादी उन्मुक्तता 
को लयबद्ध कर गयी,
अग्नि थी अब भी,
पर दावानल की ज्वाला नही,
मै शांत हो गयी,
शीतल हो गयी,
जीवन ज्ञान से 
लदी फदी,
बह चली थी मै,
मै, अब गंगा हो गयी थी ।।

©®मधुमिता

 

Thursday 9 August 2018

अब जाने दो....


चलो ना! अब जाने दो!
क्यों टाँकती हो इन रंग-बिरंगी कतरनों को
इस तार तार होती रिश्तों की चादर पर?
हाँ, ये दूर से लगती तो बेहद खूबसूरत है,
और फिर तुम्हारी कारीगरी भी तो गज़ब है
जो इन महीन और नाज़ुक धागों से इनको 
बेइंतहा मुहब्बत से सीती हो !
दिल से जोड़कर रखती हो!
पर इनसे भान होता है, इनके एक सार ना होने का,
अहसास होता है एक टूटन का, 
हर पैबंद ढांक रहा है एक गर्त को,
जिनमें बसे हैं असंख्य भंवर,
झंझावत और चक्रावात ,
जो तैयार हैं तुमको सोखने को, एक अनंत, अदृश्य में,
आत्मसात करने को चिरकालिक अंधकार में,
बस एक टाँके के चटकने भर की दरकार है !
कोई मायने नहीं अब इसे संभालने की, 
लाख कोशिशें कर लो, अब ये ना संभलने की,
हर पैबंद एक चोट है,
सुंदर सी पट्टी के पीछे, रिसती हुई;
चलो ना, कुछ नये धागे बिन लायें,
एक नई रंगीन चादर बुन डालें,
सजायें नये रंगों से,
नये सपनों से, 
मैली बेहद है ये
बेकद्र भी बहुत,
अब इसको ना रोको,
वक्त के सलवटों में चलो
इसको अब दफ़ना दो,
चलो ना! अब जाने दो!        

©®मधुमिता