रात..
फिर एक तारा टूटा
ऊपर आसमान से,
खो जाने को कहीं
सर्द बर्फ़ीले सन्नाटे में,
टूटकर एक पत्ता गिरा
धरती के विराट सीने पर,
जीवन रूपी वट वृक्ष से,
जो खड़ा एक चट्टान सा,
अचल फिर भी चलायमान,
समय के अथाह सागर में
घर बनाकर,
दूर दूर तक
जड़ें फैलाकर ,
ख़ुद में ही भू को समेटे,
हर रंग को ,
हर रूप को ,
आयुष्य,
अवसान,
विरह और मिलन को,
उस पत्ते को उठा,
हरियाली से लिपटकर,
रोशन ख़ुद को करते हुये,
टूटे उस तारे को अपनाकर,
दिनभर की अग्नि को सोख,
उस सर्द अंधेरी रात को,
उष्णता की चादर ओढ़ाकर।।
©®मधुमिता
फिर एक तारा टूटा
ऊपर आसमान से,
खो जाने को कहीं
सर्द बर्फ़ीले सन्नाटे में,
टूटकर एक पत्ता गिरा
धरती के विराट सीने पर,
जीवन रूपी वट वृक्ष से,
जो खड़ा एक चट्टान सा,
अचल फिर भी चलायमान,
समय के अथाह सागर में
घर बनाकर,
दूर दूर तक
जड़ें फैलाकर ,
ख़ुद में ही भू को समेटे,
हर रंग को ,
हर रूप को ,
आयुष्य,
अवसान,
विरह और मिलन को,
उस पत्ते को उठा,
हरियाली से लिपटकर,
रोशन ख़ुद को करते हुये,
टूटे उस तारे को अपनाकर,
दिनभर की अग्नि को सोख,
उस सर्द अंधेरी रात को,
उष्णता की चादर ओढ़ाकर।।
©®मधुमिता