Saturday 24 December 2016

मासूम ख़्वाब..




कुछ यादें ताक पर धरी हैं,
झाङ-पोंछकर, चमका रखी हैं।

चंचल सी साँसें कई
इधर-उधर बिखरी पङी हैं।

जज़्बातों की लौ 
सुलग रही है आले पर,

कुछ अल्हङ से अरमान
झूल रहे हैं फ़ानूस पर।

अहसासों की पोटली
टांग रखी है दीवार पर,

नटखट सा चेहरा तुम्हारा
खेल रहा लुकाछिपी।

किताबों के पन्नों के बीच कुछ दिन छुपे हैं,
जिन्हें  ढूढ़ रही दो आँखें मेरी, 

कुछ मखमली से दिन 
और रेशमी रातों की झालरें भी सजी हुई हैं।

झरोखे से झाँक रहे हैं 
कुछ  मासूम ख़्वाब,

सम्भाल लेना इन्हें,
देखो, कहीं गिर ना जायें!

©मधुमिता

Tuesday 20 December 2016

अक्स..



ना वफ़ा से कोई रिश्ता, 
ना ज़फा से कोई सरोकार,
ना कोई आज,
ना ही कोई कल, 
अपना भी नही,
ना ही बेग़ाना,
ना चमक,
ना रौनक,
बेरंग सा चेहरा,
बेनूर आँखें,
गड्ढों में धंसे 
टूटे सितारों से,
ना मुस्कान,
ना आन, बान, शान,
थकी हुई सी,
टूटी हुई, 
लाश बन चुकी
एक जीवन सी,
खुद को ढूढ़ती,
आईने में एक बिंब 
अनदेखी, 
अनजानी सी
देखती हूँ, 
डर जाती हूँ, 
मुँह मोड़ लेती हूँ 
उससे,
या खुद से ?
मटमैले, बेजान से इस
चेहरे को नही जानती मै,
ख़ुद ही अपने अक्स को 
नही पहचान पाती हूँ अब...!!

©मधुमिता

Sunday 18 December 2016

टूथपेस्ट के बुलबुले....



पेपरमिंट सी,
कभी मीठी,
कभी नमकीन,
दातों के बीच 
कुलबुलाती,
मुँह में स्वाद भर जाती,
कसमसाती, 
बुदबुदाती, 
भर जाती सनसनाहट,
अनदेखी सी गर्माहट,
ताज़गी की अहसासें, 
ठंडी सी साँसें, 
कभी बनती,
कभी फूटती,
मुँह में मिठास सी घोलती,
मेरे अधरों को चूमती, 
मुस्कुराहट दे जाती,
सफेद-गुलाबी झाग से घिरी, 
टूथपेस्ट के बुलबुलों सी
यादें तुम्हारी. ..!

©मधुमिता

Tuesday 13 December 2016


वो पुराने दिन..



वो पुराने दिन भी क्या दिन थे
जब दिन और रात एक से थे,
दिन में रंगीन सितारे चमकते,
रात सूरज की ऊष्मा में लिपटे बिताते।


फूल भी तब मेरे सपनों से रंग चुराते,
तितलियाँ भी इर्द गिर्द चक्कर लगातीं,
सारा रस जो मुझमें भरा था,
कुछ तुममें भी हिलोरें लेता।


कोरी हरी घास पर सुस्ताना, 
मेरे बदन पर तुम्हारी बाहों का ताना बाना, 
पतंग से आसमान में उङते,
एक दूसरे में सुलझते उलझते।


शाम की ठंडी बयार, 
होकर  मेरे दिल पर सवार, 
छू आती थी लबों को तुम्हारे,
मेरे दिलो दिमाग़ पर रंगीन सी ख़ुमारी चढ़ाने।


रातों ने काली स्याही 
थी मेरे ही काजल से चुराई,
जुगनु भी  दिये जलाते,
मेरे नयनों की चमक चुरा के।


चाँद रोज़ मेरे माथे पर आ दमकता,
गुलाबी सा मेरा अंग था सजता,  
सितारों को चोटी मे गूंथती 
ओस की माला मै पहनती।


अरमानों की आग में हाथ सेंकते,
एक दूजे में यूँ उतरते,
तुम और मै के कोई भेद ना होते,
बस हम और सिर्फ हम ही होते।


एक ही रज़ाई में समाते,
भीतर चार हाथ चुहल करते, 
तब मोज़े भी तुम्हारे , 
मेरे पैरों को थे गरमाते।


क्या सर्द, क्या गर्म,
हर चीज़ मानो मलाई सी, नर्म,
बस एक पुलिंदा भरा था हमारे प्यार का,
पर था वो लाखों और हज़ार का। 


काश वो दिन फिर मिल जाते,
दीवाने से दिल कुछ यूँ मिल पाते,
कच्ची अमिया और नमक हो जैसे,
या गर्म चाशनी में डूबी, ठंडी सी गुलाबजामुन जैसे।

©मधुमिता

Monday 12 December 2016

रोशनी सी बिखेरते हैं. ...




हर एक मौसम में रोशनी सी बिखेरते हैं 
ये चाँद सा चेहरा तेरा ,
चाँदनी के फूल सी पाक मुस्कान तेरी,
हीरे सी तराशी दो आँखें तेरी,
चम्पई सोने सा बदन तेरा,
ये रेशमी चमकते गेसू तेरे,
माथे पर चमचम चमकती बिन्दिया तेरी,
दमकता सा ये हीरे का लौंग तेरा,
कजरारी सी चमकती नजरें तेरी,
छनकती काँच की चूड़ियाँ तेरी,
छमकती हुईं पाज़ेब तेरी,
सूर्ख़ लाल लब तेरे,
ग़ुलाबी सी मदहोशी तेरी,     
हर वक्त धधकते अरमान तेरे,
हर अंधेरे को मुझसे दूर करते
रौशन करते, मखमली धूप से 
ये जज़्बात  तेरे...
हर एक मौसम में बस रोशनी सी बिखेरते हैं ।।

©मधुमिता 

पहली पंक्ति वसी शाह से

Wednesday 7 December 2016

बिछी पलकें. .....



शाम ने रंगी चादर बिछाई हुई है,
सितारों ने महफिल सजाई हुई है,
हवा की तपिश गरमाई हुई है,
कली कमल की यूँ खिल रही है,
बाग़े वफ़ा भी यूँ शरमा रही है,
जैसे वो मेरे लिये पलकें बिछाई हुईं हैं ।


झिलमिलाती कालीन बिछाई हुई है,
धड़कनों की ताल पर, दिल ने तान छेड़ी हुई है,
हर कूचे,गलियारों में वो झांकती मिली है,
पलटकर,पलक में वो ग़ायब मिली है,
इंतज़ार भी यूँ अब इतरा रही है,
जब उसने मेरे लिये पलकें बिछाई हुईं हैं ।


दुल्हन सी शब सजाई हुई है,
जुगनुओं ने बारात निकाली हुई है,
झींगुरों की सरगम ने, अनोखी सी धुन सजाई हुई है,
मेरे शब्दों ने झीनी सी झालर एक बनाई हुई है,
क्योंकि छुईमुई सी वो, सुर्ख, शरमाई हुई है,
इंतज़ार में मेरे जो पलकें बिछाईं हुईं हैं।।

©मधुमिता

Monday 5 December 2016

बदलाव...



सुबह बदली सी है,
शाम भी बदली बदली,
हवा का रुख़ भी बदला सा है,
बदली सी है कारी बदली।


गाँव बदल रहे हैं, 
शहर बदल रहे हैं,
बदली सी धरती अपनी,
बदला बदला सा आसमान।


नज़र बदल रही है,
नज़ारे बदल रहे हैं,
बदले से हैं यहाँ ईमान,
बिल्कुल बदल गया इंसान।    


दुनिया बदल रही है,
ज़माना बदल रहा है,
बदल रही हैं ख़्वाहिशें,
बदल से रहे हैं अब सपने।


बदले बदले से हैं सब जो थे अपने,
बदल गये हैं रास्ते, 
बदल से गये हैं सबके दिल अब,
ना जाने कैसे, कब बदल गया यूँ सब।


प्रौद्योगिकी का ज़ोर है,
प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा की होङ है,
मानव भी मशीन सा हो गया है,
वाहन सा इधर उधर जीवन को ढोह,दौङ रहा है। 


कुछ भी पहले सा ना रहा,
रिश्ते नाते भी अब बदल गये,
दोस्त भी अब पहले से ना रहे,
शायद हम भी कुछ अब बदल से गये।।

©मधुमिता

Friday 25 November 2016

शहर मेरा बदला सा...



बदले बदले हैं मिजाज़ कुछ मेरे शहर के,
कुछ अलग ही है रुआब अब इस चमन के,
जिधर नज़र दौङाओ 
बस इंसान ही इंसान
और उन्हे लेकर भागती गाडियाँ,
चारों ओर बस धूल ही धूल,
ना जाने कहाँ गये वह फूल 
जो यहाँ की खूबसूरती में 
लगाती थी चार चाँद,
अफरा तफरी का माहौल है अब,
भूल गये लोग करना तफ़रीह,
वो भूल भुलैया, शहीद स्मारक,
गंज, अमीनाबाद, गोमती का तट,
अब तो है मेट्रो आने वाली,
लोगों को फर्राटे से पहुँचाने वाली,
अब है माॅलों का रेला,
मोहन मार्केट, गंज वगैरह 
को हर कोई है भूला,
ना मेफेयर ही है, 
ना ही तुलसी,
आनंद भी बन गया है
कुछ और ही,
कुल्फी फालूदा,    
कचौङी और खस्ता,
नेतराम की पूरी,  
हनुमान सेतु पर मंगल को बुंदी,  
सब चीजें 
अब रह गयीं पीछे,
पिज़्ज़ा, बर्गर, 
मोमो और कोला,
तांगे, फटफटी की जगह
उबर और ओला,
डील डौल कुछ अजब निराली है,
पर लोगों के मन अब खाली हैं, 
सूनी सी है मेरे शहर की आत्मा,  
चमचमाती सी, फिर भी अंधेरी,
शोख़ सी, पर ना रही चुलबुली,
ऐ ख़ुदगर्ज़ ज़माने! ये तूने क्या कर डाला,
मेरा लखनऊ तब क्या था,
अब तूने इसे क्या बना डाला!!

©मधुमिता 

Wednesday 16 November 2016

बचपन



मासूम से,
थोड़े नटखट से,
चुलबुले,
सतरंगी से बुलबुले,
किलकारियाँ,
छोटी-छोटी शैतानियाँ,
बदमाशियाँ,
मनमानियाँ,  
डाँट खाकर बेबस सा चेहरा बनाना,
कभी रोना,कभी मुस्कुराना।


परी कथायें, 
वीर गाथाएं,
कभी किंवदंतियाँ,
कभी भूतों की कहानियाँ,
टी-सेट और गुङिया रानी,
हवाई जहाज़ और मोटर गाङी, 
कागज़, पेन्सिल और ढेरों रंग,
खूब सारी किताबों का संग,
खेल, खिलौने, हँसी की किलकारी 
बस यही थी जब दुनिया हमारी।


बचपन के दिन भी क्या खूब थे,
काम ना होते हुये भी हम सब मसरूफ़ थें,
पेङों पर चढ़ना,
चोरी से आम तोङना,   
दुपहर को माँ संग लेटना
और उसकी आँख लगते ही, झट बाहर को दौङना, 
खेल कूद और हल्ला गुल्ला,
बचपन की रौनक से रोशन था मुहल्ला,
टिप्पी टिप्पी टाॅप, स्टापू, छुपन छुपाई
और खो-खो ने जब थी नींदे चुराई।  


आईस्क्रीम और कुल्फी,
दूध,मलाई, लस्सी, 
जलेबी,पकौङे , समोसे,
जब थे मिनटों में चट कर जाते,
ना जलन, ना ऐसीडीटी का चक्कर, 
जब नींद आती थी छककर,
जब पत्थर हजम कर जाते थें,
सारा दिन ना जाने कितनी कितनी दौङ लगाते थे,
ना कोई चिंता ना कोई फ़िकर,    
नाना-नानी, दादा-दादी,के थे लख़्ते जिगर।


ना मारामारी,
ना लाचारी, 
ना लङाई,    
ना मार कुटाई,
ना ही कोई शिकायत, 
ना दिल में कोई नफरत, 
ना भेद किसी जात पात का,
ना कोई धर्म भेद, ना क्षेत्रवाद था,
कितने साफ दिल और नेक थे,
तब हम सब भी तो एक थे।


आज तो हर वक्त मारामारी है,
जीवन एक ज़िम्मेदारी है,
हँसना मुस्कुराना भूल चुके हैं, 
दुनियादारी अब सीख चुके हैं, 
हर ओर बस भागमभाग, 
सीनों में लगी है आग,  
अब कुछ भी ना हमारा है,
हर कुछ तेरा मेरा है,
रिश्तों में कितने भेद हैं अब,
दिलों में भी बस दूरियाँ हैं अब।


हर पल बस झूठी हँसी, झूठे मुस्कान,
बस शेखी और झूठी शान, 
क्यों नही अब हम खिलखिलाते हैं?
क्यों एक दूसरे को नीचा दिखाते हैं? 
किस बात की हाय, तौबा और मारकाट ?
क्यों करते अब झगङे, जंगों की बात?
काश कभी ना बङे होते!
बच्चे बन बस नाचते,कूदते,
सारी दुनिया होती हमारा घर,
हर कोई अपना, ना कोई ग़ैर, ना पर।


एक बार जो फिर से हाथ आ जाये बचपन,
कभी ना छोङे फिर उसका दामन,
तितलियों जैसे उठते फिरेंगे, 
पंछियों से चहकेंगे,   
एक ही रंग और एक ही देश,
ना ही हिंसा, ना कोई द्वेष,
जैसे कोई प्यारा मेहमान,
बचपन एक मीठी मुस्कान, 
ले आती है यादें ढेर,
करवा लाती है सुलझे हुये दिनों की सैर।


चलो समय का पहिया घुमा दें,
फिर से हम बच्चे बन जायें. ...


©मधुमिता

Sunday 13 November 2016

ऐ सूरज...





ऐ सूरज तुम कहाँ छुपे हो!
क्यों नही मुझको अब तुम
पहले से दिखते हो?
क्यों मुरझा रही सूरत तुम्हारी?
क्या हो गयी हमसे
ख़ता कोई भारी? 
ऊँचे-ऊँचे गगनचुम्बी इमारतें,
मानो बादलों के परे खड़े, 
काले स्याह धुआँ उगलती
लम्बी चिमनियाँ, 
मेरे सुनहरे सूरज तुमको 
मानो नज़र का टीका लगाती,
हर बादल पर मंडराती,
फेफङों को काला रंग जाती,
हर ओर धूल धक्कङ,   
सूखी नदियाँ 
सीनों में ढोते 
बजरी और कंकङ, 
मटमैली सी हरीयाली,
धुआँ फैलाती गाडियाँ,
हर साँस को तंग
संकरी गालियाँ,
पाँव धरने को मचलते
मानव,जानवर,पक्षी दल,
जन जीवन अस्त व्यस्त, 
हर कोई त्रस्त 
किसी अनदेखे,
अनजाने ख़ौफ़ से,
गोला, बारूद, 
तोपें, बन्दूक, 
चीख पुकार,
गुस्से का अंबार,
आडम्बर, 
गर्दी और ग़ुबार, 
हर ओर किरण पात,
विकिर्ण, 
क्या तुमको बना गये हैं जीर्ण?
हर तरफ कांक्रीट का बाज़ार,
धरती को करती बेजान,
बेधङक तार तार,
नीचे मोह माया का जाल,
ऊपर तारों का जंजाल,
जिसमें से अब ना ही झांकता चंदा,
ना नज़र आते, टिमटिमटिमाते,
झिलमिलाते सितारों की झालरें!
अपनी ही प्रौद्योगिकी,
पारिभाषिकी के जाल में 
फंस गया है मानव,
धरती, प्रकृति, जीवन
से खेल रहा है मानव,
तुम भी तो फंसे हुये से
आते हो नज़र,
ग़ुबार में लिपटे,
निष्तेज से,
अपनी मुस्कान खो कर,
बताओ ना मुझे
क्या तुमको भी क्रोध है आता,
क्या ये धुआँ -ग़ुबार 
तुमको है भाता!
ऐ सूरज! सच बताओ,
तुम क्या सोचते होगे,
इन तारों के जंजाल के बीच फंसे!!

©मधुमिता

Saturday 5 November 2016

यादों की राख..



एक दिल है 
टूट कर फिर जुङा हुआ,
धङकता हुआ,
खुशियों से मचलता हुआ,
आत्मविश्वास फिर से खङा हुआ,
आँखें नवीन सपनों से दमक रही हैं,
अद्भुत रंगों से चमक रही हैं, 
अम्लान रुधिर धमनियों में 
बहने लगी,
सुर्ख, लाल, गर्म, 
थोङा सख़्त, थोङा नर्म,
नवीन मार्ग की ओर अग्रसर,
जैसे ही मैने तोङ दी
आस की डोर को,
झोंक दिये आग में 
उन निशानियों को
जो अंश थे तुम्हारे झूठे प्यार के, 
फाङ दिये मटमैले 
उन पन्नों को
जिनमें सिमटीं थी यादें तुम्हारी,
वो धुंधली सी ज़िन्दा यादें 
जो आभास करा जाती थी 
हरपल एक धोखे का,
निर्मम से हृदय का,
उन वादों को
जो पल पल तोङ रही थीं मुझे
थोङा - थोङा,
सब कुछ, समझ की अग्नि में 
जला डाले मैने,
खुली आँखों से,
बिना किसी हिचक,
बगैर किसी झिझक,
कुछ भी अब ना रहा, 
ना वो प्यार, 
ना इकरार,
ना प्यास,
ना ही कोई आस,
ना वादे 
और ना ही कोई यादें,
अब बस इतना करम 
कर जाओ, 
यादों की राख रखी है,
ले जाओ
कहीं दूर,
बहा आओ उन्हें..।।

©मधुमिता

Wednesday 2 November 2016

आँसू 




आँसू खुशियों का इज़हार हैं,
मोतियों की बौछार हैं,
पर फिर भी नज़र को धुंधला कर जाते हैं । 


आँसू मुहब्बत की सौगात हैं,
दुःखों का झंझावात हैं,
कभी मोतिया बन उतर आते हैं ।


आँसू भीतर का ग़ुबार हैं, 
रोष की ये धार हैं,
कभी रंग विहीन कर जाते हैं ।


आँसू नाज़ुक से हैं, 
कोमलता से सराबोर हैं,
फिर भी नश्तर से चुभते है।


आँसू ग़म में भी आ जाते हैं, 
दुःख की बरसात ले आते हैं,
कभी उन ग़मों को धो जाते हैं ।


आँसू शिशु की पुकार है,
आँसू माँ का प्यार है,
आँसू दिल से दिल का तार है।


आँसू कभी दिलों को जोङतें,  
तो कभी दिलों को तोङते, 
कभी मर्ज़ की दवा भी आँसू।


बेसाख्ता बरसते,
गालों पर लुढ़कते, ढुलकते,   
उफनते ज्वार से आँसू।


अलग-अलग अहसास लिये,
अलग -अलग जज़्बातों में बहे,
ये नमक की धारायें, ये आँसू ।


आँसू चाहे खुशी के हो
या हो ग़म के...
होते तो नमकीन ही हैं।।

©मधुमिता

Sunday 30 October 2016

आँखें 





मै पहचानती हूँ उन आँखों को, आँखे मीच  

अनंत असंख्य के बीच 

धूल,धक्कड़,गर्दी के बवंडर में 

टीन,टपरे, फूस के घर में

देखती रहती थी बेचारी

अपने बबुआ को दूर खड़ी,

लाचारी थी ,मजबूरी थी

नेह,प्रेम की मगर,कमी नही थी,

जिगर के टुकड़े को अपने,

अपने छिद्रित आँचल से ढकने,

करने सूरज की किरणों से ओट,

बनकर शीतलता का स्रोत,

भूख से बिलखते संतान को

देख भाग आती अशांत हो,

छाती से चिपकाकर,शान्तकर

फिर लगती श्रम को,मन मारकर,

रात गहरी में फूस का अलावन,

फटी हुई साड़ी का झुलावन,

एक हाथ से झुला झुलाती,

दूजे से सपनों की नींव डालती।



फिर उसकी ऊँगली पकड़े

धीरे धीरे बबुआ जी चल पड़े,

बबुआ को बाबू बनाना है,

उसके सपनो की मंजिल तक पहुंचना है,

क ख ग घ,एक दो तीन चार,

बबुआ बने पढ़े लिखे, होशियार,

उसकी आँखें वार फेरती,

अपने बबुआ पे खुश होती,इतराती,

खुद भूखी रहकर

बस पानी ही पीकर,

बबुआ को रोटी खिलाती थी,

अपने को मारकर भी उसके दिल को जिलाती थी।



बबुआ फिर बने बड़े साहब,

बाबू बनकर, उनके बड़े रुआब,

उसकी आँखें ख़ुशी से भींच जाती थी,

आगे आने वाले दिनों को देख ना पाती,

उस अभागन के देखो कैसे फूटे करम,

बबुआ को अब उससे ही आने लगी शर्म,

तो अब बबुआ भये आत्मनिर्भर,

दोनों जैसे दो विचार परस्पर,

फिर आई नववधू,नयी मीत,नयी हितैषी,

झट ले उडी बबुआ को,बने विदेशी,

देखती रही उसकी आँखे निस्सहाय,

बेचारी अबला,निराश्रित,निराश,असहाय।



फिर जा पहुंची धूल-धक्कड़ के मध्य

रोग मगर नैराश्य का,लग गया था असाध्य,

फिर आ पहुंचा था अचानक,वो परदेसी,

मुस्काई वो, झलकी मायूस सी हंसी,

रात वो सोयी,सामने उसका था चेहरा,

सर्द रात कारी,गहराया कोहरा,

सुबह कोहराम मचा ‘मर गयी रे बुढ़िया’! 

चली गयी वो काट सारी ममता,वात्सल्य की बेड़ियाँ,

परदेसी भी ताकने द्वार तक आया,

मृत आँखों ने पहचान लिया था अपना बबुआ,

चिथड़ों में से देख रही थी तब भी अपने बच्चे को,

कफ़न भी ना ओढ़ाया,मुँह फेर चला गया बदनसीब वो।



चली गयी वो मुक्ति के पथ पर

मोक्ष पा गयी थी आत्मा उसकी, आँखों को तृप्तकर,

ना पहचाना माँ को बेटा,कैसी ये विडम्बना

कर बैठा था अपने जन्म,जननी,मातृत्व की उलाहना,

पड़ी हुई थी ममता नीचे अनाथ,शिथिल,निर्जीव,

भर गयी थी रंग बबुआ के जीवन में सुन्दर,सजीव,

जा चली जा दूर,अबोध,तोड़ ये बंधन मोह,स्नेह का,

पथराई इन आँखों में भरकर अक्स उस निर्मोही का,

जिस चेहरे को देख जीती थी आजीवन ये आँखें,

आज यात्रांत पे अनजानी, अनदेखी,एकाकी ये आँखें,

हाँ पहनानती हूँ इन आँखों को,पाषाणमय,निस्तब्ध ये आँखें

उस माँ की आँखें.......।।

©मधुमिता

Saturday 29 October 2016

शुभ दिवाली 




साफ सफाई, 
रंगाई पुताई,
झाङ पोंछ,कटाई छंटाई, 
देखो तो शुभ दिवाली आई।


नये नये कपङे, 
फूलों की झालरें, 
दिये, बधंनवार, खील खिलौने,
धनतेरस पर नये गहने।


भारी भारी से उपहार,
बांटे जा रहे द्वार द्वार,
रेले पे रेला, धक्कम धक्का,
हर ओर ठसके पर ठसका।


भगवान भी अब खरीदे जाते हैं, 
जब जाकर पूजे जाते हैं,
दिये तो अब कम जलते हैं, 
हर ओर बस रंगीन बल्ब चमचमाते हैं ।


हर कोई खुशी का लगाये हुये मुखौटा,
बस महंगाई को ही रोता,
भूल गये सब खुश रहना,
सही में दिवाली मनाना।


छोङो दिखावे का ये खेल,
प्यार से करो दिलों का मेल,
मिलजुलकर सब दीप जलाओ,
एक दूसरे को मिठाई खिलाओ।


चलकर दो दिये उसके घर भी जलाये,
जिसकी वजह से हम रोशनी कर पाये,
सङक किनारे बैठे उन लोगों संग,
बांटो कुछ रंगीन से पल।


दो, छोटे-छोटे से उपहार,
फिर देखो खुशियों के चाँद चार,
चमकती वह आँखें कर दे रोशन,
जगमगा दे सारा जीवन।


उनकी मुस्कान और हंसी,
मानो अनार और फुलझङी,  
मनमोहक सी खुशहाली निराली, 
ऐसे मनाओ अबकी सब शुभ दिवाली ।।

©मधुमिता 

Monday 24 October 2016

बड़े अच्छे लगते हैं....



बड़े अच्छे लगते हैं, ये बारिश ,ये बूंदे,

ये बादल,ये खुशनुमा,मदभरा आलम  और

ये सपनो सा एहसास, आँखे मूंदे मूंदे।



ये गहराते मंडराते बादल,

जैसे श्वेत-श्यामल आँचल,

सनसनाती सी हवा पागल,

छनकती  हुई जैसे पायल।



बड़े अच्छे लगते हैं, ये मौसम, ये धड़कन,

ये खुशबू सोंधी सोंधी और

ये मदमाती, गुनगुनाती पवन।



 ये बौछार, ठंडी ठंडी सी फुहार,

रह रह के मेघों का हुँकार,

मानो करती हों मीठी सी तकरार,

जैसे नया नया सा मासूम प्यार।



 बड़े अच्छे लगते हैं ,ये हिचकना,ये  तड़पना,

ये बिछड़ना,यूँ मिलना और   

 ये तुम्हारी अनछुई सी, हसीं सी, छुवन....।।



-अमित कुमार द्वारा स्वरबद्ध गीत "बड़े अच्छे लगते हैं" व मेरे ससुराल कसौली के खुशनुमा मौसम से उत्प्रेरित मेरी रचना।  

©मधुमिता

Saturday 22 October 2016

अस्तित्व..




आज मैंने अपने जीवन पर मार दिया है काटा,

सारी की सारी खुशियों को इधर उधर दे बांटा,

जन्मों जन्मांतर से मुझको नही है, खुशियों पर अधिकार,

कुछ ज्यादा कहा तो “मेरा कहा”, कहलाया जायेगा अहंकार।



जो ढीठ बनकर कभी मैंने “मै” की ठानी ,

तो अस्तित्व मेरी ही कहला दी जाएगी बेनामी,

सबको खुश रखना और चुप रहना है कर्त्तव्य मेरे,

अपनी खुशियाँ,अपना जीवन ही नही बस,बस में मेरे।


बेटी बनकर, पिता की सुनूँ,

पत्नी बनकर सुनूँ पति की,

बेटे की सुनूँ माँ बनकर,

बस यही मेरा मुकद्दर ।


मूक-बधिर बनकर रह जाऊँ

इसी में सबकी खुशियाँ,

जो खुद अपनी राह खोजकर, डग भरूँ,

तो मै निर्लज्ज कहलाऊँ। 



क्या करूँ और क्या ना करूँ,

 है बड़ी विचित्र सी विडम्बना,

अरे निष्ठुर! मुझे नारी और नारी के अस्तित्व को ही यूँ 

 क्यूँ बनाया? पूछूंगी  ज़रूर उससे जब होगा मिलना,

ऊपरवाले से मुखा-मुख जब होगा मेरा सामना।।

©मधुमिता

Friday 21 October 2016

नयी तस्वीर. ..




रात के आँचल से सितारों की चमकार समेट लो,

कुछ स्याही भी चुरा सको, तो चुरा लो,

कल भोर के पटल पर जो दिन छुपा होगा,

उसे सितारों की सी चमक से चौंधियाना भी तो है

और स्याही को ही तो लिखना है फसाना आगे ।

कई नयी तस्वीरें भी जो हैं बनाने को,

दिन के हर रंग के साथ  सिमटकर,

सारे अहसासों को उन संग घोलकर,

कुछ प्रेम-प्यार के छींटों में रचकर,

लम्हा-लम्हा,मंज़र दर मंज़र....।।


©मधुमिता

Wednesday 19 October 2016

मेरे साथी...



 मेरी चूड़ियों  की खनक,

तेरी सांसों की महक,

मीठी पायल की झंकार,

आया करवा चौथ का पावन त्यौहार।



दिल में मेरे पिया का प्यार,

तुझमे ही पाया सारा संसार,

माथे की बिंदिया बन

यूँ ही चमकते रहो,खिलाओ अंतर्मन।



तुम्ही मेरे गले का हार,

तुमसे ही जीवंत, मेरा स्वर्णिम संसार,

तुम्ही तो हो मेरे ढाल, तलवार,

मेरे रक्षक करवाल।



सुयश,शौर्य और दीर्घायु की कामना

करती हूँ सदा मेरे राँझना,

विश्वास,प्रेम और तेरी बाँहों का हार,

यूँ ही रहे सदा बरक़रार..।



दिल मेरा कभी ना तोङना,

मुँह ना मुझसे मोङना,

मेरा हाथ थामे, मेरे हमदम,

साथ चलते रहो मेरे सनम।



मेरा दिल रब से बस मांगे ये दुआ,

हर वक्त मिले बस तू ही मुझे, मेरे पिया,

है यही, बस यही मेरी रब से प्रार्थना,

हर जन्म में मिले तू मुझको ही मेरे ढोलना,

तो तर जाए मेरे इह लोक,परलोक

इस  जनम और जन्मो जन्मान्तर तक....।।

©मधुमिता

Monday 17 October 2016

मेरे पड़ोस के शर्मा जी


मेरे पड़ोस के शर्मा जी,

ताड़ते रहते बीवी वर्मा की,

जब मिसेस आती चाय लेकर चुपके से,

शक्ल बनाते मासूम सी,

चुस्की के साथ पी जाते अपने अरमान भी...।



ऑफिस में बड़े ही जेंटल जी,

बीवी को बताते ज़रा मेंटल भी,

सुनकर उनकी दुखभरी दास्ताँ

सारी की सारी मेनका,रम्भा सुंदरियाँ  

छिड़कती उनपे अपनी जान..।



एक इस बाजू, दूजी उस बाजू,

एक किशमिश,तो दूजी काजू,

शर्मा जी की दसों घी में,

अरमान हो गए बेकाबू,

सनक से गए, बदहवास,बेलगाम सारे आरज़ू।



अरे शर्मा जी! ज़रा बाज़ आओ,

अपनी हरकतों पे ना यूँ इतराओ,

कहाँ मुह छुपाओगे,प्यार,मुहब्बत ,इश्क क्या यूँ झटकाओगे,

सेक्सुअल हरास्मेंट के बहानों का है ज़माना,

जे मैडम जी बिटर गयीं तो दहेज़,अवहेलना और प्रताड़ना।



चालीस की उम्र क्या पार हुई,

फ़िक्र  तो आपकी बेख़ौफ़ हुई!

अपनी उम्र का कुछ लिहाज़ रखो,

अपनी इज्ज़त है अपने हाथ, उसे याद रखो,

बाहरवाली तो ड्रीम्ज़ की बात है,

शोभा  आपकी घरवाली के ही साथ है...।।

©मधुमिता 

Sunday 16 October 2016

मुक़द्दर..





हाथों की लकीरों में छूपी होती हैं कई दास्ताने,

अश्कों को भी पी जाती हैं कई मुस्कानें,

किसी से मिलना हमारी किस्मत होती है,

मिलकर भूल जाना भी किसी किसी की फितरत होती है।



हर इंसान की ज़रुरत है ग़मों  को भुलाना,

ज़िन्दगी को जीने में, आगे को बढ़ते जाना,

मुश्किल बहुत है लेकिन यादों को दिल से मिटाना,

जिए जा रहे हैं फिर भी, ऐ खुदा!  तेरा शुकराना !



तन्हाई ही है जब हसीं अपना मुक़द्दर,

तो क्या शिकायत, क्या ही शिकवा,और क्या बगावत,

दर्द के बहाव में खुद को बिखरने से रोकना है,

बेदर्द यादों को एक ख़ूबसूरत रंग दे कर छोड़ना है।



अपने ही जब बन जाते है दर्द का सबब,

 है कोई जादू जैसे मगर ये एहसास-ए गज़ब,

ना मुहब्बत, ना जुदाई,ना कोई चाहत,

दे सुकून,गर परेशां तो मानो रूह-ए राहत..।



ना है अपना ,ना तो शुमार बेगानों में,

मिट गए है हम मगर चाहत में उसकी,

लगते बहुत अपने से हैं ,मगर फिर भी बेगाने  से,  

अनजाने से,हाय बेमुरव्वत न बाज़ आयें,हर दम हमे आज़माने से...।।



©मधुमिता

Friday 14 October 2016

जीवन्त ज़िन्दगी





ज़िन्दगी है जीने का इक बहाना,

कभी हँसना तो कभी रुलाना,

कभी मिलना, कभी मिलाना,

कभी छुपना ,कभी खो जाना

और फिर यूँ ही जीते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर चले जाना।



कभी डग भरना, कभी गिर जाना,

कभी गिरके चोट खाना, कभी चोट खाके गिर जाना,  

कभी आँसूं ना रोक पाना,कभी जीभर मुस्कुराना,

कभी संभलना, कभी संभालना,

और फिर यूँ ही संभलते-संभालते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर चले जाना।



कभी बनना, कभी टूटना,

कभी तोडना,कभी सँवारना,

कभी बनाना, कभी उजाड़ना,

कभी पीछे पलटना,कभी आगे को बढ़ जाना,

और यूँ ही आगे-पीछे पग रखते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर,  मरकर चले जाना।



 कभी प्यार लुटाना,कभी नफरत फैलाना,

कभी पुचकारना, कभी लताड़ना,

कभी थामना  , कभी धिक्कारना,

 कभी खुद ही समझ ना पाना,कभी सबको समझाना,

और यूँ ही समझते-समझाते

 इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर चले जाना।



 कभी चलना, कभी यूँ ही रुक जाना,

कभी थमना,कभी बस इन साँसों का चलना जारी रखना,

कभी मिटना- मिटाना,कभी बस यूँ ही खुद को थकाना,

 कभी छिपना-छिपाना,कभी हारना -हराना,

कभी दौड़ना-दौड़ाना,कभी बोझिल क़दमों से लौट आना,

बन गयी देखो अपनी ज़िन्दगानी,बस सिर्फ और सिर्फ एक बहाना;

और कहते हैं हम कि इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर है चले जाना!



जब इक दिन सब कुछ छोङकर, मरकर है चले जाना,

तो क्यूँ ना छोड़ जाएँ जीवन का नया अफसाना,

प्यार,उद्धार और नवजीवन का दिल से नज़राना,

सुख और दुःख को संग संग पिरोते जाना,

समय के लय से जीवन का लय मिलाते चलना,

कभी खुद टूटकर भी मनकों को सौहार्द की माला में जोड़ जाना

और परेशानियों सम्मुख शैल कभी बन जाना,

हैवानियत,बदनीयती,नफरत की ज्वाला को बिलकुल ख़ाक कर जाना।



इंसान को इंसान से, दिल के रिश्तों से जोड़ना,

मधुर,सुन्दर संगीतमय जीवन की संरचना,

इसी की कोशिश,कल्पना,अनुभूति और संयोजना,

जब दिलों को अमान्विकता से ना पड़े भेदना,

बस कुछ ऐसा करते हुए,चलते चले जाना,

कभी हँसते हुए,कभी कल्लोल,किलकारी और बेख़ौफ़  मुस्कुराते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर, जीवन को जीवन्त करके

भरपूर जी के,अपने पद चिन्हों को छोड़कर,बस आगे को है चले जाना

बस आगे को है चले जाना.............।।

©मधुमिता

Thursday 13 October 2016

मुहब्बत अभी बाकी हैं ....





रूह मेरी तेरे अहसानों के तले दबी जाती है,

ऐ ज़िन्दगी,फिर भी एक अहसास है जो ना रूकती है

ना थमती है पर बढ़ती ही चली जाती है

दो हाथ बढ़ाती हूँ तेरी जानिब लेकिन,

कोई ज़ंजीर सी ना जाने क्यूँ पैरों को जकङ जाती है....





बसी हुई है मेरे दिल में सूरत जिसकी

वो जिसे मुझसे ना कोई वास्ता,

ना मेरे होने, ना होने से वाबस्ता,

ना रूठना मनाना,ना शिकवा,ना शिकायत

ऐ मुहब्बत,तू कैसी हसीं सी है रिवायत

ना पाने को दिल मचले, ना खोना मंज़ूर

बिन तेरे ज़िन्दगी है बेमायने, पर  जीने को हैं मजबूर।





उनका नाम होंठो पे है,और अपनी जान अभी बाकी हैं,

जो देखकर भी मुंह फेर लेते हैं वो,तो क्या गुस्ताखी है!

 लब उनके मेरा नाम ना लें तो क्या

उनकी  वो हसीं मुस्कान अभी बाकी है,

तसल्ली रखती हूँ ऐ नादाँ दिल क्यूंकि

इस सूरत की पहचान अभी बाकी है,

इस तनहा दिल की रानाईयों में उनकी 

मुहब्बत के सारे निशाँ अभी तलक बाकी हैं ....

©मधुमिता

Monday 10 October 2016

दूरियाँ




बहुत दूर निकल चुके हो तुम,अलग है अब राह तुम्हारी,

अलग दुनिया बसा चुके हो,जहाँ ना मै हूँ ,ना ही मेरी परछाई,

ना आहट है मेरी, ना मेरी हँसी,

ना चूङीयों  की खनक,

ना पायल की झनक, 

सर्द सी आहें हैं,

बर्फ से जज़्बात,

कुछ यादें हैं जाले लगे,

कुछ कतरने अहसासों की, धूल भरे,

ना तो अब साथ है ,ना मिलने की उमँग, ना ख्वाईश,

अब तो परछाईं से भी तुम्हारे परहेज़ है,

ज़िक्र से भी तुम्हारे गुरेज़ है, 

अब तो सिर्फ हिकारत भरी नज़रें है,या खामोश अलफ़ाज़

जो जता जाते हैं, अब हम ना हैं तुम्हारी दुनिया में,ना ही कोई चाह हमारी!

©मधुमिता

हरसिंगार के फूल




उज्जवल  धवल  बादल  दल, 
उषा  का  स्वर्णिम  आँचल  तल,  
श्वेत  मुन्गई   सितारे  से ,
निर्मल ,मोहक  और  न्यारे से,
बिखरे  थे  बादामी  धूल 
पर  कुछ  हरसिंगार  के फूल,
कुछ  मेरे  सपनो के  जैसे,
खुशियाँ  बिखेरतीं  वो   ऐसे, 
छोड़  ना  पायी  सो  बीन  लायी ,
सपनों  को  अपने  बटोर  लायी,
माला  में  पिरोये , मेरे  सपनों  को  संजोये 
ये  हरसिंगार  के  फूल ।।

©मधुमिता

Saturday 8 October 2016

एक बेदर्द तस्वीर 



ज़िन्दगी कुछ उलझती सी रही,
सवाल कुछ सुलझने से लगे मगर,
कुछ असली चेहरे भी नज़र आने लगे,
खूबसूरत से नक़ाब के तले।


कुछ सवाल फिर भी बने रहे
जस के तस,
उठा जाते जाने अनजाने,
एक अजीब सी कसक। 


दिल भी अपना ना रहा,
बङा ही दग़ाबाज़ निकला,    
सांसें कुछ बेजार सी,
कुछ लम्हे प्यार के, वो भी उधार के। 


सच और झूठ का जाल,
अनगिनत, भयावह चाल,
नोचने खसोटने को है तैयार
सब, है कौन यहाँ सच्चा मित्र, यारों का यार।


फूल भी कई चुभते हैं, 
कुछ में भौंरे छुपे बैठे हैं, 
बेवक्त, बेवजह डंक मारने को,
बस यूँ ही दर्द दे जाने को। 


आँखें तरसती रहीं तुम्हारे दीदार को,
दरवाज़े पर लगी रही तुम्हारे इंतज़ार को,
बङी देर लगा दी धडकनों ने मानने मे,
कि तुम अब मेरे नही, भलाई है दूर जाने मे।  


तुम कभी मेरे थे ही नही,
मै पागल ही मान बैठी थी 
तुमको जान मेरी,
गलती तुम्हारी नही, माना मैने, थी मेरी ही।


हर खुशफ़हमी को छोङ दिया,
खुद को तुमसे अलग, लो मान लिया,
मोह के रेशों को तोङ दिया,
जाओ तुम्हे अपनी यादों से आज़ाद किया।    


लो  गलत  फहमी  की  हर दीवार 
अब ढह  गयी, 
सपने झूठे से भी, अब  आंसुओं  में  बह गए,
बन  गयी यूँ देखो मै, खूबसूरत, निर्जीव सी, एक बेदर्द तस्वीर ।।

©मधुमिता

Tuesday 4 October 2016

जय जवान! 



अंधेरी गलियारों में, 
गली मुहल्ले की दीवारों पे,
चिन्ता की लकीरें 
खींची हुई हैं,
ग़म की लहर दौङ रही है,  
तनी हुई है भौहें, 
चौङे सीने धङक रहे हैं, 
मज़बूत बाजू फङक रहे हैं,
लेने को बदला,
हर एक जान की कीमत का,
करने को हिसाब,
मांगने को जवाब 
अपने जांबाज़ों के मौत का,
हर एक खून के कतरे का,
जो बहा है मादरे वतन के लिए
सीने ताने हुए;
सरहद की रक्षा उनकी ज़िम्मेदारी थी,
भारत माता जो उनको प्यारी थी,
कुछ सूरज उगते ही शहीद हो गये,
कुछ रात के अंधेरों में खो गये,
खुद तो मिट गये,
साथ दुश्मन को भी मिटा गये,
देश को मगर ना मिटने दिया,
तिरंगे को ना झुकने दिया।


हर आँख में आँसू हैआज,
हर शहीद देता आवाज़, 
देश की रखो शान,
हमारे खूं का रखो मान,
एक हो जाओ देशवासियों,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाईयों,
दुश्मन को तभी हरा पाओगे,
देश का गौरव बढ़ा पाओगे।


हर ओर से आती है मिलकर एक आवाज़,
अमर है हर शहीद, हर जांबाज़,  
जय हिंद का जवान!
जय भारत! जय हिंदुस्तान!


©मधुमिता  

Sunday 2 October 2016

समय खङा इंतज़ार में....




सूरज की लालिमा 
जब हरती रात की कालिमा,
हरी,सौम्य सी, शालीन
नर्म मखमली दूब की कालीन
पर मेरे पैरों को छूते 
स्निग्ध ओस की बूँदें,
ठंडी, रेशमी हवा की बयार,
उन संग झूमती फूलों की कतार,
लाल,नारंगी,गुलाबी, नीले,
कुछ रंग बिरंगे, कुछ श्वेत और पीले,
पास से आती, लहरों का शोर,
हवा भी चलती उनकी ओर,
ले आतीं कुछ बूँदें अपने परों पर, 
कर जातीं मुझे सराबोर
शुभ्र सी ताज़गी से,
बढ़ जाती मै ज्यों आगे
अपनी मंज़िल की ओर,
जहाँ मचलते सागर का शोर
और अथाह पानी नमकीन,
मेरे पग अपनी धुन में तल्लीन, 
निकल आये रेतीले किनारे पर,
अपने प्रीतम के बुलावे पर,
जहाँ सुनहरी सी रेत पर,
एक रंगीन नगीने से सीप के अंदर,
मोती सा चमकता मेरा प्यार
और एक गीला सा ऐतबार
बैठा था बेसब्री से,
वहीं, जहाँ समय खङा था इंतज़ार मे।।

©मधुमिता

Saturday 1 October 2016

अपनी माँ को तरसती हूँ 



दो रोटी गर्म गर्म फूली हुई सी
आज भी जो मिल जाये 
तो मै दौङी चली आऊँ, 
दो कौर तेरे हाथों से 
खाने को जो अब मिल जाये,
तो मै सब कुछ छोङ आ जाऊँ।


तेरे हाथों की चपत खाने को
अब तरसती हूँ मै, 
तेरी मीठी फटकार खाने को
अब मचलती हूँ मै,
बहुत याद आती हैं हर डाँट तेरी,
वो झूठा गुस्सा शरारतों पर मेरी।


वो हाथ पकङकर लिखवाना,
कान पकङ घर के अंदर लाना,
वो घूमती आँखों के इशारे तेरे,
भ्रकुटियाँ तन जाने तेरे,
मुझको परी बनाकर रखना,
मुझमें खुदको ही खोजना।


मुझे खिलाना और नहलाना, 
पढ़ना और लिखना सिखलाना,  
कलाओं की समझ देना,
अच्छे बुरे का ज्ञात कराना,
मानविक प्रवृतियों  को जगाना,
प्रेम प्यार का पाठ पढ़ाना।


खाना बनाना,
कढ़ाई करना,
स्वेटर बुनना,
बाल बनाना,
पेङ पर चढ़ना, दौङना भागना,
सब कुछ तेरी ही भेंट माँ।


चुन-चुनकर कपङे पहनाना,
रंग बिरंगे रिबन लाना,
गुङियों के ढेर लगाना,
किताबों के अंबार सजाना,
कितनी ही कहानियाँ मुझसे सुनना
और मुझको भी ढेरों सुनाना।


काश बचपन फिर लौट आये,
मेरे पास फिर से मेरी माँ को ले आये,
जिसकी गोद में घन्टों घन्टे, 
पङी रहूँ आँखें मूंदे,
प्रेरणा की तू मूरत मेरी,
क्यों छिन गयी मुझसे माँ गोदी तेरी?


आजीवन अब तुझ बिन रहना है,
फिर भी दिल मचलता है,
भाग कर तेरे पास जाने को,
तुझको गले से लगाने को,
हर पल तुझको याद मैं करती हूँ,
माँ हूँ, पर अपनी माँ को तरसती हूँ ।।   

©मधुमिता   

Wednesday 28 September 2016

ये नही है तुम्हारा द्वार! 



क्यों अपना समय यूँ व्यर्थ करती हो,
पदचापों को सुनने की कोशिश करती हो!
बारबार कुंडी खङकाती हो,
अपने हाथों से दरवाज़ा खटखटाती हो।



कभी दरवाज़े पर लगी घंटी को देखती हो,
कभी पवन-झंकार को टटोलती हो,
सब ठीक है या नही,
यही सोच कि अंदर सब कुछ हो सही।



क्या पता कि अंदर अग्नि जल रही हो नरक की,
हाहाकार हो हर तरफ ही,
जो तैयार हो तुम्हे जलाने को,
दुःख देकर तङपाने को।



इसलिए मत रुको यहाँ,
चल पङो ये कदम ले चले जहाँ,
धीमे धीमे आगे बढ़ती जाओ,
मुङकर कभी वापस ना आओ।



शायद कहीं और तुम्हारा दरवाज़ा कर रहा है इंतज़ार,   
सुहानी सी रोशनी लिए, सजाकर नया संसार,
यहाँ नही कोई जीत, है बस हार,
तुमको आगे बढ़ने की दरकार।



उठाओ कदम, बढ़ो आगे,
सर उठा निकलो आगे,
यहाँ रुकना है बेकार,
ये नही तुम्हारा द्वार !!
      

©मधुमिता 
  

Tuesday 27 September 2016

"वो मेरे पापा हैं"




" दीभाई बापी(पापा) की तबीयत बहुत खराब है",छोटे भाई की असहाय सी आवाज़ आई दूसरी तरफ से, जैसे ही भागते हुए फोन उठाया।
"अरे पर क्या हुआ? अभी दो दिन पहले तो बात हुई थी उनसे!" मैंने पूछा,तो उसने रुआँसी सी आवाज़ में कहा,"तू बस आ जा"। एक अंजान आशंका की लकीरें शायद मेरे चेहरे पर दिख गयी थी पतिदेव को। उन्होंने मुझसे फोन लिया और पूछा ऐम्बुलेंस बुलवाई  थी उसने कि नही। शायद ऐम्बुलेंस बुला ली गई थी क्योंकि उन्होंने भाई को कहा," तुम लोग अस्पताल पहुँचो, हम तुरंत पहुँचते हैं ।" फिर मुझे ढाढ़स बंधाने लगे।

बच्चे घर पर ही थे। हम सब निकलने की तैयारी कर ही रहे थे कि बीस मिनट बाद फोन फिर बजा-भाई का रोता स्वर,"बापी चले गये। ऐम्बुलेंस भी अभी पहुँची है।डाॅक्टर ने उन्हें डेड डिक्लेयर कर दिया । तू बस आ जा दीभाई , " उसका कातर स्वर दिल को भेद गया। हाथ पैर मानों मेरे शिथिल हो गये थे। अभी दो ही दिन पहले तो बात हुई थी उनसे। मैंने माँ के कहने पर उनसे गुस्सा कर दवाई ना लेने का कारण पूछा था,तो मुझे पर भी बिगङ गये और पार्टी बदलने की बात करने लगे। आज उन्होंने ने ही अपनी पार्टी बदल ली।

जयपुर से भैया  (ताऊजी के बेटे) का भी फोन आ गया कि ,"मै निकल रहा हूँ ।पर शाम तक ही पहुँच पाऊँगा। नाहक मेरा इंतज़ार मत करना।" हम निकल पङे। नोएडा से नजफ़गढ़ का रास्ता मानो खत्म होने को ही नही आ रहा था।ऊपर से दिल्ली की पगलाती ट्रैफिक। दो-सवा दो घंटे लगे हमें पहुँचने में।सब हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे ।बङे मामाजी का बेटा भी  पहुँच चुका था। माँ का तो रो रोकर बुरा हाल।बापी को असहाय से,निष्प्राण, शिथिल देख मेरे आँसूं मानो आँखों मे ही जम गये थे। मेरे बापी-एक फौजी, प्राण और देशभक्ति से परिपूर्ण, मज़ाकिया, हंसते रहने वाले आज अचल,मूक पङे थे।

खैर हमारे आने के बाद संस्कार की सारी तैयारियां पूरी हुई और पापा को अंतिम यात्रा के लिए ले जाने लगे।कुछ रूढ़िवादी औरतों ने माँ की चुङियाँ तुङवाईं, माथे की बिंदी और सिंदूर भी पोंछा और सिंदूर की डिब्बी तुङवाई।मेरा दिल कसमसा गया। कलेजा मुँह को आ गया और आँसूं ढुलक पङे। कुछ नही कर, कह पामै माँ से लिपट गयी।सब बापी को लेकर चले गए । पीछे मैं माँ को सम्भालती रही।

जब सब वापस आये तो मानों सब खाली सा हो गया था।लंबे से मेरे बापी की गैरमौजूदगी खल रही थी ।विश्वास ही नही कर पा रही थी कि वे इस धरती से, हम सबसे दूर जा चुके थे।फिर भी मन कङा कर माँ को समझाती रही। छोटे भाई को देख रोना आ रहा था । वो बापी के बहुत करीब था। पर   अब उसे ही सब कुछ सम्भालना था,इसलिये उसे भी कुछ बातें समझाईं।

रात तक भैया पहुँच गए । अगली सुबह मंझले मामा जी का बेटा भी पहुँच गया।मै घर निकल गयी क्योंकि मुझे मेरे चार पैरों वाले बच्चों की भी फिक्र थी, जिनसे प्यार करना, देखभाल करना, मुझे बापी से ही विरासत में मिली थी ।     

हमारी शादी के बाद मेरे मायके से रिश्तों में कुछ खटास आ गयी थी।कुछ तल्खी सी हमेशा रही रिश्तों में । भैया हमेशा उन खट्टी बातों को दूर करना चाहते थे ।उन्होंने कह दिया-" मैं 'काकू'( चाचा) की अस्थियाँ तभी प्रवाहित करूँगा जब तुम लोग साथ चलोगे।"

पहले ही दिन ममता ,जो काम काज में मेरी मदद करती थी,उसको सब समझाया क्योंकि बच्चों को स्कूल भी जाना था। ठीक समय पर गाङी नीचे गेट पर आ गई । भाई आगे बैठा था अस्थि कलश लेकर, बिचारा सा, असहाय। पीछे से भैया उतरे, पतिदेव के गले लग गये।

मै जैसे ही बैठी तो नज़र एक बोरे से में गयी। भैया से पूछा। वे बोलें -"काकू का सब कुछ। वहाँ क्रिमेटोरियम में उन्होंने कहा सब लेकर जाइए और अस्थियों के साथ बहायें।" बङा अचरज हुआ । शायद बापी आखिरी विसर्जन के लिए मेरे साथ जाना चाहते थे।ठीक मेरे पीछे ही उनके अंश रखे हुए थे, भस्म के रूप में ।

पूरे रस्ते भाई चूप रहा। एक शब्द भी नही बोला। हम तीन बोलते बतियाते गंगा घाट पहुँचे। पंडितजी ने कुछ विधि विधान करें । मै चुपचाप देख रही थी।मन को एक खालीपन सा घेर गया था।शायद बापी से हमेशा हमेशा के लिए बिछङने का दर्द, भाई का दर्द, माँ की पीङा.....कुछ समझ नही पा रही थी।

फिर एक नाव करी,क्योंकि अस्थियाँ मंझधार में प्रवाहित करनी थी। मंझधार पहुँचे, पंडित जी ने भाई से मंत्रोच्चारण के बीच अस्थियाँ और अस्थि कलश प्रवाहित करवायें ।अब बारी थी बाकी भस्म की। दोनों भाई मिलकर बहाने लगे,पर उनसे ना हुआ।पतिदेव ने भी हाथ लगाया। धीरे धीरे   बापी माँ गंगा की गोद में पूर्णतः समाने लगे थे।

अचानक मल्लाह को पता नही क्या सूझा,शायद जल्दी थी उसे,और फेरियाँ लगाने की; उसने एकदम से धक्का लगा दिया। वह तो भैया वगैरह ने सम्भाल लिया।  "अरे,अरे भईया सम्भाल कर। ज़रा आराम से" मैने कहा,तो मल्लाह बोला-"बहनजी राख ही तो है!"

मेरा दिल मानों थम सा गया। आँसूं निकल आए ।

"भईया, वो मेरे पापा हैं ।"

©मधुमिता  

Monday 26 September 2016

सपनों से मिल आया जाये....



चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


थोङा उन संग हंसा जाये,
ज़रा सा रो लिया जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


थोङी सी ठिठोली की जाये,
थोङी फिरकी भी ली जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


कुछ अलग से रंग कैनवस पर उतारे जाये,
खूबसूरत सी इक तस्वीर बनाई जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


ढोल, नगाङे, हाथी, घोङे संग जुलूस निकाले जाये,
और चाँदनी अपने संग तारों की बारात ले आये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


फूलों के संग मुस्कुराया जाये,
हिरणों के संग ज़रा कुलांचे मारे जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


अमन और चैन से भी मुलाकात कर आते हैं, 
बंदुकों और हथगोलों को ठेंगा अपना दिखा आते हैं।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।



तितली से हर दुनिया में उङ उङ घूमा जाये,
पंछियों से गिरजे,मंदिर, मस्जिदों पर उतरा जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


अपने सुख दुख के साथी सपने,
जीवन को सुखद बनाते सपने,
रंगीनियाँ ले आते सपने,
आशाओं में विश्वास बनाते सपने,
अमन चैन की आस हैं सपने,
प्रेम, प्यार, उल्लास हैं सपने।


चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।।

©मधुमिता

Saturday 24 September 2016

गर. ..


गर ये धरती ना होती,
तो जीवन ना होता,
जीव जंतु ना होते,
मानव ना होते।


गर हवा ना होती,
तो ये साँसें ना चलती,
बादल ना उङते, 
तपते दिल को ठंडक ना पहुँचती।


गर नीर ना होता,
तो प्यास ना बुझती,
तन और मन की आग झुलसती,
हर जगह बस आग धधकती। 


गर आग ना होती,
तो जिस्म थरथराते,
अहसास बर्फाते,    
रिश्ते खुदबखुद सर्द पङ जाते।


गर मिट्टी ना होती,
तो पेङ, खग पखेरू ना होते,
फूल और पौधे ना होते,
दो गज़ ज़मीन को इंसान तरसते।


गर खुशियाँ ना होतीं, 
तो ग़म भी ना होते,
ना मुस्कान होती, ना आँसू छलकते,
जीवन का मर्म हम कभी ना समझते।


जो सूरज ना होता,
तो कुछ भी ना दिखता,
ठंड मचलता,
अंधियारे कोने में हर कोई ठिठुरता।


जो ये चंदा ना होता
रात को हमको कौन सहलाता?
साथ जो ये तारे भी ना होते,
हम सब तो अंधेरे में गुम गये होते।


जो ये बादल ना होते,
उमङ घुमङ बरसे ना होते,  
तो ठंडी फुहारें ना होतीं,
अहसासों को ना जगाती।


जो ये अहसासें ना होतीं, 
धमनियों में खून को ना दौङाती,  
दिलों में प्यार ना बसाती
तो हम दोनों को कैसे मिलाती।


गर तुम, तुम ना होते,
कोई और ही होते,
और मै, मै ना होती,
कोई और ही होती,
तो हम , हम ना होते
और ना ही ये कायनात होती!!

©मधुमिता

Tuesday 20 September 2016

बेटे की चाह 


नाज़ों से पली थी,
मिश्री की डली थी,
मखमली सी कली थी,
अरमानों से ढली थी।


तितली सी उङती फिरती,
गौरैया सी चहकती,
झरनों सी कलकलाती,  
कोयल सी मीठी गाती।


फूलों से वो रंग चुराती,
मेघों से शीतलता लाती,
ठंडी बयार सी वो चलती,
मन को सबके मोह लेती।


इतराती, बलखाती सी वो, हर दम हवा के घोङे पर सवार, 
दूजे घर जाने को अब कर रहे थे उसे तैयार, 
सबकी मनुहारों के आगे मान गयी वो हार,
ले चले उसे उठाकर डोली में चार कहार।


पति के घर वो खो सी गयी,
हर कोई अजनबी, हर चीज़ नयी,
बस खुद को ही यहाँ थी लायी,
बाकी सब छुट गया था वहीं।


भूल गयी थी इतराना,
नाज़ और नख़रे करना,
हर पल वह चहकना,
खुशियों भरे वह गीत गाना।


फिर वक्त ने खुशियाँ दी दान,
माँ बनने का दिया वरदान, 
नन्ही सी बेटी फूंक गयी उसमें जान,
लग गयी वो करने इस नव जीवन का निर्माण।


घर पर हर कोई था आहत,
बेटे की थी उनको चाहत,
इसी चाह में उसको दिये कई आघात,
दुःख बैठा था हर कोने में, लगाकर घात।


मुस्कुराना भूल गयी थी,
चहचहाना छोङ चुकी थी,
आँखों की चमक खो चुकी थी,
झूठी चाहत में खुद से भी वो हार चुकी थी।   


एक दिन वह मौका आया,
गर्भ में बेटे की सौगात लाया,
पर साथ उसकी खुशियाँ ना लाया,
निष्तेज, निर्बल थी उसकी काया।


प्रसव पीङा ना झेल सकी वो,
बीच में ही साँसें टूट गई जो,
कमरे में दोनों मृत पङे थे,
माँ-बेटा चिर निद्रा में सुप्त पङे थे।


बेटे की चाह खा गयी हंसते गाते जीवन को,
बेदर्द सी चाह लील गयी उसके रंग,मुस्कान और गीतों को,
चार कंधे उठाकर ले चले उसे श्मशान को,
अग्नि के सुपुर्द कर दिया उसको और उसके अरमानों को।


माँ-बाबा की आँखों में आँसू बनकर रली थी,
सबको अकेला छोङ गयी थी,जो सबकी हमजोली थी,
मिश्री की वो जो डली थी,
बङे ही नाज़ों से जो पली थी।।

©मधुमिता

Saturday 17 September 2016

मिट्टी की गुङिया 



कभी कहा तुम चली जाओ,
कभी कहा तुम मत आओ,
कभी पूछा तुम हो कौन?
तो कभी कहा,चुप करो,बैठो मौन।


मा बाबा का घर, मायका,
सास ससुर का, ससुराल,
मेरी दुनिया पर सबका राज,
मै कल भी थी मूक,मूक ही हूँ आज।


ये क्या तुम्हारे घर से आया है? 
इसपर कौन सा हक तुम्हारा है!
पर ये तो बता दो कि मेरा घर कहाँ है,
मै तो मानो अनाथ ही हूँ, इस जहाँ में ।



पति ने कहा तू घर छोङ जा,
मुझपर अपना हक ना जता, 
बेटा बङा होकर निकल गया खुद घर से,
मुझे निकाल फेंका जिगर से।



कभी बनी मै नौकर,
कभी बनाई गई जोकर,
बिस्तर पर मेनका-रंभा बनी, 
कभी ना बन पाई अर्धांगिनी ।



मायके का पराया धन,
ससुराल में खोजती अपनापन,
किसी ने ना कभी था अपनाना, 
हर एक ने मुझको था अलग जाना।


माँ-माँ करते जो छाती से रहता था चिपट,
आज वो बेटा भी दूर गया है छिटक,
माँ की ममता को कुछ यूँ निर्बल करता,
अपनी दुनिया को वो निकल पङा। 



पहले पति से पिटती थी,
अब बेटे से डरती हूँ, 
अपना ही जीवन जीने से,
क्यों मैं पीछे रहती हूँ !



हाङ-मांस सब पिस गये हैं,
पुर्ज़ा पुर्ज़ा घिस गये हैं,  
गिन गिनकर दिन काट रही,
सिसक सिसक कर जी रही।



तन मन से सबने निर्जीव किया,
दिल को मेरे चाक चाक किया,
अरमानों को तार तार किया,  
हर रेशा रेशा अलग कर रख दिया।



क्यों मिट्टी के खिलौने सी किस्मत लिख डाली
ऐ ऊपरवाले! देख हर एक ने दे मारी,
टूटने को मजबूर किया,
हर एक ने चकनाचूर किया।



औरत क्यों बनाई तूने?
बनाई तो, सबको क्यों, यूँ तोङने का हक दिया तूने?
जो मिट्टी की गुङिया ही बनाकर जग को थमा देता,
तो यूँ ज़ार ज़ार,खून के आँसू, ना मेरे दिल का टुकङा टुकङा रोता।।  
©मधुमिता

Tuesday 13 September 2016

आखिरी झलक...




हर आहट पर लगता है
तुम आए हो,
हर साये को भी
अब मै 'तुम' समझती हूँ,
हवा की आवाज़ भी 
अब तुम्हारी साँसों सी लगती हैं।




साँसों की रफ्तार 
भी अब धीमी सी
पङने लगी है,
हर घङी इस धङकते दिल को
तुम्हारे ही मिलने
की आरज़ू है।     




बेजान सी जान 
आस लगाए बैठी है,
अपने अंदर कई अधुरी
प्यास लिए बैठी है,
फिर भी ढीठ सी 
रफ्ता-रफ्ता दिन गिनती जाती है।



आसपास तुम्हारी यादों को
समेटकर रखा है,
कई पोटलियाँ हैं,
लिफ़ाफ़े हैं,
जो आज भी ताज़ा से हैं 
तुम्हारी यादों से महकते हुए।



सर की ओढ़नी मेरी
सरकती रहती है,
बस हाथों का 
स्पर्श तुम्हारे पाने को,
पलकें भी मचलती रहती हैं,
हर पल तुम्हे सहलाने को।



नज़र को  अभी  तक 
इंतजार  है  तुम्हारा ,
दीदार  जो  हो जाए तो 
सुकून आ जाए इन निगाहों को,
थक  गईं   बहुत, अब बस 
तुम्हारी आखिरी झलक पाकर, बंद हो जाएँ नज़रें !!

©मधुमिता

Saturday 10 September 2016

दर्द 



जन्म लेने में दर्द, 
जन्म देने में दर्द, 
मृत्यु में दर्द,
जीने में  दर्द,
कुछ ना पाने का दर्द,
कुछ खोने का दर्द, 
कभी ना भूल सकने का दर्द, 
कभी भूला दिये जाने का दर्द, 
कभी ठोकर पर दर्द,
कभी ठोकर की दर्द,
कभी किसी को अपनाने का दर्द,
कभी ना अपना पाने का दर्द।



कभी ठुकराने का दर्द, 
कभी ठुकराये जाने का दर्द,
कभी प्यार का दर्द, 
कभी तकरार का दर्द,
कभी भूखे होने का दर्द, 
कभी बेघर होने का दर्द,
कभी किसी से रूठने का दर्द,
कभी किसी के रूठने का दर्द,
कभी दग़ा का दर्द,
तो कभी अविश्वास का दर्द,
कभी किसी के पास होकर दूर होने का दर्द,
तो कभी झूठी आस का दर्द।




कभी दूर जाने का दर्द 
तो कभी दूर होने का,
कभी ना मिल पाने का दर्द,
तो कभी विछोह का, 
कभी मात पिता का दर्द, 
तो कभी संतान का,
कभी कुदरत का दिया दर्द, 
तो कभी इंसान का,
कभी साँसें लेने का दर्द, 
तो कभी ना ले पाने का,
कभी जीने का दर्द, 
तो कभी ना जी पाने का।



दर्द बहुत है इस जहाँ
में, वजह बेवजह का,
चाहत और नफरत का,
आदी और अनंत का,
हवाओं में, दिशाओं में,
समय की दशाओं में, 
हर पल, हर निश्वास में, 
हर प्राणी के श्वास में, 
यूँ जिस दर्द को लपेट ले 
तू अपनी मुसकान में, 
जो माने तू सच्चा,
कसम से! वो दर्द भी बला का अच्छा ll

©मधुमिता

Thursday 8 September 2016


एक और बेचारी..



एक और बेचारी
साँसों को तरसती
अजीब सी लाचारी 
लिए, मृत्यु की हो ली,
सुंदर सी,
छरहरी सी काया,
पङी हुई नदी किनारे 
क्यों कोई उसे बचाने ना आया!


अरे कोई उसे उठाओ,
आराम से,
हाँ ज़रा प्यार से,
हौले से उसे पुकारो, 
थोङा सा पुचकारो,  
शायद वो गुस्सा थूक दे,
बेबसी सारी छोङ के,
मुस्कुराती वो उठ जाये!


कपडों में उसके
नदी अभी भी बह रही है, 
खुली हुई पथरीली आँखें 
दर्द भरी कोई कहानी कह रही है,
बंद करो उसके दो नैन,
निर्जीव, पर बेचैन, 
जहाँ भर का दुःख उनसे बह रहा है,
कोई तो उन्हे किसी तरह रोको!


लंबे घने केशों से भी
बूंदों संग उसके 
अंदर का ज़हर रिस रहा है,
सूखे होठों के कोने से
बहता लहु ,
बेजान दिल का दर्द 
बयां करता है,
कोई इस लहु को पोंछो, ग़म को उसके रोको!


कौन है वो?
क्या नाम है उसका?
कहाँ से बहकर आई थी?
कहाँ उसे जाना था?
यहाँ तो हर शख्स उससे 
अनजाना था ,
कहीं तो कोई दर होगा जो उसका होगा,
कोई घर जो उसका अपना होगा!


माँ, बाबा, 
भाई बहन,दादी दादा,
पति, बच्चे, सास ससुर,
कोई हमराज़, कोई हमसफर,
नाते, रिश्ते,
संगी साथी,
सब को छोङ
क्यों लिख डाली इसने दर्द की पांती! 


क्या थोङी वो सहमी होगी?
ज़रा सा डरी होगी?
कदम भी पीछे खींचे होंगे,
फिर, फिर आगे बढ़ी होगी,
या आगे बढ़ी होगी बेझिझक,
पीङित वह बेहिचक,
मौत को गले लगाने को
बह गई वो उतावली! 


अजानी सी,मिट्टी से लथपथ,
अनाम एक देह धरती पर,
ठंडी, मृत, बेजान, 
कठोर, पत्थर, निश्चल,अज्ञान, 
दर्द में लिपटी हुई, आज अग्नि में जल जायेगी,
मौत को गले लगा, शायद छुटकारा पा जायेगी 
यही सोच सब कुछ अपना पीछे छोङ आई,
हर अहसास से अपनी, वह मुँह मोङ आई!


कानाफूसी चल रही,
अटकलें भी लगा रहीं,
क्यों नही वो लङी तकलीफ से?
क्यों हार गयी किस्मत से?
दुःख को उसके समझो अब,
हार कर ही खत्म किया होगा उसने सब,
मत अनाम का नाम खराब करो,
एक नारी को यूँ ना बदनाम करो!

©मधुमिता   
    

Tuesday 6 September 2016

साज़िश 



मेरे चंदा से मिलने
का आज वादा है,
हौले से इतराकर
ज़िद करने का इरादा है। 


ऐसे में ये स्याह बादलों
का जमघट क्यूं ?
गरज गरजकर 
डराना यूँ!


रोज़ गुनगुनाती हवा
का आँधी बन उङना, 
पत्ते, फूलों और कलियों को
अपने संग ले चलना।


ऊपर आसमान से
चंदा का चुप तकना, 
बादलों की ओट में 
फिर जाकर छुप जाना।


टिमटिमाते तारे भी आज 
भूल गये निकलना,
या फिर इन काले दिल बादलों के 
साथ इन्हें है छुप्पन छुपाई खेलना!


उमङ-घुमङ कर बादल दल आते,
पेङ भी हिल डुल मुझे डराते,
हवा ने भी मचाया है शोर,
अंधेरा छाया चहुँ ओर।


क्यों सब दुश्मन बन बैठे,
सब अपने ही में ऐंठे, 
कहीं अपने मिलन को रोकने की ,
ये इन कमबख़्त सितारों और बादलों की,
साथ हवाओं और रूपहले चंदा की भी
मिलीजुली कोई साज़िश तो नही!!

©मधुमिता

Saturday 3 September 2016

ज़िन्दगी. ..




ज़िन्दगी नाम है खुशियों का,
अल्हङ सी मस्तियों का,
नादान सी शैतानियों का,
खूबसूरत सी नादानियों का।



ज़िन्दगी है खट्टे मीठे बचपने का,
स्वाद चोरी के अचार और चटनी का,
ऊँचे मुंडेरों पर चढ़ बर्नियाँ खोलने का,
माँ की आहट सुन,धम्म से नीचे गिर जाने का।



ममता भरी गोद है ज़िन्दगी,
पापा की वो डाँट है ज़िन्दगी, 
भाई की तोतली ज़ुबान है ज़िन्दगी,
दादी की झुकी पीठ का बयान है ज़िन्दगी।



किशोरों की जिज्ञासा है ज़िन्दगी,
जीने की आशा है ज़िन्दगी, 
जवानी का जोश है ज़िन्दगी, 
मुहब्बत मदहोश सी है ज़िन्दगी ।



ज़िन्दगी पर्वत की ऊँचाई है,
सागर की गहराई है,
मौजों की मदमस्त रवानी है,
कभी आंधी, तो कभी तुफान है ।
    


कभी ठंडी सी बयार है ज़िन्दगी,
कभी बरखा की बौछार है ज़िन्दगी, 
कहीं लहलहाती है ज़िन्दगी, 
कहीं बंजर, उजाङ है ज़िन्दगी । 



कभी रुकी हुई,सुस्ताती सी ज़िन्दगी,
कभी बेधङक, बेलगाम भागती सी ज़िन्दगी,
कभी भूखी, प्यासी, तङपती सी ज़िन्दगी,
कभी नंगे बदन,ठिठुरती, काँपती सी ज़िन्दगी ।  



कभी मुस्कराती सी ज़िन्दगी,
कभी रुलाती हुई ज़िन्दगी, 
कभी खेल सी ज़िन्दगी, 
कभी ठोकर मारती ज़िन्दगी । 



ज़िन्दगी कभी नाराज़ नही होती,
ज़िन्दगी दग़ाबाज़ नही होती, 
वो तो नाम  है  हर  खुशी का, 
प्यार और गर्मजोशी का,
बस हम पगले ही, कभी-कभी 
खुशफहमी पाल लेते हैं यूँ ही,
हमारी ज़िन्दगी के उदास होने का,
इस मदमस्त, हसीन ज़िन्दगी के नाराज़ होने का !!!

©मधुमिता

Thursday 1 September 2016

कई सपनें, कुछ साँसें. ... 




कुछ कदम सन्नाटे के,
कुछ यादों के साये,
कई दिन उखङे-उखङे,
कई वीरान सी रातें।



कुछ लफ़्ज़ अनबोले, 
कुछ हर्फ़ अनलिखे, 
कई पुराने से पन्ने,
कई ख़त पुराने।



कुछ अहसास दबे से,
कुछ भावनायें सहमी सी,
कई कल्पनायें रंगीन, 
कई विचार संगीन।



कुछ चमकते से सितारे, 
कुछ मदहोश से नज़ारे, 
कई अंधियारी रातें, 
कई चुभती सी बातें ।   



कुछ पल नीम से,
कुछ साँसें शूल सी ,
कई दिन पहाङ से,
कई पल उजाङ से।



जी रही हूँ एक ज़िन्दगी बोझिल सी ,
ले रही हूँ साँसें मैं उधार की,
तेरी यादों के नश्तर चुभते हैं रात दिन 
कई ताज़ा घाव दे जाते हैं हर दिन।



कई घाव हैं रिसते हुए,
कुछ साँसों को घसीटते हुए
ले जाते मौत की ओर,
तोङ हर बंधन, हर डोर।



कुछ सपनें साँसें लेती,
कई क्षण आवाज़ें देतीं,
एक दिल मेरा लहु से भरा,
हुआ बैठा था कबका तेरा।



कुछ तेरी सूरत की आस थी,
कुछ तेरे मिलने की प्यास थी,
कई बातें जो रह गई थीं बताने को,
कई अहसास जो थे जताने को।



कुछ टूटती साँसें रह गईं अब बस,
कुछ बेरंग से रंग,कुछ नीरस से रस,
कई बेदर्द से दर्द दिल में छुपा ले जाती हूँ, 
कई धुंधले से सपने लिए नैनों में, इन आँखों को मूंद जाती हूँ ।।   

©मधुमिता

Monday 29 August 2016

सुकून 





माँ की गोद में क्या सुकून था!
ना घबराहट, 
ना कोई तङप, 
बस इत्मीनान की नींद, 
नही जहाँ कोई डर
और ना ही कोई फिकर।



माँ की गोद से उतरे
तो स्कूल की फिक्र,
मास्टर जी डाँट
और पिताजी की फटकार,
नम्बरों की चिंता 
प्रशंसा के साथ निंदा,
सब मिलकर एक अजीब सा गुब़ार,
सोचों का विशाल अंबार।



फिर  आगे की शिक्षा,
परीक्षा ही परीक्षा, 
ना भूख, ना प्यास,
बस आगे निकलने की होङ
ऊँचे उङने की आस,
ना चैन की नींद, 
ना इत्मीनान की साँसें, 
हर घङी हम बस बदहवास से भागे।



फिर आया रोज़ी 
रोटी का खेला,
दुनिया का अजब झमेला,
धक्कम-धक्का 
ठेलम - ठेल,
हाथ आये बस
आटा, दाल,
साबुन, तेल ।



साथ ही आ गयी साथी की सवारी,
लो दौङ पङी गृहस्थी की गाङी,   
साङी, कपङा, बच्चे, 
स्कूल, फीस, हस्पताल,
शादी, राशन, इत्यादि, 
कभी मृत्यु तो 
कभी जंचगी की तैयारी,
सुकून तो मानो फिसल गई थी,ज़िन्दगी से सारी।




अधेङावस्था थी और गजब,
बच्चे बङे हो गये थे अब,
अब उनके स्थायित्व की चिंता थी भारी,
फिर उनके रोजगार की चिंता 
शादी और बच्चों की बारी,
चैन कहीं खो गया था,
इत्मीनान भी गुम गया था,
वो माँ की गोद का सुकूं, अब कहाँ था।



समय अब मिट्टी में मिलने का है,
मिट्टी माँ सी समझाती है,
कि ग़म ना करो ऐ इंसां!
मिट्टी में वो सुकुन तो पा लेते हो,
जिस सुकून को तलाशते 
पूरी उम्र गुज़ार जाते हो ।।

©मधुमिता

Thursday 25 August 2016

सुकून तुझको मिल जाये 



देखती हूँ तुझको करवटें बदलते हुए,
खुली आँखों को तेरी नींद को तङपते हुए,
रातों को सुबह में बदलते हुए,
साँसों को तेरी उलझते हुए ।


देखा है तुझे इधर-उधर, भटकते, 
अनजानी राहों पर बस यूँ ही चलते,
अपने ख्यालों में इस कदर खोते
कि पहचानी गलियाँ भी भूलते।


कहाँ खो गई ना जाने तेरी मुस्कान!
चेहरे पर झलकती जीवन भर की थकान,
माथे पर अनगिनत शिकन,
मानों दिल से अलग हो गयी हो धङकन।


हर पल मचलता वो दिल कहाँ है? 
हर कुछ कर जाने को वो जोश कहाँ है?
ढूढ़ कर ले आऊँ तुझे, तू बता कहाँ है
तू? मुझे बता दे, खुद को छोङ आया कहाँ है?


तेरी हँसी बिना ये जीवन वीरान है,
ढूढ़ रही हर घङी तेरी मुस्कान है,
तू मेरा गौरव और मान है,
तू खुद ही तो खुद की शान है।


कहाँ खो गयी ज़िन्दगी तेरी,
क्यों उलझ कर रह गयी तकदीर तेरी?
क्यों खुशियों ने तुझसे नज़रें फेरी?
काश मै बन पाती दवा तेरी!


कैसी ये तङप और घबराहट है?
हर वक्त क्यों छटपटाहट है!
कौन सा वो डर है जो डरा रहा है!
क्यों यूँ तू अंदर ही अंदर तिलमिला रहा है?


रुक जा ज़रा दो घङी ढंग से साँस तो ले,
खून को बदन में दौङ जाने तो दे,
होंठों पर एक मुस्कान खेलने तो दे,
आँखें बंद कर, नींद को आँखों में उमङ  आने को दे।


बस अब! कोई तकलीफ ना तुझ तक आये,
तुझपर ना ज़रा भी आँच आये,
काश कुछ ऐसा हो जाये,
कि सुकून तुझको मिल जाये....

© मधुमिता

Monday 22 August 2016

बाॅस की बीवी 


जया और निम्मी मुझे बाहर तक छोङने आई थीं । गला रुंधा जा रहा था, एक अजीब से दर्द से मानों घुट रहा था। आँखें छलछला रही थीं। "मैम आप आओगे ना कल" निम्मी पूछ रही थी।जया मेरा हाथ पकङ कर कह रही थी," प्लीज़ आ जाना।तुम नही रहोगी तो मै अकेली हो जाऊँगी"। मेरे पास कोई जवाब ना था। लिफ्ट आई और मै जल्दी से अंदर घुस गयी। जया और  निम्मी हाथ हिलाकर कर बाय कर रही थीं और लिफ्ट के दरवाज़े बंद हो गये। लिफ्ट धङधङाती नीचे चल दी।

खुद को अकेला पाकर आँखें भी बरस गयीं । हथेली  के दोनों तरफ  से आँख और नाक से निकल पङी धाराओं को पोंछने लगी। लिफ्ट जल्दी ही, हवा के वेग सी, नीचे पहुँच गयी और मै बाहर।

जया और निम्मी मेरी सहकर्मी थीं ,मेरे पति अतुल और उनके पार्टनर श्यामल की कम्पनी में। वही कम्पनी जिसे मैने कुछ नही से, बहुत कुछ बनते हुये देखा था। तब से साथ थी मै जब गिने चुने एमपलाॅईस थें और आज इतना बङा ताम झाम,सैंकड़ों लोग काम करते  हुए । तब जब खुद पानी भरकर पीते हुये भी मुझे कभी दिक्कत नही हुई और ना ही सहयोगियों के लिए चाय-पानी का सामान खरीदकर लाते हुए कोई शर्मिंदगी महसूस हुई।

कभी डिजाइनिंग करवाना,कभी प्रोडक्ट स्टोरीज़ लिखना, कभी डिसपैचेस का रिकॉर्ड तो कभी सेल्स फिगर्स का हिसाब । लोगों को इंटरव्यू करना, नये लोगों को काम सिखाना....यहाँ तक की बोतलें, डब्बे गिनवाना, प्रिन्टस चेक करना, प्रूफ़ रीड करना, सब कुछ तो करती थी।

उसके ऊपर से अतुल की झल्लाहट सहना, उनके गुस्से का शिकार होना। कोई काम नही होता था समय पर तो सारा गुस्सा मुझपर उतरता। किसी बाहर वाले की गलती की सज़ा भी मुझे ही भुगतनी पङती कितनी बारी। कई बार तो सहयोगियों को बचाने की खातिर खुद सामने होकर अपने आप ही झेल लेती थी उनका गुस्सा । मेरी खुशमिजाज़ी की वजह से सहयोगी भी खुश रहते और काम भी खुशी से करतें,फिर भले ही कितनी ही देर हो जाती । सब कुछ अच्छा चल रहा था ।

फिर धीरे-धीरे काम बढ़ने लगा, ज़्यादा लोग जुङने लगे और बढ़ने लगीं कोई लोगों की असुरक्षा की भावनाएँ । कल तक जो सारे काम मै कर रही थी, दस लोगों का काम कर रही थी ,मेहनत कर रही थी, तब किसी को भी कोई परेशानी नहीं होती थी, लेकिन अब कुछ लोगों को आपत्ति होने लगी थी । मेरा कुछ भी बोलना या कहना उनके अधिकारों का हनन नज़र आने लगा । एक सहकर्मी से मै अब ' बाॅस की बीवी ' बन गई थी ।

हद तो तब हो गई जब एक दिन मुझे अंदर बुलाया गया- अंदर श्यामल और अतुल दोनों ही थे । फिर  एकदम से श्यामल शुरू हो गये - आपको ये करने की क्या ज़रूरत है, वो करने की क्या ज़रूरत है. . और अंत में मुझे तरीके से मेरी हदें और अधिकार बता दिये गये । मुझे एक शब्द भी बोलने नही दिया गया । मै अतुल की तरफ देख रही थी । मगर उन्होंने चुप्पी साध रखी थी । मेरी तरफ देखा भी नही और ना ही कुछ भी बोलें -ना ही बाॅस की तरह, ना ही सहकर्मी की तरह । मै चुपचाप उठी और बाहर आ गई ।

भोजन का समय था । सब लंच करने गये थे । कुछ ही लोग थे बाहर । मैने अपना लैपटॉप बंद किया, अपना पर्स संभाला, सारे दराजों को बंद कर चाभी निम्मी को पकङाकर कहा कि अंदर बता देना मै घर चली गई । शायद मेरी नज़रों ने बहुत कुछ बयान कर दिया था इसलिये निम्मी और जया परेशान हो उठी थीं और मेरे पीछे-पीछे आ गईं थीं ।

मै चलती ही जा रही थी और खुद से पूछ रही थी - " क्या ये कम्पनी मेरी नही थी? क्या इसको बनाने में मेरा कोई योगदान नहीं है?"
"क्या उनकी असुरक्षा की भावना उनको डरा  रही थी? या फिर मेरी मशहूरी, मेरी सफलता, काम करने का तरीका और लोगों के बीच मेरी ख्याति ने उनको हिला कर रख दिया था? "

और अतुल वो तो कुछ भी नहीं बोले थें मेरी तरफ से -ना बाॅस की तरह, ना ही किसी सहकर्मी की तरह । उनका व्यवहार तो बिल्कुल ही असहनीय था ।क्या वे भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं या फिर इसलिए कुछ नही बोलें क्योंकि मै उनकी पत्नी थी!

अचानक मेरी तंद्रा टूटी । मेरी बिल्डिंग के गार्ड भैया मुझे आया हुआ कुरियर देने को आवाज़ लगा रहे थे । मैने अचकचाकर उनसे कुरियर लिया और धन्यवाद कहा ।

पता नही कब और कैसे चलते-चलते मै अपनी बिल्डिंग तक आ गई थी । पसीने से तर बतर । गला भी सूख रहा था । आँखें छलछला रही थीं । तभी सामने दो मार्ग नज़र आये - एक जो अतुल और श्यामल की ओर जाता था और दूसरा जो पता नही कहाँ ले जाने वाला था।

तभी मैने अपने लिए दूसरा रास्ता चुन लिया ।

मंज़ूर था मुझे नयी राह पर अकेले चलना, नही मंज़ूर था मुझे ' बस ' " बाॅस की बीवी" बनना ।

ऐक्सेस कार्ड से गेट खोला मैने । सामने लिफ्ट खङी थी । आत्मविश्वास से भरे कदम मैने अंदर रखे, नंबर दबाया । लिफ्ट धङधङाती हुई ऊपर चल दी।

© मधुमिता 

Sunday 21 August 2016

अंगारे




स्याह अंधेरी रात में 
दीये की लौ का साथ,
कंपकंपाती सी जाङे
के अंधियारे को 
थोङा रौशन कर जाती है,
बंधा जाती है आस
एक अधूरे से वादे
के पूरा होने का।


इन तन्हाइयों में,
खामोशी भी एक
अनोखा संगीत सुनाती है,
लौ की फङफङाहट
कोई वाद्य यंत्र 
बजाती है,
दूर कहीं,  झींगुरों 
ने भी रागिनी छेङी है।


बारिश की बूंदों ने भी
खिङकी से लिपट-लिपट,
मेरी तंद्रा तोङी है,
मेघराज भी गरज -गरज कर
बारबार हैं  डरा जाते ,
उनसे लिपटने की चाहत में,
उनके ना होने का अहसास, 
बेदर्द से, करा जाते हैं ।


सर्द, बेरंग सा कमरा
है, और कुछ धुंधली
सी मटमैली यादें,
गरमाईश देने की
कोशिश करती
एक बेचारी रज़ाई, 
जिसमें सिमट कर भी सिहर उठती हूँ,
जब उनकी यादें नसों में दौङ जायें।


नींद खङी है दरवाज़े पर,
आँखें रस्ता रोके खङीं हैं,
कई रंगीन सपनों की 
जागीर है आँखें, 
कैसे किसी और को 
सौंपें खुद को!
सबके बीच मै बैठी हूँ 
एक धङकता दिल,बेहाल लिए। 
  

वो कोसों दूर हैं
पर लिपटे मेरे तन से हैं,
मन मेरा ये घर है उनका,
साँसों को भी नाम उनके किये,
इस बेरंग सी रात को
उनका ही नाम रंगीन कर जाता है,
उनके मुहब्बत का ही रंग है
लाल से तङपते दिल में।


लाल सी ही जल रही
लकड़ियाँ एक कोने में,
मेरी तरह ही ये भी जल रही,
चुपचाप इस वीरान सी
गुमसुम सी रात में,
अकेले में, कसमसाकर,
भागती धङकनों को थामकर,
इंतज़ार करती आँखें फाङे हुये मै। 



कुछ गुलाबी से अरमान 
कुलांचे मार रहे हैं,
उनसे मिलने को 
हुये जा रहे बावरे,
दिल भी अनर्गल बोले जा रहा
धङक-धङक कर आवारा सा, 
कुछ जज़्बात भी हैं, जो सुलग रहे हैं 
इन सुर्ख अंगारों की मानिंद....

©मधुमिता

Thursday 18 August 2016

ओ हरजाई 



तू कहाँ छुप गया है,
ना कोई खबर ना पता है,
ज़िन्दगी भी वहीं ठहर गई ,
मेरी दुनिया भी तभी सिमटकर रह गई,
लफ़्ज़ ठिठुर रहे हैं,
अहसास सर्द पङे हैं, 
जज़्बातों में जमी है बर्फ की चादर,
चाहत की आग सुलग रही पर दिल के अंदर।


अधर अभी भी तपते हैं,
तेरे अधरों को महसूस करते हैं,
आँखों में आ जाती नमी है,
सब कुछ तो है मगर,एक तेरी कमी है,
नज़रों को तेरे साये का नज़र आना भी बहुत है,
तू जो दिख जाये तो 'उसकी' रहमत है,
तेरे सीने में छुप जाने को जी चाहता है,
तुझे अंग लगाने को दिल करता है।


तेरे सुदृढ़ से बाहुपाश, 
घेरकर मुझको आसपास,
मुझे अपने में समा लेना तेरा,
तेरी धङकनों में समा जाना मेरा
और मेरी साँसों का,
एक जुगलबन्दी मानों धङकनों और श्वासों का,
एक अदृश्य धागे से बंधे थे हम,
जिसे चटकाकर,तोङ गये एक दिन तुम।


आज भी उसी दुनिया में रहती  हूँ,
तेरी साँसों को ही जीती हूँ,
धङकनों में बसी हैं धङकनें तुम्हारी,
तन-मन में महकती बस खुश्बू तुम्हारी
जो महका सी जाती है यादों को,
ज़रा बहका भी जाती मेरे दिल को,
हर पल तेरी यादों को है समर्पित,
खुद को तो तुझे कभी का कर दिया अर्पित।




 अब ये दिल मेरा मानता ही नही,
मेरी अब सुनना ये चाहता भी नही,
कब तक इसे मनाऊँगी, 
झूठे दिलासों से बहलाऊँगी,
मुझसे तो ये रूठकर है बैठा,
हर पल तेरा नाम है रटता, 
किसी दिन तुझे ढूढ़ने निकल ना जाये,
वापस फिर मेरे हाथ ना आये। 

  

मेरी नसों में बहते रुधिर 
की हर बूंद है अधिर, 
समाकर तेरा नाम अपने मे,  
जो गूंज उठती हर स्पन्दन में,
अब तो आँखें भी तेरी तस्वीर दिखाती है,
पलकें किसी तरह तुझे अपने में छुपाती हैं,
जो दुनिया ने देख सुन लिया नाम तेरा,तो होगी रुसवाई,
आजा अब तो साँसें तेरे लिए ही अटकी हैं,ओ हरजाई ।। 

©मधुमिता

Tuesday 16 August 2016

प्यार के निशान 




ये मखमली सा गुलाब का फूल,
नाज़ुक सा,अपने अंदर
मोती को छुपाये,
स्वर्णिम सी आभा लिये
इतराते हुये,
क्या इसे पता है कि इसका 
मखमल तुमसे ही है?
सारी नज़ाकत तुम्हारी,
गुलाबी से आवरण में 
तुम मेरे अंदर समाई हुई,
रेशमी,झीनी चादर 
में मेरे दिल को समेटे हुये,
अपने स्पन्दनों से
मेरे हृदय को रोज़ धङकाती तुम। 



ये हरे-हरे पत्ते,
चमचमाते, झिलमिलाते 
से,सूरज की किरणों तले,
क्या इन्हे पता है
कि तुम भी इनकी तरह,
हरी-भरी सी,चमकती सी,
मेरे दिल के अंदर नर्तन 
करती हो,गुनगुनाती हो?
लहलहाती हो हरे धान सी,
मेरे अंतर्मन में हरियाली करती,
खोजती मुझको,
मेरे ही छाती के अंदर,
अंदर तक अपनी जङें फैलाकर,
कोने-कोने,टटोलती तुम।


प्यार ही प्यार बिखरा है चारों ओर,
गाती हुई खामोशी पसरी है हर ओर,
बसंत ने अपने रंग बिखेर दिये हैं 
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिये,
तितलियाँ रंग लिये मंडरा रही हैं,
रंगने तुम्हारे हसीन सपने,
सपने जो अंतहीन हैं, 
बिल्कुल हमारे प्रेम की तरह,
अनंत और हर पल जीवंत, 
इस नीले आसमान 
और रंगीन ज़मीन 
पर हर तरफ है हमारा नाम,
हमारे प्यार से ढका हुआ है
ये धरती और आकाश ।


एक दूसरे की बाँहों में, 
प्रेम आलिंगन में बद्ध हम,
तुम्हारा चेहरा मेरे सीने मेें 
छुपा हुआ,
मेरी बाहें तुम्हे समेटे हुए,
इस रेतीली,सुनहरी सी 
धरती पर लेट ,
मौसमों का आना-जाना 
देखते,इंतज़ार करना,
हर पल,हर क्षण के
बदलने का, कब फूल खिलेंगे
या पत्ते झङेंगे शाखों और लताओं से,
सर्द सी अलसाई दुपहरी में 
पतझङ को खेल करते देखा करते हम और तुम।  


खामोश सा मंज़र,
खामोश खङे दरख़्त,
खामोशी से लिपटी लतायें,
खामोश समन्दर,
चरचराती, फरफराती लपटों 
के साथ लहलहाती लाल आग, 
चटकती लकड़ियाँ,उनमें से 
निकलता,गहरा खामोश धुआँ,
सर्र-सर्र सरकती हवा
टकरा जाती खिङकी के शीशों से, 
भरभराकर खामोशी को चीरती 
हुई बर्फीली आवाज़ ,
अपने प्यार की धुन में बेसुध
खामोश बैठे हम। 
  

हमें यहीं बने रहना है,
क्योंकि ये हवा,ये मौसम,
पतझङ और बसंत, 
सब हमें यहीं ढूढ़ेगे,
आवाज़ लगायेंगे हमें,
पुकारेंगे हमारा नाम लेकर,
यही हमारा पता है,
हर पत्ते,हर फूल पे लिखा है
नाम मेरा और तुम्हारा, 
ये ज़मीं,आसमां,
जङें,पेङ,हवा,
आग,धङकन,स्पन्दन,
सब साक्ष्य हैं 
मेरे ,तुम्हारे प्यार के।


यही हमारा नीङ है,
हर ओर लहरों की भीङ है,
हर पतझङ के पत्ते पर नाम हमारा है,
हर हवा के झोंके में स्वर हमारा है,
बसंत का राग हम ही हैं, 
सुर्ख़ गर्म आग भी हम हैं,    
मेरे सीने में घर बनाये हुए तुम,
मै तुम्हारे सीने की गरमाईश में गुम,
मखमली तुम्हारे हाथों को थामे
समय की राह पर चलते,
तुम्हारे संग गाते,गुनगुनाते,
फूल सी तुमको बाँहों में उठाकर,
हम दो,शांत आग को दिल में बसाते,
अजेय प्यार के निशान बनाते।।

©मधुमिता

Saturday 13 August 2016

उङान....



छोटी-छोटी हथेलियाँ, छोटी सी उँगलियाँ, बंद मुट्ठी, उसमें मेरी उँगली। गुलाबी सा छोटा सा बदन, बङी-बङी आँखें और तीखी सी नाक, पापा और दादी जैसी। ऐसे थे मेरे नन्हे -मुन्ने।बस एक के बाल थे लम्बे और काले और छोटे के सुनहरे और घुंघराले। बङा सनी और छोटा जोई।मेरे जिगर के टुकङे।

उनका रोना, सोना, उठना,खाना,पीना,मुस्कुराना सब एक चलचित्र की तरह आज आँखों के सामने से गुज़र गया।उनका पहला शब्द, पहला कदम, पहली बार गिरना, खूद अपने हाथों से खाना खाना,ज़िद करना कुछ भी तो नही भूली मैं।आज भी सब याद है। मानों वक्त अभी भी वहीं है और मै अपने बच्चों में मग्न।
उन दिनों पतिदेव काम में ज्यादा मसरूफ रहते थें । घर की,बाहर की, काम की, सासू माँ की और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी बस हमी पर।दो नटखट , बातूनी बच्चे जिनके पास दुनिया भर के तमाम सवाल होते और एक मै जो कभी हाँ-हूँ  कर और कभी पूरी तल्लीनता से जवाब देती हुई।ऐसे वक्त में फुल्लो ने मेरा बहुत साथ दिया । जी हाँ फुल्लो,घर के कामकाज में मेरा हाथ बंटाती, बच्चों का ध्यान रखती,उनकी सहेली, मेरे बच्चों की फुल्लो बुआ।बहुत ध्यान रखा उसने मेरे बच्चों का।खेलती,खाना खिलाती,बाल काढ़ती और बहुत कुछ ।

पूरा दिन काम के बाद थक जाती थी,पर इन बच्चों की बातें, नित नयी कारस्तानियाँ, हंसी सब थकान मिटा देती। पता ही नही चला कब एक-एक करके दोनों के स्कूल जाने की बारी आ गयी। होमवर्क, असाइनमेंट, खेलकूद, संगीत, नाटक इन सब चीजों के साथ जीवन कटने लगा। भागा दौङी थी, पर थी मज़ेदार। हर एक लम्हे,हर काम का लुत्फ उठाया मैने...फिर चाहे वो सुबह ज़बरदस्ती नींद से उठाना हो, काॅम्पिटीशन की तैयारियां हों या पी.टी.एम. में जाकर टीचर से शैतानी के किस्से सुनने।  

दोनों की अपनी अपनी खासियतें और खामियां थीं, उसके बावजूद पढ़ने में अच्छे, एक्स्ट्रा करिक्यूलर ऐक्टिविटी में भी बेहतर। सबसे बङी बात लोगों का दर्द समझने वाले। मैंने बहुत कम छोटे बच्चों को ऐसा करते पाया है।
दिन और रात पलक झपकाने के साथ ही मानों बीतने लगे। हम दोनों चाहते थे कि हमारे बच्चे खूब ऊँची ऊङान भरें। अच्छे इंसान बने। हम दोनों उनके पंख सशक्त करने में लग गये। मालूम ही ना पङा कब बच्चे किशोरावस्था को लांघकर जवानी की दहलीज़ पर खङे हो गये।

आज उनके पंख फङफङा रहे हैं । उङने को तैयार हैं ।ना जाने कब मेरा घोंसला छोङ ऊँची उङान भर लें ।आज दोनों अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गयें हैं । आजकी प्रतिस्पर्धा की होङ में वे भी जुट गए हैं ।मै रह गई हूँ अकेली. ...कभी उनके पलंग पर लेट कर उनको अपने आसपास महसूस करती हूँ, कुछ वैसे ही जैसे बचपन में मुझसे लिपट कर दोनों लेटते थें और कहानियाँ सुनते-सुनाते सो जाते थे। कभी उनके पुराने खिलौनों में उनका बचपन ढूढ़ती हूँ ,तो कभी उनके पुराने छोटे-छोटे कपङों में उन्हें तलाशती हूँ ।कहानियों की पुरानी किताबों में उनके हाथों से लिखे शब्दों में उनके नर्म   हाथों को महसूस करती हूँ ।

थक कर जब दोनों चूर हो जाते हैं तो,अपनी गोदी में छुपा लेने को दिल करता है ।दोनों अपनी मंजिलों को पा लेने की जब बातें करते हैं, तब माँ का दिल मेरा कहता है-"बच्चों ज़रा धीरे -धीरे चलो", पर मूक मुस्कान से उनके जज़्बे को निहारती रह जाती हूँ । 

विह्वल हैं दोनों अपनी उङान भरने को,दूर आसमानों में कहीं अपनी मंज़िल पाने को। रोकना चाहती हूँ, माँ हूँ....कैसे जी पाऊँगी इन्हें अपने आसपास फुदकते हुए, खिलखिलाते हुए देखे बगैर ।पर ये तो उनमुक्त पंछी हैं, इन्हें पंख भी हमने दिये, पंखों को सशक्त किये,उङना भी सिखाया। फिर आज मन क्यों अधीर है? यही तो जग की रीत है शायद ।
जाओ मेरे बच्चों, भरो अपनी उङान, करलो मंज़िल को फतह।।

©मधुमिता

Tuesday 9 August 2016

बरखा रानी


घिर-घिर आये मेघा लरज-लरज, 
घरङ-घरङ खूब गरज-गरज,
प्रेम की मानो करते अरज,
धरती से मिलने की है अद्भुत गरज।


रेशम सी धार चमकीली,
नाचती थिरकती अलबेली
सी,करती धरती से अठखेली, 
मानो बचपन की हमजोली ।


बूंदों के मोती,
हर पत्ते पर गिरती,
आगे पीछे हिलती डुलती,
फिर उनपर चिपक कर बैठी।


किया है स्नान आज फूलों ने,
खिल-खिल गयीं आज बूंदों से,
रेशम सी पंखुङी में
बंद कर कुछ मोती क्षण में ।


मीठी-मीठी बरखा की फ़ुहार, 
शीतल करती बूंदों की बौछार, 
पिऊ-पिऊ पपीहा करे पुकार, 
दूर गगन में गूंजे मेघ-मल्हार ।


प्यासी धरती की प्यास बुझाती, 
उसकी तङप मिटाती, 
नदियों में अमृत भर जाती,
निर्मलता चारों ओर फैलाती।


मुझको को भी नहला ये जाती,
हौले से बूंदें मुझे पुचकारती, 
बार-बार यूँ मुझे छेङ-छेङ जाती,
पिया मिलन की आस जगाती।


तन को दे जाती शीतलता,
पर सजन की याद में जिया है जलता,
पल-पल उसको याद है करता,
बादलों की गरज की तर्ज़ पर ये दिल है धङकता।


बरखा रानी क्यों बैरन तुम बन जाती?
मेरे दिल की जलन क्यों तुम ना मिटाती?
जब तुम धरती से मिलने आती 
क्यों मेरे पिया को भी ना साथ मे लाती?


फिर हम सब मिलकर मुस्काते,
मिलकर ही भीगते भीगाते, 
पानी की ठंडी धार ओढ़ते, 
बूंदों को हथेली में जोङते।


अबके जब तुम फिर से आओ,
घने,स्याह बादल भी लाओ,
सबकी जब तुम प्यास बुझाओ,
मेरी एक अरज सुनती जाओ,
मेरे प्रेम की पांति ले जाओ,
पिया को मेरे साथ लिवा लाओ।


नही तो अकेली मै तङपती रह जाऊँगी,
प्रेम-अग्नि में झुलस जाऊँगी, 
पिया-पिया करती रो पङूँगी,
बूंदों में तुम्हारी एक सार हो जाऊँगी।


मेरे अंत का लगेगा लांछन तुमपर,
चाहे तुम बरसो इधर उधर,
मेरी प्यास जो बुझाओ अगर,
तो मानूँ तुम्हे सहेली जीवनभर।। 
  

©मधुमिता