ना जाने कब
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वक्त गुज़रता रहा
मन मचलता रहा
सपने बुनने लगी मैं
ख़ुद में खोने लगी मैं
थोड़ी साँवरी
ज़रा बावरी
बेपरवाह सी
अतरंगी सी
बेधड़क
बेफ़िकर
थोड़ी नाज़ुक सी
मेरे माशुक सी
ना जाने कब
मुहब्बत जवाँ हो गयी
रोका किये मगर अब,
नज़रों से बयाँ हो गयी...
©®मधुमिता
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