Sunday 31 December 2017

ऐ 2017, मेरे साथ चलने का शुक्रिया,

मेरा हाथ पकड़ साथ देने का शुक्रिया,

छूटने वाला है साथ मगर,

बस थोड़ी ही रह गयी है डगर,

365 दिनों तलक साथ निभाने का शुक्रिया!

©®मधुमिता

Saturday 30 December 2017

जज़्बात...




कोहरे की चादर के पीछे छिपा ये अलसाया सूरज

और रज़ाई के अंदर दुबके,अलसाये से तुम,

उठो उठो की मेरी पुकार,

रुको, रुको कहता तुम्हारा इन्कार,

प्याली में ठंडी होती चाय

और बर्फ पड़ रहे मेरे जज़्बात,

दोनों में ज़्यादा फ़र्क तो नही!

हाँ चाय की प्याली ज़रूर दुबारा गर्म हो जाती है

उस धात के चौरस डिब्बे मे 

बिजली की छोटी छोटी चुम्बकनुमा तरंगों से,

और रज़ाई के लिहाफ़ के अंदर छिप जाते हैं 

एक और सुबह का इंतज़ार करते,

मेरे जज़्बात!

©®मधुमिता

Sunday 24 December 2017


शब्दों का स्पन्दन ...



लिखती हूँ पातियाँ कई
कविता करती हूँ हर दिन नई,
शब्दों को बुनती हूँ,
कुछ राग गूंथती हूँ,
गीत गुनगुनाती हूँ,
तुझको बुलाती हूँ,
साँझ- सवेरे,
इन अधरों पर मेरे,
नाम तेरा ही सजा रखा है,
वचनों को कुछ संजो रखा है, 
वादियों में तुझे ढूंढ़ती ,
तेरी खुशबू हवाओं में खोजती,
एक आस है,
निश्चय है, विश्वास है,
कि मेरी खोई सी आवाज़,
ये सुगम शब्दों का साज़,
तुझ तक तो पहुँचेगी कभी,
ज़रूर पा जाएँगीं तुझको कहीं,
खींच लायेगी मेरे शब्दों की डोर
तुमको इक दिन मेरी ओर,
मेरी आवाज़ हो,ना हो सही,
इन शब्दों का स्पन्दन ही सही !

©®मधुमिता

Thursday 14 December 2017

कुछ आँसू 



कुछ आँसू ढुलक गये मुस्कुराते हुये,
एक मुस्कान तैर गयी रोते हुये,
खारी सी हर एक बूंद 
तेरी चटपटी यादोँ संग,
रस रंजित कर गयी 
मेरी सुन्न पड़ी ज़ुबान को,
सुप्त पड़े हृदय को
जगा गयी आमोद से,
सुखद से एक स्पर्श से
आह्लादित कर गयी 
हर रोम-रोम को,
जीवित कर गयी 
हर भाव, अनुराग को,
कर गये सचेतन
एक निर्जीव, निष्प्राण को,
ये कुछ आँसू जो ढुलक गये मुस्कुराते हुये।।

©®मधुमिता

Wednesday 6 December 2017

चंदा रे...


चाहे चमचम चमको,
कितना भी दमको,
मुस्कुरा लो ,
कितना भी इतरा लो,
आज ना मुझ तक पहुँच पाओगे,
देखो रस्सियाँ हैं, फंस कर गिर जाओगे,
चलो जाओ अब ना करो बदमाशी,
करो ना यूँ तुम गुस्ताख़ी,
करो जाकर बादलों संग अठखेली,
सितारों के संग करो आँखमिचौली,
चलो जाओ अब तुम घर अपने,
छोड़ो मेरा आंगन, लेने दो मुझको मीठे सपने ।

©®मधुमिता

आस..




अदृश्य में तुझे तलाशती हूँ ,
तूझे ढूंढ़ने को अंधेरे बुहारती हूँ,
हवा के बोसों मे तेरे लबों की तपिश है,
सितारों के पीछे से झाँकतीं हुई तेरी नज़रे हैं।

पीले पन्नों में ज़ब्त तेरी यादों को सहलाती हूँ,
दिल में बसी तेरी सूरत को निहारती हूँ,
रोम रोम में बसी तेरी ही निशानियाँ हैं,
नसों में दौड़ती तेरे यादों की रानाईयाँ हैं।

निस्तब्ध में तेरे कदमों की आहट सुनती हूँ,
परदों के पीछे की हलचल में तूझे खोजती हूँ,
मेरे अस्तित्व के हर पोर पोर में तू है,
मेरे जीने का मकसद ही तू है।

इन फूलों और पत्तों में भी तुझे पाती हूँ,
नदियों के कलरव के साथ तेरे गीत गुनगुनाती हूँ,
इन नज़रों को बस तेरे छब की प्यास है,
इन साँसों को अब सिर्फ़ तेरे मिलने की आस है।।

©®मधुमिता
 

Friday 1 December 2017

उम्मीद...


सूखे हुये पत्तों 
और इस सन्नाटे में
सुस्ता रही है एक उम्र,
 साथ है मेरी तन्हाई,
ठूंठों को सहलाती
जिला जाती कुछ साँसें,
चंद पन्नों में दर्ज़ 
कुछ मीठे से अल्फाज़
और ख़्वाबों से कुछ
यादगार लम्हात,
चाय के उस प्याले में
अभी तलक नक्श हैं
सुर्ख़ से दो लब,
जो लबों को मेरे छूकर
अहसास करा जाते हैं 
तेरी मौजूदगी का,
तुझे छूकर आती 
एक ताज़ी हवा का झोंका,
उम्मीदों से भर जाती है मुझे
और मेरी तन्हाई को।। 

©®मधुमिता