Friday 25 November 2016

शहर मेरा बदला सा...



बदले बदले हैं मिजाज़ कुछ मेरे शहर के,
कुछ अलग ही है रुआब अब इस चमन के,
जिधर नज़र दौङाओ 
बस इंसान ही इंसान
और उन्हे लेकर भागती गाडियाँ,
चारों ओर बस धूल ही धूल,
ना जाने कहाँ गये वह फूल 
जो यहाँ की खूबसूरती में 
लगाती थी चार चाँद,
अफरा तफरी का माहौल है अब,
भूल गये लोग करना तफ़रीह,
वो भूल भुलैया, शहीद स्मारक,
गंज, अमीनाबाद, गोमती का तट,
अब तो है मेट्रो आने वाली,
लोगों को फर्राटे से पहुँचाने वाली,
अब है माॅलों का रेला,
मोहन मार्केट, गंज वगैरह 
को हर कोई है भूला,
ना मेफेयर ही है, 
ना ही तुलसी,
आनंद भी बन गया है
कुछ और ही,
कुल्फी फालूदा,    
कचौङी और खस्ता,
नेतराम की पूरी,  
हनुमान सेतु पर मंगल को बुंदी,  
सब चीजें 
अब रह गयीं पीछे,
पिज़्ज़ा, बर्गर, 
मोमो और कोला,
तांगे, फटफटी की जगह
उबर और ओला,
डील डौल कुछ अजब निराली है,
पर लोगों के मन अब खाली हैं, 
सूनी सी है मेरे शहर की आत्मा,  
चमचमाती सी, फिर भी अंधेरी,
शोख़ सी, पर ना रही चुलबुली,
ऐ ख़ुदगर्ज़ ज़माने! ये तूने क्या कर डाला,
मेरा लखनऊ तब क्या था,
अब तूने इसे क्या बना डाला!!

©मधुमिता 

Wednesday 16 November 2016

बचपन



मासूम से,
थोड़े नटखट से,
चुलबुले,
सतरंगी से बुलबुले,
किलकारियाँ,
छोटी-छोटी शैतानियाँ,
बदमाशियाँ,
मनमानियाँ,  
डाँट खाकर बेबस सा चेहरा बनाना,
कभी रोना,कभी मुस्कुराना।


परी कथायें, 
वीर गाथाएं,
कभी किंवदंतियाँ,
कभी भूतों की कहानियाँ,
टी-सेट और गुङिया रानी,
हवाई जहाज़ और मोटर गाङी, 
कागज़, पेन्सिल और ढेरों रंग,
खूब सारी किताबों का संग,
खेल, खिलौने, हँसी की किलकारी 
बस यही थी जब दुनिया हमारी।


बचपन के दिन भी क्या खूब थे,
काम ना होते हुये भी हम सब मसरूफ़ थें,
पेङों पर चढ़ना,
चोरी से आम तोङना,   
दुपहर को माँ संग लेटना
और उसकी आँख लगते ही, झट बाहर को दौङना, 
खेल कूद और हल्ला गुल्ला,
बचपन की रौनक से रोशन था मुहल्ला,
टिप्पी टिप्पी टाॅप, स्टापू, छुपन छुपाई
और खो-खो ने जब थी नींदे चुराई।  


आईस्क्रीम और कुल्फी,
दूध,मलाई, लस्सी, 
जलेबी,पकौङे , समोसे,
जब थे मिनटों में चट कर जाते,
ना जलन, ना ऐसीडीटी का चक्कर, 
जब नींद आती थी छककर,
जब पत्थर हजम कर जाते थें,
सारा दिन ना जाने कितनी कितनी दौङ लगाते थे,
ना कोई चिंता ना कोई फ़िकर,    
नाना-नानी, दादा-दादी,के थे लख़्ते जिगर।


ना मारामारी,
ना लाचारी, 
ना लङाई,    
ना मार कुटाई,
ना ही कोई शिकायत, 
ना दिल में कोई नफरत, 
ना भेद किसी जात पात का,
ना कोई धर्म भेद, ना क्षेत्रवाद था,
कितने साफ दिल और नेक थे,
तब हम सब भी तो एक थे।


आज तो हर वक्त मारामारी है,
जीवन एक ज़िम्मेदारी है,
हँसना मुस्कुराना भूल चुके हैं, 
दुनियादारी अब सीख चुके हैं, 
हर ओर बस भागमभाग, 
सीनों में लगी है आग,  
अब कुछ भी ना हमारा है,
हर कुछ तेरा मेरा है,
रिश्तों में कितने भेद हैं अब,
दिलों में भी बस दूरियाँ हैं अब।


हर पल बस झूठी हँसी, झूठे मुस्कान,
बस शेखी और झूठी शान, 
क्यों नही अब हम खिलखिलाते हैं?
क्यों एक दूसरे को नीचा दिखाते हैं? 
किस बात की हाय, तौबा और मारकाट ?
क्यों करते अब झगङे, जंगों की बात?
काश कभी ना बङे होते!
बच्चे बन बस नाचते,कूदते,
सारी दुनिया होती हमारा घर,
हर कोई अपना, ना कोई ग़ैर, ना पर।


एक बार जो फिर से हाथ आ जाये बचपन,
कभी ना छोङे फिर उसका दामन,
तितलियों जैसे उठते फिरेंगे, 
पंछियों से चहकेंगे,   
एक ही रंग और एक ही देश,
ना ही हिंसा, ना कोई द्वेष,
जैसे कोई प्यारा मेहमान,
बचपन एक मीठी मुस्कान, 
ले आती है यादें ढेर,
करवा लाती है सुलझे हुये दिनों की सैर।


चलो समय का पहिया घुमा दें,
फिर से हम बच्चे बन जायें. ...


©मधुमिता

Sunday 13 November 2016

ऐ सूरज...





ऐ सूरज तुम कहाँ छुपे हो!
क्यों नही मुझको अब तुम
पहले से दिखते हो?
क्यों मुरझा रही सूरत तुम्हारी?
क्या हो गयी हमसे
ख़ता कोई भारी? 
ऊँचे-ऊँचे गगनचुम्बी इमारतें,
मानो बादलों के परे खड़े, 
काले स्याह धुआँ उगलती
लम्बी चिमनियाँ, 
मेरे सुनहरे सूरज तुमको 
मानो नज़र का टीका लगाती,
हर बादल पर मंडराती,
फेफङों को काला रंग जाती,
हर ओर धूल धक्कङ,   
सूखी नदियाँ 
सीनों में ढोते 
बजरी और कंकङ, 
मटमैली सी हरीयाली,
धुआँ फैलाती गाडियाँ,
हर साँस को तंग
संकरी गालियाँ,
पाँव धरने को मचलते
मानव,जानवर,पक्षी दल,
जन जीवन अस्त व्यस्त, 
हर कोई त्रस्त 
किसी अनदेखे,
अनजाने ख़ौफ़ से,
गोला, बारूद, 
तोपें, बन्दूक, 
चीख पुकार,
गुस्से का अंबार,
आडम्बर, 
गर्दी और ग़ुबार, 
हर ओर किरण पात,
विकिर्ण, 
क्या तुमको बना गये हैं जीर्ण?
हर तरफ कांक्रीट का बाज़ार,
धरती को करती बेजान,
बेधङक तार तार,
नीचे मोह माया का जाल,
ऊपर तारों का जंजाल,
जिसमें से अब ना ही झांकता चंदा,
ना नज़र आते, टिमटिमटिमाते,
झिलमिलाते सितारों की झालरें!
अपनी ही प्रौद्योगिकी,
पारिभाषिकी के जाल में 
फंस गया है मानव,
धरती, प्रकृति, जीवन
से खेल रहा है मानव,
तुम भी तो फंसे हुये से
आते हो नज़र,
ग़ुबार में लिपटे,
निष्तेज से,
अपनी मुस्कान खो कर,
बताओ ना मुझे
क्या तुमको भी क्रोध है आता,
क्या ये धुआँ -ग़ुबार 
तुमको है भाता!
ऐ सूरज! सच बताओ,
तुम क्या सोचते होगे,
इन तारों के जंजाल के बीच फंसे!!

©मधुमिता

Saturday 5 November 2016

यादों की राख..



एक दिल है 
टूट कर फिर जुङा हुआ,
धङकता हुआ,
खुशियों से मचलता हुआ,
आत्मविश्वास फिर से खङा हुआ,
आँखें नवीन सपनों से दमक रही हैं,
अद्भुत रंगों से चमक रही हैं, 
अम्लान रुधिर धमनियों में 
बहने लगी,
सुर्ख, लाल, गर्म, 
थोङा सख़्त, थोङा नर्म,
नवीन मार्ग की ओर अग्रसर,
जैसे ही मैने तोङ दी
आस की डोर को,
झोंक दिये आग में 
उन निशानियों को
जो अंश थे तुम्हारे झूठे प्यार के, 
फाङ दिये मटमैले 
उन पन्नों को
जिनमें सिमटीं थी यादें तुम्हारी,
वो धुंधली सी ज़िन्दा यादें 
जो आभास करा जाती थी 
हरपल एक धोखे का,
निर्मम से हृदय का,
उन वादों को
जो पल पल तोङ रही थीं मुझे
थोङा - थोङा,
सब कुछ, समझ की अग्नि में 
जला डाले मैने,
खुली आँखों से,
बिना किसी हिचक,
बगैर किसी झिझक,
कुछ भी अब ना रहा, 
ना वो प्यार, 
ना इकरार,
ना प्यास,
ना ही कोई आस,
ना वादे 
और ना ही कोई यादें,
अब बस इतना करम 
कर जाओ, 
यादों की राख रखी है,
ले जाओ
कहीं दूर,
बहा आओ उन्हें..।।

©मधुमिता

Wednesday 2 November 2016

आँसू 




आँसू खुशियों का इज़हार हैं,
मोतियों की बौछार हैं,
पर फिर भी नज़र को धुंधला कर जाते हैं । 


आँसू मुहब्बत की सौगात हैं,
दुःखों का झंझावात हैं,
कभी मोतिया बन उतर आते हैं ।


आँसू भीतर का ग़ुबार हैं, 
रोष की ये धार हैं,
कभी रंग विहीन कर जाते हैं ।


आँसू नाज़ुक से हैं, 
कोमलता से सराबोर हैं,
फिर भी नश्तर से चुभते है।


आँसू ग़म में भी आ जाते हैं, 
दुःख की बरसात ले आते हैं,
कभी उन ग़मों को धो जाते हैं ।


आँसू शिशु की पुकार है,
आँसू माँ का प्यार है,
आँसू दिल से दिल का तार है।


आँसू कभी दिलों को जोङतें,  
तो कभी दिलों को तोङते, 
कभी मर्ज़ की दवा भी आँसू।


बेसाख्ता बरसते,
गालों पर लुढ़कते, ढुलकते,   
उफनते ज्वार से आँसू।


अलग-अलग अहसास लिये,
अलग -अलग जज़्बातों में बहे,
ये नमक की धारायें, ये आँसू ।


आँसू चाहे खुशी के हो
या हो ग़म के...
होते तो नमकीन ही हैं।।

©मधुमिता