Sunday 30 October 2016

आँखें 





मै पहचानती हूँ उन आँखों को, आँखे मीच  

अनंत असंख्य के बीच 

धूल,धक्कड़,गर्दी के बवंडर में 

टीन,टपरे, फूस के घर में

देखती रहती थी बेचारी

अपने बबुआ को दूर खड़ी,

लाचारी थी ,मजबूरी थी

नेह,प्रेम की मगर,कमी नही थी,

जिगर के टुकड़े को अपने,

अपने छिद्रित आँचल से ढकने,

करने सूरज की किरणों से ओट,

बनकर शीतलता का स्रोत,

भूख से बिलखते संतान को

देख भाग आती अशांत हो,

छाती से चिपकाकर,शान्तकर

फिर लगती श्रम को,मन मारकर,

रात गहरी में फूस का अलावन,

फटी हुई साड़ी का झुलावन,

एक हाथ से झुला झुलाती,

दूजे से सपनों की नींव डालती।



फिर उसकी ऊँगली पकड़े

धीरे धीरे बबुआ जी चल पड़े,

बबुआ को बाबू बनाना है,

उसके सपनो की मंजिल तक पहुंचना है,

क ख ग घ,एक दो तीन चार,

बबुआ बने पढ़े लिखे, होशियार,

उसकी आँखें वार फेरती,

अपने बबुआ पे खुश होती,इतराती,

खुद भूखी रहकर

बस पानी ही पीकर,

बबुआ को रोटी खिलाती थी,

अपने को मारकर भी उसके दिल को जिलाती थी।



बबुआ फिर बने बड़े साहब,

बाबू बनकर, उनके बड़े रुआब,

उसकी आँखें ख़ुशी से भींच जाती थी,

आगे आने वाले दिनों को देख ना पाती,

उस अभागन के देखो कैसे फूटे करम,

बबुआ को अब उससे ही आने लगी शर्म,

तो अब बबुआ भये आत्मनिर्भर,

दोनों जैसे दो विचार परस्पर,

फिर आई नववधू,नयी मीत,नयी हितैषी,

झट ले उडी बबुआ को,बने विदेशी,

देखती रही उसकी आँखे निस्सहाय,

बेचारी अबला,निराश्रित,निराश,असहाय।



फिर जा पहुंची धूल-धक्कड़ के मध्य

रोग मगर नैराश्य का,लग गया था असाध्य,

फिर आ पहुंचा था अचानक,वो परदेसी,

मुस्काई वो, झलकी मायूस सी हंसी,

रात वो सोयी,सामने उसका था चेहरा,

सर्द रात कारी,गहराया कोहरा,

सुबह कोहराम मचा ‘मर गयी रे बुढ़िया’! 

चली गयी वो काट सारी ममता,वात्सल्य की बेड़ियाँ,

परदेसी भी ताकने द्वार तक आया,

मृत आँखों ने पहचान लिया था अपना बबुआ,

चिथड़ों में से देख रही थी तब भी अपने बच्चे को,

कफ़न भी ना ओढ़ाया,मुँह फेर चला गया बदनसीब वो।



चली गयी वो मुक्ति के पथ पर

मोक्ष पा गयी थी आत्मा उसकी, आँखों को तृप्तकर,

ना पहचाना माँ को बेटा,कैसी ये विडम्बना

कर बैठा था अपने जन्म,जननी,मातृत्व की उलाहना,

पड़ी हुई थी ममता नीचे अनाथ,शिथिल,निर्जीव,

भर गयी थी रंग बबुआ के जीवन में सुन्दर,सजीव,

जा चली जा दूर,अबोध,तोड़ ये बंधन मोह,स्नेह का,

पथराई इन आँखों में भरकर अक्स उस निर्मोही का,

जिस चेहरे को देख जीती थी आजीवन ये आँखें,

आज यात्रांत पे अनजानी, अनदेखी,एकाकी ये आँखें,

हाँ पहनानती हूँ इन आँखों को,पाषाणमय,निस्तब्ध ये आँखें

उस माँ की आँखें.......।।

©मधुमिता

Saturday 29 October 2016

शुभ दिवाली 




साफ सफाई, 
रंगाई पुताई,
झाङ पोंछ,कटाई छंटाई, 
देखो तो शुभ दिवाली आई।


नये नये कपङे, 
फूलों की झालरें, 
दिये, बधंनवार, खील खिलौने,
धनतेरस पर नये गहने।


भारी भारी से उपहार,
बांटे जा रहे द्वार द्वार,
रेले पे रेला, धक्कम धक्का,
हर ओर ठसके पर ठसका।


भगवान भी अब खरीदे जाते हैं, 
जब जाकर पूजे जाते हैं,
दिये तो अब कम जलते हैं, 
हर ओर बस रंगीन बल्ब चमचमाते हैं ।


हर कोई खुशी का लगाये हुये मुखौटा,
बस महंगाई को ही रोता,
भूल गये सब खुश रहना,
सही में दिवाली मनाना।


छोङो दिखावे का ये खेल,
प्यार से करो दिलों का मेल,
मिलजुलकर सब दीप जलाओ,
एक दूसरे को मिठाई खिलाओ।


चलकर दो दिये उसके घर भी जलाये,
जिसकी वजह से हम रोशनी कर पाये,
सङक किनारे बैठे उन लोगों संग,
बांटो कुछ रंगीन से पल।


दो, छोटे-छोटे से उपहार,
फिर देखो खुशियों के चाँद चार,
चमकती वह आँखें कर दे रोशन,
जगमगा दे सारा जीवन।


उनकी मुस्कान और हंसी,
मानो अनार और फुलझङी,  
मनमोहक सी खुशहाली निराली, 
ऐसे मनाओ अबकी सब शुभ दिवाली ।।

©मधुमिता 

Monday 24 October 2016

बड़े अच्छे लगते हैं....



बड़े अच्छे लगते हैं, ये बारिश ,ये बूंदे,

ये बादल,ये खुशनुमा,मदभरा आलम  और

ये सपनो सा एहसास, आँखे मूंदे मूंदे।



ये गहराते मंडराते बादल,

जैसे श्वेत-श्यामल आँचल,

सनसनाती सी हवा पागल,

छनकती  हुई जैसे पायल।



बड़े अच्छे लगते हैं, ये मौसम, ये धड़कन,

ये खुशबू सोंधी सोंधी और

ये मदमाती, गुनगुनाती पवन।



 ये बौछार, ठंडी ठंडी सी फुहार,

रह रह के मेघों का हुँकार,

मानो करती हों मीठी सी तकरार,

जैसे नया नया सा मासूम प्यार।



 बड़े अच्छे लगते हैं ,ये हिचकना,ये  तड़पना,

ये बिछड़ना,यूँ मिलना और   

 ये तुम्हारी अनछुई सी, हसीं सी, छुवन....।।



-अमित कुमार द्वारा स्वरबद्ध गीत "बड़े अच्छे लगते हैं" व मेरे ससुराल कसौली के खुशनुमा मौसम से उत्प्रेरित मेरी रचना।  

©मधुमिता

Saturday 22 October 2016

अस्तित्व..




आज मैंने अपने जीवन पर मार दिया है काटा,

सारी की सारी खुशियों को इधर उधर दे बांटा,

जन्मों जन्मांतर से मुझको नही है, खुशियों पर अधिकार,

कुछ ज्यादा कहा तो “मेरा कहा”, कहलाया जायेगा अहंकार।



जो ढीठ बनकर कभी मैंने “मै” की ठानी ,

तो अस्तित्व मेरी ही कहला दी जाएगी बेनामी,

सबको खुश रखना और चुप रहना है कर्त्तव्य मेरे,

अपनी खुशियाँ,अपना जीवन ही नही बस,बस में मेरे।


बेटी बनकर, पिता की सुनूँ,

पत्नी बनकर सुनूँ पति की,

बेटे की सुनूँ माँ बनकर,

बस यही मेरा मुकद्दर ।


मूक-बधिर बनकर रह जाऊँ

इसी में सबकी खुशियाँ,

जो खुद अपनी राह खोजकर, डग भरूँ,

तो मै निर्लज्ज कहलाऊँ। 



क्या करूँ और क्या ना करूँ,

 है बड़ी विचित्र सी विडम्बना,

अरे निष्ठुर! मुझे नारी और नारी के अस्तित्व को ही यूँ 

 क्यूँ बनाया? पूछूंगी  ज़रूर उससे जब होगा मिलना,

ऊपरवाले से मुखा-मुख जब होगा मेरा सामना।।

©मधुमिता

Friday 21 October 2016

नयी तस्वीर. ..




रात के आँचल से सितारों की चमकार समेट लो,

कुछ स्याही भी चुरा सको, तो चुरा लो,

कल भोर के पटल पर जो दिन छुपा होगा,

उसे सितारों की सी चमक से चौंधियाना भी तो है

और स्याही को ही तो लिखना है फसाना आगे ।

कई नयी तस्वीरें भी जो हैं बनाने को,

दिन के हर रंग के साथ  सिमटकर,

सारे अहसासों को उन संग घोलकर,

कुछ प्रेम-प्यार के छींटों में रचकर,

लम्हा-लम्हा,मंज़र दर मंज़र....।।


©मधुमिता

Wednesday 19 October 2016

मेरे साथी...



 मेरी चूड़ियों  की खनक,

तेरी सांसों की महक,

मीठी पायल की झंकार,

आया करवा चौथ का पावन त्यौहार।



दिल में मेरे पिया का प्यार,

तुझमे ही पाया सारा संसार,

माथे की बिंदिया बन

यूँ ही चमकते रहो,खिलाओ अंतर्मन।



तुम्ही मेरे गले का हार,

तुमसे ही जीवंत, मेरा स्वर्णिम संसार,

तुम्ही तो हो मेरे ढाल, तलवार,

मेरे रक्षक करवाल।



सुयश,शौर्य और दीर्घायु की कामना

करती हूँ सदा मेरे राँझना,

विश्वास,प्रेम और तेरी बाँहों का हार,

यूँ ही रहे सदा बरक़रार..।



दिल मेरा कभी ना तोङना,

मुँह ना मुझसे मोङना,

मेरा हाथ थामे, मेरे हमदम,

साथ चलते रहो मेरे सनम।



मेरा दिल रब से बस मांगे ये दुआ,

हर वक्त मिले बस तू ही मुझे, मेरे पिया,

है यही, बस यही मेरी रब से प्रार्थना,

हर जन्म में मिले तू मुझको ही मेरे ढोलना,

तो तर जाए मेरे इह लोक,परलोक

इस  जनम और जन्मो जन्मान्तर तक....।।

©मधुमिता

Monday 17 October 2016

मेरे पड़ोस के शर्मा जी


मेरे पड़ोस के शर्मा जी,

ताड़ते रहते बीवी वर्मा की,

जब मिसेस आती चाय लेकर चुपके से,

शक्ल बनाते मासूम सी,

चुस्की के साथ पी जाते अपने अरमान भी...।



ऑफिस में बड़े ही जेंटल जी,

बीवी को बताते ज़रा मेंटल भी,

सुनकर उनकी दुखभरी दास्ताँ

सारी की सारी मेनका,रम्भा सुंदरियाँ  

छिड़कती उनपे अपनी जान..।



एक इस बाजू, दूजी उस बाजू,

एक किशमिश,तो दूजी काजू,

शर्मा जी की दसों घी में,

अरमान हो गए बेकाबू,

सनक से गए, बदहवास,बेलगाम सारे आरज़ू।



अरे शर्मा जी! ज़रा बाज़ आओ,

अपनी हरकतों पे ना यूँ इतराओ,

कहाँ मुह छुपाओगे,प्यार,मुहब्बत ,इश्क क्या यूँ झटकाओगे,

सेक्सुअल हरास्मेंट के बहानों का है ज़माना,

जे मैडम जी बिटर गयीं तो दहेज़,अवहेलना और प्रताड़ना।



चालीस की उम्र क्या पार हुई,

फ़िक्र  तो आपकी बेख़ौफ़ हुई!

अपनी उम्र का कुछ लिहाज़ रखो,

अपनी इज्ज़त है अपने हाथ, उसे याद रखो,

बाहरवाली तो ड्रीम्ज़ की बात है,

शोभा  आपकी घरवाली के ही साथ है...।।

©मधुमिता 

Sunday 16 October 2016

मुक़द्दर..





हाथों की लकीरों में छूपी होती हैं कई दास्ताने,

अश्कों को भी पी जाती हैं कई मुस्कानें,

किसी से मिलना हमारी किस्मत होती है,

मिलकर भूल जाना भी किसी किसी की फितरत होती है।



हर इंसान की ज़रुरत है ग़मों  को भुलाना,

ज़िन्दगी को जीने में, आगे को बढ़ते जाना,

मुश्किल बहुत है लेकिन यादों को दिल से मिटाना,

जिए जा रहे हैं फिर भी, ऐ खुदा!  तेरा शुकराना !



तन्हाई ही है जब हसीं अपना मुक़द्दर,

तो क्या शिकायत, क्या ही शिकवा,और क्या बगावत,

दर्द के बहाव में खुद को बिखरने से रोकना है,

बेदर्द यादों को एक ख़ूबसूरत रंग दे कर छोड़ना है।



अपने ही जब बन जाते है दर्द का सबब,

 है कोई जादू जैसे मगर ये एहसास-ए गज़ब,

ना मुहब्बत, ना जुदाई,ना कोई चाहत,

दे सुकून,गर परेशां तो मानो रूह-ए राहत..।



ना है अपना ,ना तो शुमार बेगानों में,

मिट गए है हम मगर चाहत में उसकी,

लगते बहुत अपने से हैं ,मगर फिर भी बेगाने  से,  

अनजाने से,हाय बेमुरव्वत न बाज़ आयें,हर दम हमे आज़माने से...।।



©मधुमिता

Friday 14 October 2016

जीवन्त ज़िन्दगी





ज़िन्दगी है जीने का इक बहाना,

कभी हँसना तो कभी रुलाना,

कभी मिलना, कभी मिलाना,

कभी छुपना ,कभी खो जाना

और फिर यूँ ही जीते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर चले जाना।



कभी डग भरना, कभी गिर जाना,

कभी गिरके चोट खाना, कभी चोट खाके गिर जाना,  

कभी आँसूं ना रोक पाना,कभी जीभर मुस्कुराना,

कभी संभलना, कभी संभालना,

और फिर यूँ ही संभलते-संभालते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर चले जाना।



कभी बनना, कभी टूटना,

कभी तोडना,कभी सँवारना,

कभी बनाना, कभी उजाड़ना,

कभी पीछे पलटना,कभी आगे को बढ़ जाना,

और यूँ ही आगे-पीछे पग रखते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर,  मरकर चले जाना।



 कभी प्यार लुटाना,कभी नफरत फैलाना,

कभी पुचकारना, कभी लताड़ना,

कभी थामना  , कभी धिक्कारना,

 कभी खुद ही समझ ना पाना,कभी सबको समझाना,

और यूँ ही समझते-समझाते

 इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर चले जाना।



 कभी चलना, कभी यूँ ही रुक जाना,

कभी थमना,कभी बस इन साँसों का चलना जारी रखना,

कभी मिटना- मिटाना,कभी बस यूँ ही खुद को थकाना,

 कभी छिपना-छिपाना,कभी हारना -हराना,

कभी दौड़ना-दौड़ाना,कभी बोझिल क़दमों से लौट आना,

बन गयी देखो अपनी ज़िन्दगानी,बस सिर्फ और सिर्फ एक बहाना;

और कहते हैं हम कि इक दिन सब कुछ छोड़कर, मरकर है चले जाना!



जब इक दिन सब कुछ छोङकर, मरकर है चले जाना,

तो क्यूँ ना छोड़ जाएँ जीवन का नया अफसाना,

प्यार,उद्धार और नवजीवन का दिल से नज़राना,

सुख और दुःख को संग संग पिरोते जाना,

समय के लय से जीवन का लय मिलाते चलना,

कभी खुद टूटकर भी मनकों को सौहार्द की माला में जोड़ जाना

और परेशानियों सम्मुख शैल कभी बन जाना,

हैवानियत,बदनीयती,नफरत की ज्वाला को बिलकुल ख़ाक कर जाना।



इंसान को इंसान से, दिल के रिश्तों से जोड़ना,

मधुर,सुन्दर संगीतमय जीवन की संरचना,

इसी की कोशिश,कल्पना,अनुभूति और संयोजना,

जब दिलों को अमान्विकता से ना पड़े भेदना,

बस कुछ ऐसा करते हुए,चलते चले जाना,

कभी हँसते हुए,कभी कल्लोल,किलकारी और बेख़ौफ़  मुस्कुराते हुए

इक दिन सब कुछ छोड़कर, जीवन को जीवन्त करके

भरपूर जी के,अपने पद चिन्हों को छोड़कर,बस आगे को है चले जाना

बस आगे को है चले जाना.............।।

©मधुमिता

Thursday 13 October 2016

मुहब्बत अभी बाकी हैं ....





रूह मेरी तेरे अहसानों के तले दबी जाती है,

ऐ ज़िन्दगी,फिर भी एक अहसास है जो ना रूकती है

ना थमती है पर बढ़ती ही चली जाती है

दो हाथ बढ़ाती हूँ तेरी जानिब लेकिन,

कोई ज़ंजीर सी ना जाने क्यूँ पैरों को जकङ जाती है....





बसी हुई है मेरे दिल में सूरत जिसकी

वो जिसे मुझसे ना कोई वास्ता,

ना मेरे होने, ना होने से वाबस्ता,

ना रूठना मनाना,ना शिकवा,ना शिकायत

ऐ मुहब्बत,तू कैसी हसीं सी है रिवायत

ना पाने को दिल मचले, ना खोना मंज़ूर

बिन तेरे ज़िन्दगी है बेमायने, पर  जीने को हैं मजबूर।





उनका नाम होंठो पे है,और अपनी जान अभी बाकी हैं,

जो देखकर भी मुंह फेर लेते हैं वो,तो क्या गुस्ताखी है!

 लब उनके मेरा नाम ना लें तो क्या

उनकी  वो हसीं मुस्कान अभी बाकी है,

तसल्ली रखती हूँ ऐ नादाँ दिल क्यूंकि

इस सूरत की पहचान अभी बाकी है,

इस तनहा दिल की रानाईयों में उनकी 

मुहब्बत के सारे निशाँ अभी तलक बाकी हैं ....

©मधुमिता

Monday 10 October 2016

दूरियाँ




बहुत दूर निकल चुके हो तुम,अलग है अब राह तुम्हारी,

अलग दुनिया बसा चुके हो,जहाँ ना मै हूँ ,ना ही मेरी परछाई,

ना आहट है मेरी, ना मेरी हँसी,

ना चूङीयों  की खनक,

ना पायल की झनक, 

सर्द सी आहें हैं,

बर्फ से जज़्बात,

कुछ यादें हैं जाले लगे,

कुछ कतरने अहसासों की, धूल भरे,

ना तो अब साथ है ,ना मिलने की उमँग, ना ख्वाईश,

अब तो परछाईं से भी तुम्हारे परहेज़ है,

ज़िक्र से भी तुम्हारे गुरेज़ है, 

अब तो सिर्फ हिकारत भरी नज़रें है,या खामोश अलफ़ाज़

जो जता जाते हैं, अब हम ना हैं तुम्हारी दुनिया में,ना ही कोई चाह हमारी!

©मधुमिता

हरसिंगार के फूल




उज्जवल  धवल  बादल  दल, 
उषा  का  स्वर्णिम  आँचल  तल,  
श्वेत  मुन्गई   सितारे  से ,
निर्मल ,मोहक  और  न्यारे से,
बिखरे  थे  बादामी  धूल 
पर  कुछ  हरसिंगार  के फूल,
कुछ  मेरे  सपनो के  जैसे,
खुशियाँ  बिखेरतीं  वो   ऐसे, 
छोड़  ना  पायी  सो  बीन  लायी ,
सपनों  को  अपने  बटोर  लायी,
माला  में  पिरोये , मेरे  सपनों  को  संजोये 
ये  हरसिंगार  के  फूल ।।

©मधुमिता

Saturday 8 October 2016

एक बेदर्द तस्वीर 



ज़िन्दगी कुछ उलझती सी रही,
सवाल कुछ सुलझने से लगे मगर,
कुछ असली चेहरे भी नज़र आने लगे,
खूबसूरत से नक़ाब के तले।


कुछ सवाल फिर भी बने रहे
जस के तस,
उठा जाते जाने अनजाने,
एक अजीब सी कसक। 


दिल भी अपना ना रहा,
बङा ही दग़ाबाज़ निकला,    
सांसें कुछ बेजार सी,
कुछ लम्हे प्यार के, वो भी उधार के। 


सच और झूठ का जाल,
अनगिनत, भयावह चाल,
नोचने खसोटने को है तैयार
सब, है कौन यहाँ सच्चा मित्र, यारों का यार।


फूल भी कई चुभते हैं, 
कुछ में भौंरे छुपे बैठे हैं, 
बेवक्त, बेवजह डंक मारने को,
बस यूँ ही दर्द दे जाने को। 


आँखें तरसती रहीं तुम्हारे दीदार को,
दरवाज़े पर लगी रही तुम्हारे इंतज़ार को,
बङी देर लगा दी धडकनों ने मानने मे,
कि तुम अब मेरे नही, भलाई है दूर जाने मे।  


तुम कभी मेरे थे ही नही,
मै पागल ही मान बैठी थी 
तुमको जान मेरी,
गलती तुम्हारी नही, माना मैने, थी मेरी ही।


हर खुशफ़हमी को छोङ दिया,
खुद को तुमसे अलग, लो मान लिया,
मोह के रेशों को तोङ दिया,
जाओ तुम्हे अपनी यादों से आज़ाद किया।    


लो  गलत  फहमी  की  हर दीवार 
अब ढह  गयी, 
सपने झूठे से भी, अब  आंसुओं  में  बह गए,
बन  गयी यूँ देखो मै, खूबसूरत, निर्जीव सी, एक बेदर्द तस्वीर ।।

©मधुमिता

Tuesday 4 October 2016

जय जवान! 



अंधेरी गलियारों में, 
गली मुहल्ले की दीवारों पे,
चिन्ता की लकीरें 
खींची हुई हैं,
ग़म की लहर दौङ रही है,  
तनी हुई है भौहें, 
चौङे सीने धङक रहे हैं, 
मज़बूत बाजू फङक रहे हैं,
लेने को बदला,
हर एक जान की कीमत का,
करने को हिसाब,
मांगने को जवाब 
अपने जांबाज़ों के मौत का,
हर एक खून के कतरे का,
जो बहा है मादरे वतन के लिए
सीने ताने हुए;
सरहद की रक्षा उनकी ज़िम्मेदारी थी,
भारत माता जो उनको प्यारी थी,
कुछ सूरज उगते ही शहीद हो गये,
कुछ रात के अंधेरों में खो गये,
खुद तो मिट गये,
साथ दुश्मन को भी मिटा गये,
देश को मगर ना मिटने दिया,
तिरंगे को ना झुकने दिया।


हर आँख में आँसू हैआज,
हर शहीद देता आवाज़, 
देश की रखो शान,
हमारे खूं का रखो मान,
एक हो जाओ देशवासियों,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाईयों,
दुश्मन को तभी हरा पाओगे,
देश का गौरव बढ़ा पाओगे।


हर ओर से आती है मिलकर एक आवाज़,
अमर है हर शहीद, हर जांबाज़,  
जय हिंद का जवान!
जय भारत! जय हिंदुस्तान!


©मधुमिता  

Sunday 2 October 2016

समय खङा इंतज़ार में....




सूरज की लालिमा 
जब हरती रात की कालिमा,
हरी,सौम्य सी, शालीन
नर्म मखमली दूब की कालीन
पर मेरे पैरों को छूते 
स्निग्ध ओस की बूँदें,
ठंडी, रेशमी हवा की बयार,
उन संग झूमती फूलों की कतार,
लाल,नारंगी,गुलाबी, नीले,
कुछ रंग बिरंगे, कुछ श्वेत और पीले,
पास से आती, लहरों का शोर,
हवा भी चलती उनकी ओर,
ले आतीं कुछ बूँदें अपने परों पर, 
कर जातीं मुझे सराबोर
शुभ्र सी ताज़गी से,
बढ़ जाती मै ज्यों आगे
अपनी मंज़िल की ओर,
जहाँ मचलते सागर का शोर
और अथाह पानी नमकीन,
मेरे पग अपनी धुन में तल्लीन, 
निकल आये रेतीले किनारे पर,
अपने प्रीतम के बुलावे पर,
जहाँ सुनहरी सी रेत पर,
एक रंगीन नगीने से सीप के अंदर,
मोती सा चमकता मेरा प्यार
और एक गीला सा ऐतबार
बैठा था बेसब्री से,
वहीं, जहाँ समय खङा था इंतज़ार मे।।

©मधुमिता

Saturday 1 October 2016

अपनी माँ को तरसती हूँ 



दो रोटी गर्म गर्म फूली हुई सी
आज भी जो मिल जाये 
तो मै दौङी चली आऊँ, 
दो कौर तेरे हाथों से 
खाने को जो अब मिल जाये,
तो मै सब कुछ छोङ आ जाऊँ।


तेरे हाथों की चपत खाने को
अब तरसती हूँ मै, 
तेरी मीठी फटकार खाने को
अब मचलती हूँ मै,
बहुत याद आती हैं हर डाँट तेरी,
वो झूठा गुस्सा शरारतों पर मेरी।


वो हाथ पकङकर लिखवाना,
कान पकङ घर के अंदर लाना,
वो घूमती आँखों के इशारे तेरे,
भ्रकुटियाँ तन जाने तेरे,
मुझको परी बनाकर रखना,
मुझमें खुदको ही खोजना।


मुझे खिलाना और नहलाना, 
पढ़ना और लिखना सिखलाना,  
कलाओं की समझ देना,
अच्छे बुरे का ज्ञात कराना,
मानविक प्रवृतियों  को जगाना,
प्रेम प्यार का पाठ पढ़ाना।


खाना बनाना,
कढ़ाई करना,
स्वेटर बुनना,
बाल बनाना,
पेङ पर चढ़ना, दौङना भागना,
सब कुछ तेरी ही भेंट माँ।


चुन-चुनकर कपङे पहनाना,
रंग बिरंगे रिबन लाना,
गुङियों के ढेर लगाना,
किताबों के अंबार सजाना,
कितनी ही कहानियाँ मुझसे सुनना
और मुझको भी ढेरों सुनाना।


काश बचपन फिर लौट आये,
मेरे पास फिर से मेरी माँ को ले आये,
जिसकी गोद में घन्टों घन्टे, 
पङी रहूँ आँखें मूंदे,
प्रेरणा की तू मूरत मेरी,
क्यों छिन गयी मुझसे माँ गोदी तेरी?


आजीवन अब तुझ बिन रहना है,
फिर भी दिल मचलता है,
भाग कर तेरे पास जाने को,
तुझको गले से लगाने को,
हर पल तुझको याद मैं करती हूँ,
माँ हूँ, पर अपनी माँ को तरसती हूँ ।।   

©मधुमिता