Wednesday 28 September 2016

ये नही है तुम्हारा द्वार! 



क्यों अपना समय यूँ व्यर्थ करती हो,
पदचापों को सुनने की कोशिश करती हो!
बारबार कुंडी खङकाती हो,
अपने हाथों से दरवाज़ा खटखटाती हो।



कभी दरवाज़े पर लगी घंटी को देखती हो,
कभी पवन-झंकार को टटोलती हो,
सब ठीक है या नही,
यही सोच कि अंदर सब कुछ हो सही।



क्या पता कि अंदर अग्नि जल रही हो नरक की,
हाहाकार हो हर तरफ ही,
जो तैयार हो तुम्हे जलाने को,
दुःख देकर तङपाने को।



इसलिए मत रुको यहाँ,
चल पङो ये कदम ले चले जहाँ,
धीमे धीमे आगे बढ़ती जाओ,
मुङकर कभी वापस ना आओ।



शायद कहीं और तुम्हारा दरवाज़ा कर रहा है इंतज़ार,   
सुहानी सी रोशनी लिए, सजाकर नया संसार,
यहाँ नही कोई जीत, है बस हार,
तुमको आगे बढ़ने की दरकार।



उठाओ कदम, बढ़ो आगे,
सर उठा निकलो आगे,
यहाँ रुकना है बेकार,
ये नही तुम्हारा द्वार !!
      

©मधुमिता 
  

Tuesday 27 September 2016

"वो मेरे पापा हैं"




" दीभाई बापी(पापा) की तबीयत बहुत खराब है",छोटे भाई की असहाय सी आवाज़ आई दूसरी तरफ से, जैसे ही भागते हुए फोन उठाया।
"अरे पर क्या हुआ? अभी दो दिन पहले तो बात हुई थी उनसे!" मैंने पूछा,तो उसने रुआँसी सी आवाज़ में कहा,"तू बस आ जा"। एक अंजान आशंका की लकीरें शायद मेरे चेहरे पर दिख गयी थी पतिदेव को। उन्होंने मुझसे फोन लिया और पूछा ऐम्बुलेंस बुलवाई  थी उसने कि नही। शायद ऐम्बुलेंस बुला ली गई थी क्योंकि उन्होंने भाई को कहा," तुम लोग अस्पताल पहुँचो, हम तुरंत पहुँचते हैं ।" फिर मुझे ढाढ़स बंधाने लगे।

बच्चे घर पर ही थे। हम सब निकलने की तैयारी कर ही रहे थे कि बीस मिनट बाद फोन फिर बजा-भाई का रोता स्वर,"बापी चले गये। ऐम्बुलेंस भी अभी पहुँची है।डाॅक्टर ने उन्हें डेड डिक्लेयर कर दिया । तू बस आ जा दीभाई , " उसका कातर स्वर दिल को भेद गया। हाथ पैर मानों मेरे शिथिल हो गये थे। अभी दो ही दिन पहले तो बात हुई थी उनसे। मैंने माँ के कहने पर उनसे गुस्सा कर दवाई ना लेने का कारण पूछा था,तो मुझे पर भी बिगङ गये और पार्टी बदलने की बात करने लगे। आज उन्होंने ने ही अपनी पार्टी बदल ली।

जयपुर से भैया  (ताऊजी के बेटे) का भी फोन आ गया कि ,"मै निकल रहा हूँ ।पर शाम तक ही पहुँच पाऊँगा। नाहक मेरा इंतज़ार मत करना।" हम निकल पङे। नोएडा से नजफ़गढ़ का रास्ता मानो खत्म होने को ही नही आ रहा था।ऊपर से दिल्ली की पगलाती ट्रैफिक। दो-सवा दो घंटे लगे हमें पहुँचने में।सब हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे ।बङे मामाजी का बेटा भी  पहुँच चुका था। माँ का तो रो रोकर बुरा हाल।बापी को असहाय से,निष्प्राण, शिथिल देख मेरे आँसूं मानो आँखों मे ही जम गये थे। मेरे बापी-एक फौजी, प्राण और देशभक्ति से परिपूर्ण, मज़ाकिया, हंसते रहने वाले आज अचल,मूक पङे थे।

खैर हमारे आने के बाद संस्कार की सारी तैयारियां पूरी हुई और पापा को अंतिम यात्रा के लिए ले जाने लगे।कुछ रूढ़िवादी औरतों ने माँ की चुङियाँ तुङवाईं, माथे की बिंदी और सिंदूर भी पोंछा और सिंदूर की डिब्बी तुङवाई।मेरा दिल कसमसा गया। कलेजा मुँह को आ गया और आँसूं ढुलक पङे। कुछ नही कर, कह पामै माँ से लिपट गयी।सब बापी को लेकर चले गए । पीछे मैं माँ को सम्भालती रही।

जब सब वापस आये तो मानों सब खाली सा हो गया था।लंबे से मेरे बापी की गैरमौजूदगी खल रही थी ।विश्वास ही नही कर पा रही थी कि वे इस धरती से, हम सबसे दूर जा चुके थे।फिर भी मन कङा कर माँ को समझाती रही। छोटे भाई को देख रोना आ रहा था । वो बापी के बहुत करीब था। पर   अब उसे ही सब कुछ सम्भालना था,इसलिये उसे भी कुछ बातें समझाईं।

रात तक भैया पहुँच गए । अगली सुबह मंझले मामा जी का बेटा भी पहुँच गया।मै घर निकल गयी क्योंकि मुझे मेरे चार पैरों वाले बच्चों की भी फिक्र थी, जिनसे प्यार करना, देखभाल करना, मुझे बापी से ही विरासत में मिली थी ।     

हमारी शादी के बाद मेरे मायके से रिश्तों में कुछ खटास आ गयी थी।कुछ तल्खी सी हमेशा रही रिश्तों में । भैया हमेशा उन खट्टी बातों को दूर करना चाहते थे ।उन्होंने कह दिया-" मैं 'काकू'( चाचा) की अस्थियाँ तभी प्रवाहित करूँगा जब तुम लोग साथ चलोगे।"

पहले ही दिन ममता ,जो काम काज में मेरी मदद करती थी,उसको सब समझाया क्योंकि बच्चों को स्कूल भी जाना था। ठीक समय पर गाङी नीचे गेट पर आ गई । भाई आगे बैठा था अस्थि कलश लेकर, बिचारा सा, असहाय। पीछे से भैया उतरे, पतिदेव के गले लग गये।

मै जैसे ही बैठी तो नज़र एक बोरे से में गयी। भैया से पूछा। वे बोलें -"काकू का सब कुछ। वहाँ क्रिमेटोरियम में उन्होंने कहा सब लेकर जाइए और अस्थियों के साथ बहायें।" बङा अचरज हुआ । शायद बापी आखिरी विसर्जन के लिए मेरे साथ जाना चाहते थे।ठीक मेरे पीछे ही उनके अंश रखे हुए थे, भस्म के रूप में ।

पूरे रस्ते भाई चूप रहा। एक शब्द भी नही बोला। हम तीन बोलते बतियाते गंगा घाट पहुँचे। पंडितजी ने कुछ विधि विधान करें । मै चुपचाप देख रही थी।मन को एक खालीपन सा घेर गया था।शायद बापी से हमेशा हमेशा के लिए बिछङने का दर्द, भाई का दर्द, माँ की पीङा.....कुछ समझ नही पा रही थी।

फिर एक नाव करी,क्योंकि अस्थियाँ मंझधार में प्रवाहित करनी थी। मंझधार पहुँचे, पंडित जी ने भाई से मंत्रोच्चारण के बीच अस्थियाँ और अस्थि कलश प्रवाहित करवायें ।अब बारी थी बाकी भस्म की। दोनों भाई मिलकर बहाने लगे,पर उनसे ना हुआ।पतिदेव ने भी हाथ लगाया। धीरे धीरे   बापी माँ गंगा की गोद में पूर्णतः समाने लगे थे।

अचानक मल्लाह को पता नही क्या सूझा,शायद जल्दी थी उसे,और फेरियाँ लगाने की; उसने एकदम से धक्का लगा दिया। वह तो भैया वगैरह ने सम्भाल लिया।  "अरे,अरे भईया सम्भाल कर। ज़रा आराम से" मैने कहा,तो मल्लाह बोला-"बहनजी राख ही तो है!"

मेरा दिल मानों थम सा गया। आँसूं निकल आए ।

"भईया, वो मेरे पापा हैं ।"

©मधुमिता  

Monday 26 September 2016

सपनों से मिल आया जाये....



चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


थोङा उन संग हंसा जाये,
ज़रा सा रो लिया जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


थोङी सी ठिठोली की जाये,
थोङी फिरकी भी ली जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


कुछ अलग से रंग कैनवस पर उतारे जाये,
खूबसूरत सी इक तस्वीर बनाई जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


ढोल, नगाङे, हाथी, घोङे संग जुलूस निकाले जाये,
और चाँदनी अपने संग तारों की बारात ले आये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


फूलों के संग मुस्कुराया जाये,
हिरणों के संग ज़रा कुलांचे मारे जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


अमन और चैन से भी मुलाकात कर आते हैं, 
बंदुकों और हथगोलों को ठेंगा अपना दिखा आते हैं।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।



तितली से हर दुनिया में उङ उङ घूमा जाये,
पंछियों से गिरजे,मंदिर, मस्जिदों पर उतरा जाये।
चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।


अपने सुख दुख के साथी सपने,
जीवन को सुखद बनाते सपने,
रंगीनियाँ ले आते सपने,
आशाओं में विश्वास बनाते सपने,
अमन चैन की आस हैं सपने,
प्रेम, प्यार, उल्लास हैं सपने।


चलो चलके सो जाया जाये,
सपनों से मिल आया जाये।।

©मधुमिता

Saturday 24 September 2016

गर. ..


गर ये धरती ना होती,
तो जीवन ना होता,
जीव जंतु ना होते,
मानव ना होते।


गर हवा ना होती,
तो ये साँसें ना चलती,
बादल ना उङते, 
तपते दिल को ठंडक ना पहुँचती।


गर नीर ना होता,
तो प्यास ना बुझती,
तन और मन की आग झुलसती,
हर जगह बस आग धधकती। 


गर आग ना होती,
तो जिस्म थरथराते,
अहसास बर्फाते,    
रिश्ते खुदबखुद सर्द पङ जाते।


गर मिट्टी ना होती,
तो पेङ, खग पखेरू ना होते,
फूल और पौधे ना होते,
दो गज़ ज़मीन को इंसान तरसते।


गर खुशियाँ ना होतीं, 
तो ग़म भी ना होते,
ना मुस्कान होती, ना आँसू छलकते,
जीवन का मर्म हम कभी ना समझते।


जो सूरज ना होता,
तो कुछ भी ना दिखता,
ठंड मचलता,
अंधियारे कोने में हर कोई ठिठुरता।


जो ये चंदा ना होता
रात को हमको कौन सहलाता?
साथ जो ये तारे भी ना होते,
हम सब तो अंधेरे में गुम गये होते।


जो ये बादल ना होते,
उमङ घुमङ बरसे ना होते,  
तो ठंडी फुहारें ना होतीं,
अहसासों को ना जगाती।


जो ये अहसासें ना होतीं, 
धमनियों में खून को ना दौङाती,  
दिलों में प्यार ना बसाती
तो हम दोनों को कैसे मिलाती।


गर तुम, तुम ना होते,
कोई और ही होते,
और मै, मै ना होती,
कोई और ही होती,
तो हम , हम ना होते
और ना ही ये कायनात होती!!

©मधुमिता

Tuesday 20 September 2016

बेटे की चाह 


नाज़ों से पली थी,
मिश्री की डली थी,
मखमली सी कली थी,
अरमानों से ढली थी।


तितली सी उङती फिरती,
गौरैया सी चहकती,
झरनों सी कलकलाती,  
कोयल सी मीठी गाती।


फूलों से वो रंग चुराती,
मेघों से शीतलता लाती,
ठंडी बयार सी वो चलती,
मन को सबके मोह लेती।


इतराती, बलखाती सी वो, हर दम हवा के घोङे पर सवार, 
दूजे घर जाने को अब कर रहे थे उसे तैयार, 
सबकी मनुहारों के आगे मान गयी वो हार,
ले चले उसे उठाकर डोली में चार कहार।


पति के घर वो खो सी गयी,
हर कोई अजनबी, हर चीज़ नयी,
बस खुद को ही यहाँ थी लायी,
बाकी सब छुट गया था वहीं।


भूल गयी थी इतराना,
नाज़ और नख़रे करना,
हर पल वह चहकना,
खुशियों भरे वह गीत गाना।


फिर वक्त ने खुशियाँ दी दान,
माँ बनने का दिया वरदान, 
नन्ही सी बेटी फूंक गयी उसमें जान,
लग गयी वो करने इस नव जीवन का निर्माण।


घर पर हर कोई था आहत,
बेटे की थी उनको चाहत,
इसी चाह में उसको दिये कई आघात,
दुःख बैठा था हर कोने में, लगाकर घात।


मुस्कुराना भूल गयी थी,
चहचहाना छोङ चुकी थी,
आँखों की चमक खो चुकी थी,
झूठी चाहत में खुद से भी वो हार चुकी थी।   


एक दिन वह मौका आया,
गर्भ में बेटे की सौगात लाया,
पर साथ उसकी खुशियाँ ना लाया,
निष्तेज, निर्बल थी उसकी काया।


प्रसव पीङा ना झेल सकी वो,
बीच में ही साँसें टूट गई जो,
कमरे में दोनों मृत पङे थे,
माँ-बेटा चिर निद्रा में सुप्त पङे थे।


बेटे की चाह खा गयी हंसते गाते जीवन को,
बेदर्द सी चाह लील गयी उसके रंग,मुस्कान और गीतों को,
चार कंधे उठाकर ले चले उसे श्मशान को,
अग्नि के सुपुर्द कर दिया उसको और उसके अरमानों को।


माँ-बाबा की आँखों में आँसू बनकर रली थी,
सबको अकेला छोङ गयी थी,जो सबकी हमजोली थी,
मिश्री की वो जो डली थी,
बङे ही नाज़ों से जो पली थी।।

©मधुमिता

Saturday 17 September 2016

मिट्टी की गुङिया 



कभी कहा तुम चली जाओ,
कभी कहा तुम मत आओ,
कभी पूछा तुम हो कौन?
तो कभी कहा,चुप करो,बैठो मौन।


मा बाबा का घर, मायका,
सास ससुर का, ससुराल,
मेरी दुनिया पर सबका राज,
मै कल भी थी मूक,मूक ही हूँ आज।


ये क्या तुम्हारे घर से आया है? 
इसपर कौन सा हक तुम्हारा है!
पर ये तो बता दो कि मेरा घर कहाँ है,
मै तो मानो अनाथ ही हूँ, इस जहाँ में ।



पति ने कहा तू घर छोङ जा,
मुझपर अपना हक ना जता, 
बेटा बङा होकर निकल गया खुद घर से,
मुझे निकाल फेंका जिगर से।



कभी बनी मै नौकर,
कभी बनाई गई जोकर,
बिस्तर पर मेनका-रंभा बनी, 
कभी ना बन पाई अर्धांगिनी ।



मायके का पराया धन,
ससुराल में खोजती अपनापन,
किसी ने ना कभी था अपनाना, 
हर एक ने मुझको था अलग जाना।


माँ-माँ करते जो छाती से रहता था चिपट,
आज वो बेटा भी दूर गया है छिटक,
माँ की ममता को कुछ यूँ निर्बल करता,
अपनी दुनिया को वो निकल पङा। 



पहले पति से पिटती थी,
अब बेटे से डरती हूँ, 
अपना ही जीवन जीने से,
क्यों मैं पीछे रहती हूँ !



हाङ-मांस सब पिस गये हैं,
पुर्ज़ा पुर्ज़ा घिस गये हैं,  
गिन गिनकर दिन काट रही,
सिसक सिसक कर जी रही।



तन मन से सबने निर्जीव किया,
दिल को मेरे चाक चाक किया,
अरमानों को तार तार किया,  
हर रेशा रेशा अलग कर रख दिया।



क्यों मिट्टी के खिलौने सी किस्मत लिख डाली
ऐ ऊपरवाले! देख हर एक ने दे मारी,
टूटने को मजबूर किया,
हर एक ने चकनाचूर किया।



औरत क्यों बनाई तूने?
बनाई तो, सबको क्यों, यूँ तोङने का हक दिया तूने?
जो मिट्टी की गुङिया ही बनाकर जग को थमा देता,
तो यूँ ज़ार ज़ार,खून के आँसू, ना मेरे दिल का टुकङा टुकङा रोता।।  
©मधुमिता

Tuesday 13 September 2016

आखिरी झलक...




हर आहट पर लगता है
तुम आए हो,
हर साये को भी
अब मै 'तुम' समझती हूँ,
हवा की आवाज़ भी 
अब तुम्हारी साँसों सी लगती हैं।




साँसों की रफ्तार 
भी अब धीमी सी
पङने लगी है,
हर घङी इस धङकते दिल को
तुम्हारे ही मिलने
की आरज़ू है।     




बेजान सी जान 
आस लगाए बैठी है,
अपने अंदर कई अधुरी
प्यास लिए बैठी है,
फिर भी ढीठ सी 
रफ्ता-रफ्ता दिन गिनती जाती है।



आसपास तुम्हारी यादों को
समेटकर रखा है,
कई पोटलियाँ हैं,
लिफ़ाफ़े हैं,
जो आज भी ताज़ा से हैं 
तुम्हारी यादों से महकते हुए।



सर की ओढ़नी मेरी
सरकती रहती है,
बस हाथों का 
स्पर्श तुम्हारे पाने को,
पलकें भी मचलती रहती हैं,
हर पल तुम्हे सहलाने को।



नज़र को  अभी  तक 
इंतजार  है  तुम्हारा ,
दीदार  जो  हो जाए तो 
सुकून आ जाए इन निगाहों को,
थक  गईं   बहुत, अब बस 
तुम्हारी आखिरी झलक पाकर, बंद हो जाएँ नज़रें !!

©मधुमिता

Saturday 10 September 2016

दर्द 



जन्म लेने में दर्द, 
जन्म देने में दर्द, 
मृत्यु में दर्द,
जीने में  दर्द,
कुछ ना पाने का दर्द,
कुछ खोने का दर्द, 
कभी ना भूल सकने का दर्द, 
कभी भूला दिये जाने का दर्द, 
कभी ठोकर पर दर्द,
कभी ठोकर की दर्द,
कभी किसी को अपनाने का दर्द,
कभी ना अपना पाने का दर्द।



कभी ठुकराने का दर्द, 
कभी ठुकराये जाने का दर्द,
कभी प्यार का दर्द, 
कभी तकरार का दर्द,
कभी भूखे होने का दर्द, 
कभी बेघर होने का दर्द,
कभी किसी से रूठने का दर्द,
कभी किसी के रूठने का दर्द,
कभी दग़ा का दर्द,
तो कभी अविश्वास का दर्द,
कभी किसी के पास होकर दूर होने का दर्द,
तो कभी झूठी आस का दर्द।




कभी दूर जाने का दर्द 
तो कभी दूर होने का,
कभी ना मिल पाने का दर्द,
तो कभी विछोह का, 
कभी मात पिता का दर्द, 
तो कभी संतान का,
कभी कुदरत का दिया दर्द, 
तो कभी इंसान का,
कभी साँसें लेने का दर्द, 
तो कभी ना ले पाने का,
कभी जीने का दर्द, 
तो कभी ना जी पाने का।



दर्द बहुत है इस जहाँ
में, वजह बेवजह का,
चाहत और नफरत का,
आदी और अनंत का,
हवाओं में, दिशाओं में,
समय की दशाओं में, 
हर पल, हर निश्वास में, 
हर प्राणी के श्वास में, 
यूँ जिस दर्द को लपेट ले 
तू अपनी मुसकान में, 
जो माने तू सच्चा,
कसम से! वो दर्द भी बला का अच्छा ll

©मधुमिता

Thursday 8 September 2016


एक और बेचारी..



एक और बेचारी
साँसों को तरसती
अजीब सी लाचारी 
लिए, मृत्यु की हो ली,
सुंदर सी,
छरहरी सी काया,
पङी हुई नदी किनारे 
क्यों कोई उसे बचाने ना आया!


अरे कोई उसे उठाओ,
आराम से,
हाँ ज़रा प्यार से,
हौले से उसे पुकारो, 
थोङा सा पुचकारो,  
शायद वो गुस्सा थूक दे,
बेबसी सारी छोङ के,
मुस्कुराती वो उठ जाये!


कपडों में उसके
नदी अभी भी बह रही है, 
खुली हुई पथरीली आँखें 
दर्द भरी कोई कहानी कह रही है,
बंद करो उसके दो नैन,
निर्जीव, पर बेचैन, 
जहाँ भर का दुःख उनसे बह रहा है,
कोई तो उन्हे किसी तरह रोको!


लंबे घने केशों से भी
बूंदों संग उसके 
अंदर का ज़हर रिस रहा है,
सूखे होठों के कोने से
बहता लहु ,
बेजान दिल का दर्द 
बयां करता है,
कोई इस लहु को पोंछो, ग़म को उसके रोको!


कौन है वो?
क्या नाम है उसका?
कहाँ से बहकर आई थी?
कहाँ उसे जाना था?
यहाँ तो हर शख्स उससे 
अनजाना था ,
कहीं तो कोई दर होगा जो उसका होगा,
कोई घर जो उसका अपना होगा!


माँ, बाबा, 
भाई बहन,दादी दादा,
पति, बच्चे, सास ससुर,
कोई हमराज़, कोई हमसफर,
नाते, रिश्ते,
संगी साथी,
सब को छोङ
क्यों लिख डाली इसने दर्द की पांती! 


क्या थोङी वो सहमी होगी?
ज़रा सा डरी होगी?
कदम भी पीछे खींचे होंगे,
फिर, फिर आगे बढ़ी होगी,
या आगे बढ़ी होगी बेझिझक,
पीङित वह बेहिचक,
मौत को गले लगाने को
बह गई वो उतावली! 


अजानी सी,मिट्टी से लथपथ,
अनाम एक देह धरती पर,
ठंडी, मृत, बेजान, 
कठोर, पत्थर, निश्चल,अज्ञान, 
दर्द में लिपटी हुई, आज अग्नि में जल जायेगी,
मौत को गले लगा, शायद छुटकारा पा जायेगी 
यही सोच सब कुछ अपना पीछे छोङ आई,
हर अहसास से अपनी, वह मुँह मोङ आई!


कानाफूसी चल रही,
अटकलें भी लगा रहीं,
क्यों नही वो लङी तकलीफ से?
क्यों हार गयी किस्मत से?
दुःख को उसके समझो अब,
हार कर ही खत्म किया होगा उसने सब,
मत अनाम का नाम खराब करो,
एक नारी को यूँ ना बदनाम करो!

©मधुमिता   
    

Tuesday 6 September 2016

साज़िश 



मेरे चंदा से मिलने
का आज वादा है,
हौले से इतराकर
ज़िद करने का इरादा है। 


ऐसे में ये स्याह बादलों
का जमघट क्यूं ?
गरज गरजकर 
डराना यूँ!


रोज़ गुनगुनाती हवा
का आँधी बन उङना, 
पत्ते, फूलों और कलियों को
अपने संग ले चलना।


ऊपर आसमान से
चंदा का चुप तकना, 
बादलों की ओट में 
फिर जाकर छुप जाना।


टिमटिमाते तारे भी आज 
भूल गये निकलना,
या फिर इन काले दिल बादलों के 
साथ इन्हें है छुप्पन छुपाई खेलना!


उमङ-घुमङ कर बादल दल आते,
पेङ भी हिल डुल मुझे डराते,
हवा ने भी मचाया है शोर,
अंधेरा छाया चहुँ ओर।


क्यों सब दुश्मन बन बैठे,
सब अपने ही में ऐंठे, 
कहीं अपने मिलन को रोकने की ,
ये इन कमबख़्त सितारों और बादलों की,
साथ हवाओं और रूपहले चंदा की भी
मिलीजुली कोई साज़िश तो नही!!

©मधुमिता

Saturday 3 September 2016

ज़िन्दगी. ..




ज़िन्दगी नाम है खुशियों का,
अल्हङ सी मस्तियों का,
नादान सी शैतानियों का,
खूबसूरत सी नादानियों का।



ज़िन्दगी है खट्टे मीठे बचपने का,
स्वाद चोरी के अचार और चटनी का,
ऊँचे मुंडेरों पर चढ़ बर्नियाँ खोलने का,
माँ की आहट सुन,धम्म से नीचे गिर जाने का।



ममता भरी गोद है ज़िन्दगी,
पापा की वो डाँट है ज़िन्दगी, 
भाई की तोतली ज़ुबान है ज़िन्दगी,
दादी की झुकी पीठ का बयान है ज़िन्दगी।



किशोरों की जिज्ञासा है ज़िन्दगी,
जीने की आशा है ज़िन्दगी, 
जवानी का जोश है ज़िन्दगी, 
मुहब्बत मदहोश सी है ज़िन्दगी ।



ज़िन्दगी पर्वत की ऊँचाई है,
सागर की गहराई है,
मौजों की मदमस्त रवानी है,
कभी आंधी, तो कभी तुफान है ।
    


कभी ठंडी सी बयार है ज़िन्दगी,
कभी बरखा की बौछार है ज़िन्दगी, 
कहीं लहलहाती है ज़िन्दगी, 
कहीं बंजर, उजाङ है ज़िन्दगी । 



कभी रुकी हुई,सुस्ताती सी ज़िन्दगी,
कभी बेधङक, बेलगाम भागती सी ज़िन्दगी,
कभी भूखी, प्यासी, तङपती सी ज़िन्दगी,
कभी नंगे बदन,ठिठुरती, काँपती सी ज़िन्दगी ।  



कभी मुस्कराती सी ज़िन्दगी,
कभी रुलाती हुई ज़िन्दगी, 
कभी खेल सी ज़िन्दगी, 
कभी ठोकर मारती ज़िन्दगी । 



ज़िन्दगी कभी नाराज़ नही होती,
ज़िन्दगी दग़ाबाज़ नही होती, 
वो तो नाम  है  हर  खुशी का, 
प्यार और गर्मजोशी का,
बस हम पगले ही, कभी-कभी 
खुशफहमी पाल लेते हैं यूँ ही,
हमारी ज़िन्दगी के उदास होने का,
इस मदमस्त, हसीन ज़िन्दगी के नाराज़ होने का !!!

©मधुमिता

Thursday 1 September 2016

कई सपनें, कुछ साँसें. ... 




कुछ कदम सन्नाटे के,
कुछ यादों के साये,
कई दिन उखङे-उखङे,
कई वीरान सी रातें।



कुछ लफ़्ज़ अनबोले, 
कुछ हर्फ़ अनलिखे, 
कई पुराने से पन्ने,
कई ख़त पुराने।



कुछ अहसास दबे से,
कुछ भावनायें सहमी सी,
कई कल्पनायें रंगीन, 
कई विचार संगीन।



कुछ चमकते से सितारे, 
कुछ मदहोश से नज़ारे, 
कई अंधियारी रातें, 
कई चुभती सी बातें ।   



कुछ पल नीम से,
कुछ साँसें शूल सी ,
कई दिन पहाङ से,
कई पल उजाङ से।



जी रही हूँ एक ज़िन्दगी बोझिल सी ,
ले रही हूँ साँसें मैं उधार की,
तेरी यादों के नश्तर चुभते हैं रात दिन 
कई ताज़ा घाव दे जाते हैं हर दिन।



कई घाव हैं रिसते हुए,
कुछ साँसों को घसीटते हुए
ले जाते मौत की ओर,
तोङ हर बंधन, हर डोर।



कुछ सपनें साँसें लेती,
कई क्षण आवाज़ें देतीं,
एक दिल मेरा लहु से भरा,
हुआ बैठा था कबका तेरा।



कुछ तेरी सूरत की आस थी,
कुछ तेरे मिलने की प्यास थी,
कई बातें जो रह गई थीं बताने को,
कई अहसास जो थे जताने को।



कुछ टूटती साँसें रह गईं अब बस,
कुछ बेरंग से रंग,कुछ नीरस से रस,
कई बेदर्द से दर्द दिल में छुपा ले जाती हूँ, 
कई धुंधले से सपने लिए नैनों में, इन आँखों को मूंद जाती हूँ ।।   

©मधुमिता