Friday 30 June 2017

तुम्हारी हँसी




शांत पानी को दीवाना बना जाती है
 तुम्हारी हँसी,
असंख्य तरंगे बना जाती है 
तुम्हारी हँसी,
मदमस्त लहर सी मचलती,
सतरंगी बुलबुलों सी चुहल करती,
पागल सा बना जाती
ये तुम्हारी हँसी।


दमकता हरसिंगार
तुम्हारी हँसी,
मख़मली सी बयार
तुम्हारी हँसी,
सावन की ठंडी फुहार
तुम्हारी हँसी,
पायल की मीठी झंकार
तुम्हारी हँसी।


तुम्हारी हँसी के झंकार पर
डूबने को बेकरार
है रूह मेरी,
इस अनंत भावनाओं के सागर में
गोते लगाती,
पुरज़ोर गर्मजोशी से,
मुझे आग़ोश में अपने लेती,
अपने अंदर मुझे समाती,
सरगम के सुर ताल पर
जलतरंग सी तुम्हारी हँसी।
 

यूँ लिपटकर 
उस खिलखिलाहट से,
तुम्हारे दिल में 
खुद अपना ही अक्स
दिखाई देता है मुझे,
दीवानगी की हद पार कराती,
अनेकों रंग बिखेरती,
सितारों सी रोशन करती,
झिलमिलाती सी
तुम्हारी हँसी।।



©मधुमिता

Monday 26 June 2017

ईद


इस ईद पर वापस ज़रूर आना
कुछ यादें ताज़ा कर जाना
कुछ बीते लम्हों को घर मेरे ले आना


कुछ मस्ती भरे पल मतवाले मोड़ लाओ
दिल से दिल को जोड़ जाओ
अब की जब ईद पर वापस आओ


वो बोल ज्यूँ कि चाशनी
बचपन वाली नादानी
वो खट्टी मीठी शैतानी 


सब हथेलियों पर मेरे रख जाओ,
ज़रा ईद मुबारक कह जाओ
इस ईद पर जब वापस आओ

©मधुमिता

Sunday 18 June 2017

*बापी...



मेरी नन्ही हथेलियों को कब आपने थामा था, कुछ पता नही,
कब पहले मुझे गले से लगाया था, कुछ याद नही,
पर याद है आपका मेरे बालों को काढ़ना, 
दो चोटियों में रिबन लगाना,
माँ की डांट और मेरे बीच आ खड़े हो जाना,
कभी हंस हंस कर झूठ मूठ यूँ ही डांटने लग जाना,
मुझे पढ़ाना,
तरीके से लिखना सिखाना,
किताबों से प्यार,
जानवरों से दुलार,
हेमन्त दा की मौसिकी, 
सब देन है आपकी,
बेटे की तरह पाला मुझको,
हर वो काम करवाया मुझसे,
जो दुनियानुसार केवल बेटे कर पाते हैं,
पर आप उनको जवाब करारा दे जाते थें,
खाना बनाना,
बटन टांकना, 
बल्ब बदलना, 
फ्यूज ठीक करना,
अपना काम खुद करना,
लोगों की मदद करना,
सच्चाई का देना साथ,
बुराई को ऊड़ा देना,
सब आपने सिखाया,
खुद कर करके दिखाया, 
दोस्ती की मिसाल थे आप,
देशभक्त कमाल थे आप,
देश के सिपाही,
कहाँ चले गये आप बापी,
कुछ नही आप बोले,
बस आँख मूंद एक दिन चले,
कौन झूठी डांट अब पिलायेगा मुझको,
दुनिया की आँधियों से बचायेगा मुझको,
वैसे तो सक्षम कर गये आप,
पर हम सबको अकेला कर गये आप !

©मधुमिता


*( बंगला मे पिताजी )

Saturday 17 June 2017

ख़्वाबों का इक पुल 



मेरी हथेलियों की लकीरों से
तेरी हथेलियों की लकीरों तलक
ख़्वाबों का इक पुल बांधा है,
रेशमी अहसास के धागों से,
सतरंगी बुलबुलों से नाज़ुक 
कुछ जज़्बात टाँके है,
पलकों से इन्हे बुहारती हूँ,
आस की देहरी पर 
जब तेरी राह निहारती हूँ ।।

©मधुमिता

Friday 16 June 2017

हरी भरी..



हरी भरी दूब सी मख़मली धान,
मीलों फैले खेत खलिहान,
मुस्कुराती नारियाँ 
पहने रंग बिरंगी साड़ियाँ,
कुछ बोती, 
कुछ रोंपती, 
सर सर भागती सड़क,
ऊपर चमकता सूरज कड़क,
सूरज की अग्नि को अपने आँचल मे समेटे,
खुदपर  एक मुस्कान लपेटे,
मेहनत करती जाती है,
पसीने से अपनी,इस धान को नहलाती है,
हरियाली जब लहलहाती है,
तो वे फूली नही समाती है,
उस खुशी से धान भी महकती है,
दुगुना पुष्ट हमें करती है,
कभी जाओ कभी जो इस सड़क पर तो एक नज़र इनपर भी डालो,
कुछ बोलो बतियाओ, तनिक इन संग मुस्कुरा लो,
हरियाली ओढ़े, जीवन रूपी हर रंग की रानी हैं ये,
हरे धान का चास करती, जीवन दायिनी हैं ये ।।

©मधुमिता
दुनिया मेरी...



कुछ मायके जाती हैं,
तो कुछ दफ़्तर,
कुछ दूर देश हो आती हैं,
कुछ आसपास ही भ्रमण करती अक्सर,
कुछ सपने सजाती हैं,
कुछ उन्हे हकीकत के रंगों में रंगती हैं,
एक मै ही हूँ अचल और स्थिर,
मूक और बधिर,
रसोई, शयनकक्ष, 
बाथरूम, घर द्वार,
बस यहीं नज़र आती हूँ बार बार,
दीवारों से टकराती,
उलट पुलट लोगों के बीच,
पागल लहरों सी बनती, टूट जाती,
कोशिश करती हूँ उड़ने की,
पर नुकीले शीशे, पर नोच जाते है,
ज़ख़्मी अंतर्मन कर जाते हैं,
घिरी है एक शांत सी अशांति,
बोझिल साँसें, अभेद्य क्लान्ति, 
खिड़की से देखती हूँ रोज़
इस दुनिया की चहलकदमी,
एक बुझती सी आस लिये
कि कभी तो मै भी पाऊँगी
अपना जहाँ, एक नयी दुनिया मेरी।।

©मधुमिता

Wednesday 14 June 2017

रावण




सोचो गर स्याह, 
स्याह ना हो!
श्याम, श्याम ना हो!
गहरी कालिमा लिये
अंधकार मय सा ना हो, 
कपटी, छली ना हो!
अपितु श्वेत हो!
उजला सा,
शुभ्र, धवल,
रोशनी की किरण सा प्रतित कराता,
भोला भाला सा,
विनम्रता की चादर ओढ़े,
 निष्कलंक,
पवित्रता के वेश मे,
साधू के भेस मे,
हो शैतान कोई!
या रावण?
हरने एक सीता नयी।।

©मधुमिता



Saturday 10 June 2017

ये रात...


सारी रात तुम्हारे हाथों को थाम चुप बैठना चाहती हूँ मै,
इन नज़रों को बस तुम पर रोक लेना चाहती हूँ मै,
संवरना चाहती हूँ तुम्हारे होठों के स्पर्श से,
सिमटी तुम्हारी ख़ुशबू मे, ज़मीं से अर्श तलक
रूह मेरी पिघलती हुई तुम्हारी रूह में,
अरमान लहरों से नाच उठते,
थोड़े पगलाये, मचलते से,
बस एकटक तुम्हे देखती हूँ,
निहारती रहती हूँ,
उतार लेना चाहती हूँ तुम्हारे बिम्ब को
वक्त की गहराईयों तक
ताकि साथ रहे तुम्हारा जन्मों जन्मांतर तक,
घिरना चाहती हूँ बाजुओं के घेरे में तुम्हारे,
महसूस करना चाहती हूँ
इस अंधेरी रात में बस तुम मे खो जाना चाहती हूँ।


आग़ोश मे तुम्हारे,सारी रात सिमट कर रह जाना चाहती हूँ मै,
इस पल को बस यहीं रोक लेना चाहती हूँ मै,
सीने में तुम्हारे चेहरा अपना छुपाकर,
जज़्ब कर लेना चाहती हूँ  तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू 
अपनी रगों में, सुर्ख़ खूं में रंगकर
रोम रोम में भर लेना चाहती हूँ ,
दहकती हुई इस रात को समेटकर
रख लूँगी यादों के ताज़े फूलों में पिरोकर,
हर छुअन की याद का एक अलग सा फूल,
इनसे दामन भर लेने दो मुझे,
सो जाने दो मुझे पहलू मे अपने,
मुहब्बत में, महफूज़,
अगली सुबह देखूँ साथ तुम्हारे,
हर साँस साथ लेना चाहती हूँ,
हमेशगी तलक, इश्क में रंगीं रहना चाहती हूँ ।। 

©मधुमिता

Wednesday 7 June 2017

दिल-दुनिया



एक कोने में माँ के हाथ की बुरकियाँ, 
तो कहीं हँस रही बाबा की मीठी झिड़कियाँ, 
दिखाई दे रही कुछ वाहवाही की थपकियाँ, 
देखो पीछे मचल रही जीजी की झूठी थमकियाँ।

वो छुपे घर-घर के खेल के बरतन, 
अनगिनत कागज़ के कतरन
जिनसे बनाकर कितने ही प्लेन,
उड़ा रहे देखो कैसे तन तन।

कुछ खट्टे मीठे झूठ,
देखो कैसे मै जाती थी रूठ!
पतंगों की लूट,
कितने गीत, जो गाते थे हो कर एकजुट।

मेरी गुड़िया, तेरा गुड्डा,
पहले शादी, फिर विदाई का मुद्दा,
मुँह फुलाना, मारना ठुड्डा,
फिर आपस की कुट्टम कुट्टा।

कितनी कहानियाँ, कितने किस्से,
अंताक्षरी के गीतों में फंसे,
कहीं देखो तो रूसे, 
कहीं तो देखो कैसे हैं हँसे।

खुश्बू तुम्हारे इत्र की,
आभा पहली मुहब्बत की,
वो सारे अक्षर तुम्हारी पहली चिट्ठी की,
वो सुर्ख़ लाज तुम्हारे पहले छुअन की।

सब छुपे बैठे हैं मेरे दिल के अंदर,
बसाकर एक शहर सुंदर,
यादों का अथाह समुन्दर, 
हिलोरे मारता लहराता सागर।

बस यही सब अब दुनिया है मेरे,
मुस्कान का कारण मेरे,
ये अनमोल यादों के डेरे,
मेरे , हाँ जायदाद हैं मेरे।

इनके साथ कभी रो लेती हूँ,
कभी ज़ोर ज़ोर से हँसती हूँ,
तू-तू, मै-मै भी करती हूँ,
कभी रूठती तो मान मनव्वल भी करती हूँ।

नही किसी को आने की इजाज़त यहाँ,
ये है बस मेरा जहाँ,
यहाँ चलता है बस मेरे दिल का कहा,
देखो बता दिया तुम सबको, है मेरी दुनिया छुपी कहाँ।।



 ©मधुमिता

Monday 5 June 2017


 क्या महसूस कर पाते हो तुम?

 
क्या महसूस कर पाते हो तुम?
मेरे सीने मे छिपे हर दर्द को?
क्या तुम देख पाते हो 
मेरे दिल के हर दरार को?
छू पाते हो क्या तुम
हर रिसते हुये ज़ख़्म को?
क्या बता पाओगे कि मेरी रूह कहाँ बसी है
और कहाँ कहाँ उसे चीरा गया है?
पैनी कटारों से उसे कहाँ गोदा गया है?
नोची गई हूँ,
उजड़ी हुई हूँ, 
नुकीली, धारदार चीज़ों से बनी हूँ,
जोड़-जोड़ कर ,उस ऊपरवाले की मेहरबानी के गोंद से चिपकाई गई हूँ,
क्या उस धार को महसूस कर पाते हो तुम?
एक बेरहम सी पहेली हूँ मै, 
निर्जीव, संगदिल सच्चाई का खंड हूँ मै,
शायद महसूस नही कर पाते,
पर अनुभवहीन तो हो नही!
जानते हो ना सच्चे दुश्मन दोस्त ही बनते हैं
और अच्छे दोस्त दुश्मन,
अब जो मै तुमसे बेइंतहा नफ़रत करती हूँ,
क्या महसूस कर पाते हो तुम? 

झूठ धातु की गोलियों की तरह भेद गये हैं दिल को मेरे,
छलनी सा कर गये मेरे सीने को, 
एक अनंत खालीपन का अहसास विह्वल कर जाता है,
कचोटता है, मुझे कुचल जाता है,
एक निर्भिक सा विस्तार है,
निडर सा अंतराल,
कोशिश में हूँ उस अजब सी उलझन को कसकर पकड़े रहने की
जो मकड़ी के जाले सी ऐसी उलझी है कि ख़ुद ही सुलझ नही थाती,
खो रही हूँ खुद को दर्द के इस मकड़जाल में,
दिन ब दिन, वक्त दर वक्त,
टूटी हुई,  क्षतिग्रस्त
इस कदर कि संभाल नही पायेगा कोई,
ना कोई संग्रहित कर पायेगा मुझे!
मानो टूटे शीशे से गढ़ी गई हूँ मै,
टूटी हुई,  बिखरी सी, चकनाचूर, 
क्या महसूस कर पाते हो तुम? 

कोई खाली सी खोल हूँ मै,
एक मौन सा आवरण,
 जिसमें कभी कोई तत्व था,
रक्त सा पदार्थ, 
जिसका कोई महत्व था,
कोई अहमियत थी,
जिसमें एक जान बसती थी,
एक जिस्म था 
जिसमें एक दिल धड़कता था,
एक रूह थी,
उड़ती फिरती,
अरमानों और ख़्वाहिशों से भरी पूरी,
अब टूटे टुकड़े गिर रहे हैं इधर उधर,
मुहब्बत चोट खाई हुई है,
ज़ख़्म बेशुमार है,
दिल चूर चूर है,
मुहब्बत रोती ज़ार ज़ार है,
क्या महसूस कर पाते हो तुम? 

नाइंसाफ़ी और बेइंसाफ़ी की स्वर- संगति 
एक अजब सी धुन बजाती है,
इन कानों में ज़हर सा घोलती है,
प्रेम गीतों की लोरी कभी सुनाती है,
बचपन के भय सा डरा जाती है
एक उलझन मानों सुुुलझने को है,
मंत्रों का वृंदावन सा उच्चारण,
परियों का सहगान 
सुनाई देता है अब,
सब अहसास आँसू बन पिघलने लगे हैं,
सब हांथ तोड़ अविरल धारा बहने तगी है,  
दर्द की लहरें दौड़ रही थीं मेरे जिस्म मे
कि अचानक वह दानव आ खड़ा हुआ
हमेशा के विछोह और विच्छेद का!
शायद अब तो महसूस कर पाये होगे तुम?

©मधुमिता

Saturday 3 June 2017

या रब! 

जिस तरफ देखूँ
है ग़ुबार ही ग़ुबार;
या रब ! तू कहाँ है छुपा?
देख ना , तुझको तरसती हूँ मै,
तेरी ही तलबगार ।

©मधुमिता

Friday 2 June 2017

दोस्त 


सब खिसक लेते हैं चुपके से
जब मिलने की बातें चलती हैं,
वो यादें,
वो इरादे
बस महज़ अल्फाज़ बन रह जाते हैं,
कचोट जाने को दिल को कहीं !!

©मधुमिता