Wednesday 13 April 2016


क्या  तुझे  जानती  हूँ मै ?


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क्या  तुझे  जानती  हूँ मै ?

तू  कहीं वो  तो  नहीं,  

जिसे  पहचानती थी मै,

अपना  मानती  थी  मै।


क्यूँ  तू  तू  ना  रहा ?

क्यूँ अब  हो  रहा  पराया ?

वो  अपना  छोटा  सा  घोंसला

भी  आह! अब  बसेरा  ना  रहा।


शब्दों  की  डोर  जो

तेरे  मेरे  दरमियाँ हैं,

वो  भी  तो बस अब

ख़ामोशी  का बयान  करते हैं।


क्या कोई भूल  थी  मेरी ,

या  हुई हमसे कोई खता ,

मै  तो  समझ  ना  सकी ,

तू  ही  कुछ  मुझ  बावरी  को  बता।


बस बहुत  हुआ अब ये

जीने  का  खेल ,

उलझी  हुई  सी  ज़िन्दगी ,

भावनाएँ   बेमेल।


यूँ  तो  ये   दिल धड़कता  है ,

पर मौत  की  आहट  के साथ ,

साँसे  भी तो  चलती  हैं  ,

मगर  रुक  जाने  की इबादत  के  साथ।।


-मधुमिता

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