Tuesday 27 September 2016

"वो मेरे पापा हैं"




" दीभाई बापी(पापा) की तबीयत बहुत खराब है",छोटे भाई की असहाय सी आवाज़ आई दूसरी तरफ से, जैसे ही भागते हुए फोन उठाया।
"अरे पर क्या हुआ? अभी दो दिन पहले तो बात हुई थी उनसे!" मैंने पूछा,तो उसने रुआँसी सी आवाज़ में कहा,"तू बस आ जा"। एक अंजान आशंका की लकीरें शायद मेरे चेहरे पर दिख गयी थी पतिदेव को। उन्होंने मुझसे फोन लिया और पूछा ऐम्बुलेंस बुलवाई  थी उसने कि नही। शायद ऐम्बुलेंस बुला ली गई थी क्योंकि उन्होंने भाई को कहा," तुम लोग अस्पताल पहुँचो, हम तुरंत पहुँचते हैं ।" फिर मुझे ढाढ़स बंधाने लगे।

बच्चे घर पर ही थे। हम सब निकलने की तैयारी कर ही रहे थे कि बीस मिनट बाद फोन फिर बजा-भाई का रोता स्वर,"बापी चले गये। ऐम्बुलेंस भी अभी पहुँची है।डाॅक्टर ने उन्हें डेड डिक्लेयर कर दिया । तू बस आ जा दीभाई , " उसका कातर स्वर दिल को भेद गया। हाथ पैर मानों मेरे शिथिल हो गये थे। अभी दो ही दिन पहले तो बात हुई थी उनसे। मैंने माँ के कहने पर उनसे गुस्सा कर दवाई ना लेने का कारण पूछा था,तो मुझे पर भी बिगङ गये और पार्टी बदलने की बात करने लगे। आज उन्होंने ने ही अपनी पार्टी बदल ली।

जयपुर से भैया  (ताऊजी के बेटे) का भी फोन आ गया कि ,"मै निकल रहा हूँ ।पर शाम तक ही पहुँच पाऊँगा। नाहक मेरा इंतज़ार मत करना।" हम निकल पङे। नोएडा से नजफ़गढ़ का रास्ता मानो खत्म होने को ही नही आ रहा था।ऊपर से दिल्ली की पगलाती ट्रैफिक। दो-सवा दो घंटे लगे हमें पहुँचने में।सब हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे ।बङे मामाजी का बेटा भी  पहुँच चुका था। माँ का तो रो रोकर बुरा हाल।बापी को असहाय से,निष्प्राण, शिथिल देख मेरे आँसूं मानो आँखों मे ही जम गये थे। मेरे बापी-एक फौजी, प्राण और देशभक्ति से परिपूर्ण, मज़ाकिया, हंसते रहने वाले आज अचल,मूक पङे थे।

खैर हमारे आने के बाद संस्कार की सारी तैयारियां पूरी हुई और पापा को अंतिम यात्रा के लिए ले जाने लगे।कुछ रूढ़िवादी औरतों ने माँ की चुङियाँ तुङवाईं, माथे की बिंदी और सिंदूर भी पोंछा और सिंदूर की डिब्बी तुङवाई।मेरा दिल कसमसा गया। कलेजा मुँह को आ गया और आँसूं ढुलक पङे। कुछ नही कर, कह पामै माँ से लिपट गयी।सब बापी को लेकर चले गए । पीछे मैं माँ को सम्भालती रही।

जब सब वापस आये तो मानों सब खाली सा हो गया था।लंबे से मेरे बापी की गैरमौजूदगी खल रही थी ।विश्वास ही नही कर पा रही थी कि वे इस धरती से, हम सबसे दूर जा चुके थे।फिर भी मन कङा कर माँ को समझाती रही। छोटे भाई को देख रोना आ रहा था । वो बापी के बहुत करीब था। पर   अब उसे ही सब कुछ सम्भालना था,इसलिये उसे भी कुछ बातें समझाईं।

रात तक भैया पहुँच गए । अगली सुबह मंझले मामा जी का बेटा भी पहुँच गया।मै घर निकल गयी क्योंकि मुझे मेरे चार पैरों वाले बच्चों की भी फिक्र थी, जिनसे प्यार करना, देखभाल करना, मुझे बापी से ही विरासत में मिली थी ।     

हमारी शादी के बाद मेरे मायके से रिश्तों में कुछ खटास आ गयी थी।कुछ तल्खी सी हमेशा रही रिश्तों में । भैया हमेशा उन खट्टी बातों को दूर करना चाहते थे ।उन्होंने कह दिया-" मैं 'काकू'( चाचा) की अस्थियाँ तभी प्रवाहित करूँगा जब तुम लोग साथ चलोगे।"

पहले ही दिन ममता ,जो काम काज में मेरी मदद करती थी,उसको सब समझाया क्योंकि बच्चों को स्कूल भी जाना था। ठीक समय पर गाङी नीचे गेट पर आ गई । भाई आगे बैठा था अस्थि कलश लेकर, बिचारा सा, असहाय। पीछे से भैया उतरे, पतिदेव के गले लग गये।

मै जैसे ही बैठी तो नज़र एक बोरे से में गयी। भैया से पूछा। वे बोलें -"काकू का सब कुछ। वहाँ क्रिमेटोरियम में उन्होंने कहा सब लेकर जाइए और अस्थियों के साथ बहायें।" बङा अचरज हुआ । शायद बापी आखिरी विसर्जन के लिए मेरे साथ जाना चाहते थे।ठीक मेरे पीछे ही उनके अंश रखे हुए थे, भस्म के रूप में ।

पूरे रस्ते भाई चूप रहा। एक शब्द भी नही बोला। हम तीन बोलते बतियाते गंगा घाट पहुँचे। पंडितजी ने कुछ विधि विधान करें । मै चुपचाप देख रही थी।मन को एक खालीपन सा घेर गया था।शायद बापी से हमेशा हमेशा के लिए बिछङने का दर्द, भाई का दर्द, माँ की पीङा.....कुछ समझ नही पा रही थी।

फिर एक नाव करी,क्योंकि अस्थियाँ मंझधार में प्रवाहित करनी थी। मंझधार पहुँचे, पंडित जी ने भाई से मंत्रोच्चारण के बीच अस्थियाँ और अस्थि कलश प्रवाहित करवायें ।अब बारी थी बाकी भस्म की। दोनों भाई मिलकर बहाने लगे,पर उनसे ना हुआ।पतिदेव ने भी हाथ लगाया। धीरे धीरे   बापी माँ गंगा की गोद में पूर्णतः समाने लगे थे।

अचानक मल्लाह को पता नही क्या सूझा,शायद जल्दी थी उसे,और फेरियाँ लगाने की; उसने एकदम से धक्का लगा दिया। वह तो भैया वगैरह ने सम्भाल लिया।  "अरे,अरे भईया सम्भाल कर। ज़रा आराम से" मैने कहा,तो मल्लाह बोला-"बहनजी राख ही तो है!"

मेरा दिल मानों थम सा गया। आँसूं निकल आए ।

"भईया, वो मेरे पापा हैं ।"

©मधुमिता  

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