Tuesday 20 September 2016

बेटे की चाह 


नाज़ों से पली थी,
मिश्री की डली थी,
मखमली सी कली थी,
अरमानों से ढली थी।


तितली सी उङती फिरती,
गौरैया सी चहकती,
झरनों सी कलकलाती,  
कोयल सी मीठी गाती।


फूलों से वो रंग चुराती,
मेघों से शीतलता लाती,
ठंडी बयार सी वो चलती,
मन को सबके मोह लेती।


इतराती, बलखाती सी वो, हर दम हवा के घोङे पर सवार, 
दूजे घर जाने को अब कर रहे थे उसे तैयार, 
सबकी मनुहारों के आगे मान गयी वो हार,
ले चले उसे उठाकर डोली में चार कहार।


पति के घर वो खो सी गयी,
हर कोई अजनबी, हर चीज़ नयी,
बस खुद को ही यहाँ थी लायी,
बाकी सब छुट गया था वहीं।


भूल गयी थी इतराना,
नाज़ और नख़रे करना,
हर पल वह चहकना,
खुशियों भरे वह गीत गाना।


फिर वक्त ने खुशियाँ दी दान,
माँ बनने का दिया वरदान, 
नन्ही सी बेटी फूंक गयी उसमें जान,
लग गयी वो करने इस नव जीवन का निर्माण।


घर पर हर कोई था आहत,
बेटे की थी उनको चाहत,
इसी चाह में उसको दिये कई आघात,
दुःख बैठा था हर कोने में, लगाकर घात।


मुस्कुराना भूल गयी थी,
चहचहाना छोङ चुकी थी,
आँखों की चमक खो चुकी थी,
झूठी चाहत में खुद से भी वो हार चुकी थी।   


एक दिन वह मौका आया,
गर्भ में बेटे की सौगात लाया,
पर साथ उसकी खुशियाँ ना लाया,
निष्तेज, निर्बल थी उसकी काया।


प्रसव पीङा ना झेल सकी वो,
बीच में ही साँसें टूट गई जो,
कमरे में दोनों मृत पङे थे,
माँ-बेटा चिर निद्रा में सुप्त पङे थे।


बेटे की चाह खा गयी हंसते गाते जीवन को,
बेदर्द सी चाह लील गयी उसके रंग,मुस्कान और गीतों को,
चार कंधे उठाकर ले चले उसे श्मशान को,
अग्नि के सुपुर्द कर दिया उसको और उसके अरमानों को।


माँ-बाबा की आँखों में आँसू बनकर रली थी,
सबको अकेला छोङ गयी थी,जो सबकी हमजोली थी,
मिश्री की वो जो डली थी,
बङे ही नाज़ों से जो पली थी।।

©मधुमिता

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