Sunday 30 October 2016

आँखें 





मै पहचानती हूँ उन आँखों को, आँखे मीच  

अनंत असंख्य के बीच 

धूल,धक्कड़,गर्दी के बवंडर में 

टीन,टपरे, फूस के घर में

देखती रहती थी बेचारी

अपने बबुआ को दूर खड़ी,

लाचारी थी ,मजबूरी थी

नेह,प्रेम की मगर,कमी नही थी,

जिगर के टुकड़े को अपने,

अपने छिद्रित आँचल से ढकने,

करने सूरज की किरणों से ओट,

बनकर शीतलता का स्रोत,

भूख से बिलखते संतान को

देख भाग आती अशांत हो,

छाती से चिपकाकर,शान्तकर

फिर लगती श्रम को,मन मारकर,

रात गहरी में फूस का अलावन,

फटी हुई साड़ी का झुलावन,

एक हाथ से झुला झुलाती,

दूजे से सपनों की नींव डालती।



फिर उसकी ऊँगली पकड़े

धीरे धीरे बबुआ जी चल पड़े,

बबुआ को बाबू बनाना है,

उसके सपनो की मंजिल तक पहुंचना है,

क ख ग घ,एक दो तीन चार,

बबुआ बने पढ़े लिखे, होशियार,

उसकी आँखें वार फेरती,

अपने बबुआ पे खुश होती,इतराती,

खुद भूखी रहकर

बस पानी ही पीकर,

बबुआ को रोटी खिलाती थी,

अपने को मारकर भी उसके दिल को जिलाती थी।



बबुआ फिर बने बड़े साहब,

बाबू बनकर, उनके बड़े रुआब,

उसकी आँखें ख़ुशी से भींच जाती थी,

आगे आने वाले दिनों को देख ना पाती,

उस अभागन के देखो कैसे फूटे करम,

बबुआ को अब उससे ही आने लगी शर्म,

तो अब बबुआ भये आत्मनिर्भर,

दोनों जैसे दो विचार परस्पर,

फिर आई नववधू,नयी मीत,नयी हितैषी,

झट ले उडी बबुआ को,बने विदेशी,

देखती रही उसकी आँखे निस्सहाय,

बेचारी अबला,निराश्रित,निराश,असहाय।



फिर जा पहुंची धूल-धक्कड़ के मध्य

रोग मगर नैराश्य का,लग गया था असाध्य,

फिर आ पहुंचा था अचानक,वो परदेसी,

मुस्काई वो, झलकी मायूस सी हंसी,

रात वो सोयी,सामने उसका था चेहरा,

सर्द रात कारी,गहराया कोहरा,

सुबह कोहराम मचा ‘मर गयी रे बुढ़िया’! 

चली गयी वो काट सारी ममता,वात्सल्य की बेड़ियाँ,

परदेसी भी ताकने द्वार तक आया,

मृत आँखों ने पहचान लिया था अपना बबुआ,

चिथड़ों में से देख रही थी तब भी अपने बच्चे को,

कफ़न भी ना ओढ़ाया,मुँह फेर चला गया बदनसीब वो।



चली गयी वो मुक्ति के पथ पर

मोक्ष पा गयी थी आत्मा उसकी, आँखों को तृप्तकर,

ना पहचाना माँ को बेटा,कैसी ये विडम्बना

कर बैठा था अपने जन्म,जननी,मातृत्व की उलाहना,

पड़ी हुई थी ममता नीचे अनाथ,शिथिल,निर्जीव,

भर गयी थी रंग बबुआ के जीवन में सुन्दर,सजीव,

जा चली जा दूर,अबोध,तोड़ ये बंधन मोह,स्नेह का,

पथराई इन आँखों में भरकर अक्स उस निर्मोही का,

जिस चेहरे को देख जीती थी आजीवन ये आँखें,

आज यात्रांत पे अनजानी, अनदेखी,एकाकी ये आँखें,

हाँ पहनानती हूँ इन आँखों को,पाषाणमय,निस्तब्ध ये आँखें

उस माँ की आँखें.......।।

©मधुमिता

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