मतला:
दिल खो रहा है, साँसें भी अब तो रुक चली हैं,
धीमी सी धड़कनों में सब बात छुप चली हैं।
सिमट के बैठ गया है हर दर्द एक कोने में,
यादों की भीड़ में कुछ तस्वीर उठ चली हैं।
ना कोई दस्तक है, ना कोई ख़त का पैग़ाम,
उम्मीद थी जहाँ से, वो राह मुड़ चली हैं।
पत्थर के शहर में है एहसास का क्या काम?
निगाहें बोलती थीं, अब आँखें झुक चली हैं।
पता नहीं है किस ओर अब क़दम बढ़ाएँ,
मंज़िल की जुस्तजू में राहें थक चली हैं।
कौन समझेगा "बावरी" दिल की उस उलझन को?
हर सोच, हर तमन्ना, हर राह बुक चली हैं।
मक्ता :
"बावरी", तू तो अपने ही दर्द में डूबी है,
जिसे भी चाहा, उसकी यादें भी छुप चली हैं।
©®मधुमिता
No comments:
Post a Comment