Friday, 12 September 2025

जब भी छूने लगे तुम्हारी हँसी

ग़ज़ल: 

 

तुम्हारी हँसी जब भी छूने लगे,
हर दर्द मेरा कहीं खोने लगे।
ये झीलों-सी गहरी, ये मदहोश-सी,
तुम्हारी हँसी... ओ तुम्हारी हँसी।।



कभी बारिशों-सी बरसती रही,
कभी धूप बन के चटकती रही।
कभी फूल बनकर महकती रही,
कभी राग बन के छलकती रही।
हर इक रंग में जो समा जाए यूँ,
वो है रौशनी… बस तुम्हारी हँसी।।



न कोई साज़ हो, न हो कोई गीत,
तब भी ये लगे जैसे मीठा संगीत।
तेरे होंठों से जब फूटती है ये बात,
जैसे खुलते हों ख़ुशियों के सारे जज़्बात।
मेरे लफ्ज़ बन जाए गर ज़िंदगी,
तो हो सिलसिला… बस तुम्हारी हँसी।।


निशानी सी लगती है उस चाँद की,
मचलती हवाओं की हर सांझ की।
जो भी सुने, बस उसी का हो जाए दिल,
ये हँसी तो है जैसे कोई क़त्ल की दिलक़श क़िल।
मुझे होश क्या जब हो संग में कभी,
ये दिल जो चुराए… वो तुम्हारी हँसी।।

©®मधुमिता

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