रात का आलम...
गुम सी हो चली हूँ
इस रात के आग़ोश में
चुप हम और चुप तुम
दोनों ख़ामोश से
शब कुछ ज़्यादा सुरमई है
दो नैनों की रोशनी बिना
आँखों के काले काजल से
रात ने ख़ुद को है छीना
अंधेरे ने चादर फैलाई
चुपके से आ मुझको घेरा
मैं ढूंढ़ रही थी तब सन्नाटे में
अपना सा दामन तेरा
ये रात मेरी
ये अंधियारा मेरा
ढूंढ़ती हूँ फिर भी हर पल
वो मुस्कुराता साया तेरा
थम जाऊँगी तेरे पलकों पर आ
जी जाऊँगी एक पूरा जनम
गुम होने को फिर एक बार
चुराकर इस रात का आलम
©®मधुमिता
No comments:
Post a Comment