इंतज़ार तुम्हारा
देख रही थी मैं
खुली खिड़की से,
दूर चमचमाते
उस चंदा को,
सलेटी रात के
आँचल में टँके
पुखराज सा,
इस दुनिया को
सम्मोहित करता,
और ठीक उसी के नीचे
इस धरा पर वह पलाश,
सुर्ख़ लाल से लदी फदी
उसकी वह डाली,
रक्तरंजित सी,
आभामय,
रोशनी में नहाई,
मुस्कुराई
जब छू गयी हवा
त्रिपर्णा को
और फिर चुपके से
आ गयी खिड़की पर मेरे,
घुस आई वो अंदर,
छुआ उसे मैने,
रोका भी,
पर वो चली धीमे धीमे
धीमी धीमी आग की ओर,
उन जलती बुझती शाखों पर,
मुस्कुराती डोलने लगी वो,
ठंडी पड़ती शोलों को
भरने लगी गर्माहट से,
जो माँग लाई थी चंदा से,
कुछ लाली पलाश की भी
उसने उड़ा दी,
कुछ खुशबू फ़िज़ा की
घोल गयी वो,
कुछ तिलस्म वो कर गयी,
ना जाने कैसे
उन सुलगती शाखों पर,
सपनों के कुछ नाव तैराकर
तुमसे मुझको जोड़ गयी,
चंदा ने बांधा था जो पुल तुम तक
उस तक मुझको ले चली वो,
हाँ ले चली वो तुम तक,
जब समय की राख पर
बैठकर कर रही थी
मैं इंतज़ार तुम्हारा।
©®मधुमिता
देख रही थी मैं
खुली खिड़की से,
दूर चमचमाते
उस चंदा को,
सलेटी रात के
आँचल में टँके
पुखराज सा,
इस दुनिया को
सम्मोहित करता,
और ठीक उसी के नीचे
इस धरा पर वह पलाश,
सुर्ख़ लाल से लदी फदी
उसकी वह डाली,
रक्तरंजित सी,
आभामय,
रोशनी में नहाई,
मुस्कुराई
जब छू गयी हवा
त्रिपर्णा को
और फिर चुपके से
आ गयी खिड़की पर मेरे,
घुस आई वो अंदर,
छुआ उसे मैने,
रोका भी,
पर वो चली धीमे धीमे
धीमी धीमी आग की ओर,
उन जलती बुझती शाखों पर,
मुस्कुराती डोलने लगी वो,
ठंडी पड़ती शोलों को
भरने लगी गर्माहट से,
जो माँग लाई थी चंदा से,
कुछ लाली पलाश की भी
उसने उड़ा दी,
कुछ खुशबू फ़िज़ा की
घोल गयी वो,
कुछ तिलस्म वो कर गयी,
ना जाने कैसे
उन सुलगती शाखों पर,
सपनों के कुछ नाव तैराकर
तुमसे मुझको जोड़ गयी,
चंदा ने बांधा था जो पुल तुम तक
उस तक मुझको ले चली वो,
हाँ ले चली वो तुम तक,
जब समय की राख पर
बैठकर कर रही थी
मैं इंतज़ार तुम्हारा।
©®मधुमिता
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