Monday, 18 February 2019

धूप



हर दरार से झाँकती धूप

हर ज़र्रे को गर्माती धूप 

सरदी को पिघलाती

आँख मिचौली का खेल खिलाती 

सब को कस के गले लगाती

सपनों का बसंत ले आती 

उन ठूँठ सी शाखों पर 

जब बह जाती वो सुनहरी लहर

दुःख से सिहरती लताओं को

बेरंग ठिठुरते तरुओं को   

भर जाती नूतन भावनाओं से

छलकाती नयी तमन्नाओं से 

नव रंग और नव रूप धर नव यौवन 

दिया सबको नया जीवन

सुखमय सब कर जाने को

फिर फिर यूँ खो जाने को

जीवन के पतझड़ में

अनंत के हर पहर में 

उस शून्य को फिर ख़ुद में समेट

उष्णता की चादर लपेट

फिर कोनों से झाँक जाती है

घर आँगन में बिखर जाती है 

सरदी को पिघलाती धूप 

ज़र्रे-ज़र्रे को गर्माती धूप 

हर दरार से झाँकतीं धूप 

  

©®मधुमिता


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