Saturday 28 May 2016

नरासुर


भयावह हो,मासूम हो?कैसा है चेहरा तुम्हारा?
घूमते हो बीच हमारे, फिर भी ना जाना हमारा,
नज़रें तुम्हारी अनजानी सी,
अनदेखी, ना पहचानी सी,
ना जाने किस किसको ढूढ़ते रहते हो,
ना जाने किस किसका शिकार करने निकले हो !

कभी कोई मामा,चाचा,
कहीं तो भाई, काका,
कहीं अंकल, तो कहीं सखा,
हर कोई अपना सा लगा,
अनदेखे से भी लोग बहुत है,
एक ही सी मगर सबकी सूरत है।

कहीं कोई निरस्त्र,अबला नारी,
शिकार हो गयी हवस की तुम्हारी,
कभी कोई किशोरी उज्जवल,निर्मल सी,
आँखों में लिए मासूम सपने,कोमल सी,
ध्वस्त हो गयी तुम्हारी मर्दानगी के आगे,
फिर भी तुम अट्टहास करते रहे,तार-तार कर अस्मिता के धागे ।

कोई और नही गर, तो कोई बच्ची ही सही,
मासूम,कोमल,बेबस कली  कच्ची ही सही,
उसके दर्द और रूदन से तुम्हारी मर्दानगी 
और सर उठाकर,फूली नही समाएगी, 
तुम्हारे मर्दन से शायद उसका दम भी घोंट जाओगे,
कोई शिकन ना होगी चेहरे पर तुम्हारे,फिर भी मर्द कहलाओगे।

इतना ही नही बस हमारे हिस्से, 
चर्चित बहुत है तुम्हारे किस्से,
कभी हमारे अंदर लोहे की छङ डालोगे,
कभी अपने खूनी हाथ से हमें टटोलोगे,  
किसी के अंदर बोतल घुसाओगे,
तो किसी निरीह,अबोध को सिगरेट से दागोगे।

किसी का मुँह दबा, वहीं गाङ दोगे,
किसी को तङपते हुये,नग्न सङक पर फेंक दोगे,
कभी किसी को बोरी या सूटकेस में भर दूर ले जाओगे,
कहीं किसी को बंद कमरे में रोज़-रोज़ नोच खाओगे,
कब भरेगा ये राक्षस सा मन तुम्हारा,
कब तुम समझोगे दर्द हमारा । 

ये दुनिया भी आराम से सो रही है,
जागी हुई,पर आँखें बंद कर रखी है,
दो दिन को मोमबत्तियाँ जला हमारी याद में,
नारेबाज़ी करके दिन और रात में, 
मानों कूद पङे हो साथ हमारी आग में,
फिर रफ्ता-रफ्ता भूल जायेगी चंद दिनों के बाद में।    

कौन रखेगा हमारा मान,
कैसे बचाएँ हम अपनी मर्यादा,हमारी आन,
तुम्हारे घर भी तो माँ-बहन होंगी,
क्या वो भी तुम्हारी पाशविकता का शिकार होती होंगी!
सच कहें,तुम तो इंसान कहलाने के काबिल ही ना रहे,
तुम तो ढोर-डंगर से भी बदतर ही निकले।।

-मधुमिता 

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