Friday, 13 April 2018

मदारी...


जमूरे!
बोलो मदारी!
खेल दिखायेगा?
दुनिया को नचायेगा?
पर कैसा खेल
और कौन सा नाच?
वही जो तुझे सिखाया है,
इतने बरसों से बताया है!
पर मै कैसे सबको नचाऊँगा?
सबकी जीवन डोर को कैसे घुमाऊँगा?
ये दुनिया तो खुद ही सरपट भागती है,
बेतहाशा यूँ ही नाचती है,
अनदेखी सी डोर से बंधी,
कभी उठती, कभी बैठती,
बताओ तो ज़रा, किसने थामी है उनकी डोर?
सबकी डोर है उसके हाथ,
वही जो देता है सबका साथ,
नचाता है, 
बिठाता है,
हँसाता है,
रुलाता है,
वही तो है सबसे बड़ा मदारी!
रचा हुआ सब उसका सारा,
सृष्टि, सृष्टा सब वही है,
उसी की बिसात बिछी है,
चल उठ अब, खेल दिखाते हैं,
दुनिया को नचाते हैं,
सब उसी का खेला जान,
उसी की मरज़ी मान,
क्यों जमूरा!
हाँ मदारी।
 
 ©®मधुमिता 


 

Friday, 6 April 2018

रात...

सलेटी मख़मल सा ये आसमां,

बहुत अकेला है देखो!

ना तो चंदा का साथ है,

ना चाँदनी की चिलमन,

ना कोई रात का परिंदा है

और ना ही कोई पतंगा,

मोम सी पिघल रही है रोशनी शमा की

सहर के इंतज़ार में,

हर लम्हे की साँसों को सुन लो,

दस्तक जो देतीं वक़्त के दरवाज़े पर,

ख़ामोशी को सुनो,

छुपी हुई है वो इस शब के सलवटों में,

ख़ौफ़ है उसे इस अंधेरे से

गुम हो रही है जिसमें हर उजली सी उम्मीद,

देखो! आज रात स्याह बहुत है,

कुछ सितारे तुम सजा क्यों नही देते!

©®मधुमिता