Saturday 18 March 2017

शीशे के मर्तबानों के पीछे से...



कई यादें झाँकती हैं 
इन शीशे के मर्तबानों के पीछे से,
कुछ खट्टी मीठी सी,
कुछ नमकीन और तीखी सी,
मसालेदार बातें हों जैसे,
कुछ मस्त ठहाके हों जैसे।


आम के फाँकों सी
हरी-हरी, ताज़ी-ताज़ी, 
रस से सराबोर
प्यार की मानिंद,
मसालों में लिपटी,
गर्माहट मे सिमटी।


मिर्चों की लालिमा से भरी,
गुड़ की मख़मली डली,
तेल की धाराओं में खेलती,
मचलती, फिसलती,
शीशे में से झाँकती,
इतरात और इठलाती।


बरबस अपनी ओर खींचतीं, 
कभी छेड़तीं, कभी ललचाती, 
ऊष्ण सी  एक राग जगाये,
बार-बार देखो मुझे बुलाये
रंगीनियों में खो जाने को,
दिन पुराने, फिर जी जाने को।


ऊष्मा से भर-भर जाती,
हर उस स्वाद का अहसान कराती
जो संग-संग चखे थें हमने,
वो खूबसूरत सपने जो देखे थें हमने,
सब प्यार से बुलाते हैं,
गज़ब की ख़ुमारी चढ़ाते हैं।


चटख़ारों से भरी,
थोड़ी खारी,
रस भरी, 
चटपटी,
ये मचलती यादें,
झाँकती हुई, शीशे के मर्तबानों के पीछे से।।


©मधुमिता

No comments:

Post a Comment