Wednesday, 29 March 2017

बिना तेरे हाथों को थामे....




कोशिश तो थी तेरे संग चलने की,
चल पङी हूँ मैं अब बिना तेरे हाथों को थामे ।
अंधेरे डराते तो बहुत हैं ,
पर जला लेती हूँ मै मनमन्दिर मे दिया,
हवा के थपेड़े भी धकेलतीं हैंं नीचे,
चुपके से आ जाती हूँ मै फिर पीछे से,
रूकावटें  खड़ी होती हैं पहाड़ों सी,
कर लेती हूँ उनसे दो-दो हाथ, 
कटाक्षों और तानों के हुजूम भी हैं,
घायल कर रही हूँ उन्हे अपने पुरुषार्थ से, 
आँसुओं के सैलाबों के बीच 
मुस्कुरा रही हूँ मै, 
चलती चली जा रही हूँ आगे को, 
जी रही हूँ देख फिर भी, 
खुश हूँ, स्वछंद हूँ, 
अपनी धुन में मगन, स्वतंत्र हूँ, 
ना साथ है तेरा, 
ना तेरा हाथ है, 
कोशिश तो थी तेरे संग चलने की,
देख चल पङी हूँ मैं अब बिना तेरे हाथों को थामे...।।

©मधुमिता

Sunday, 26 March 2017


दूर..


मीलों दूर हैं हम

ना जाने कहाँ हो तुम! 
दिल लेकिन मेरा पास तुम्हारे
इतना, कि धड़कनें भी तुम्हारी
सुन सकती हैं मेरी धड़कनें,
साँसें मेरी तुम्हारे साँसों की गर्माहट से
तप सी जाती हैं,
इतने पास हो तुम
कि मानो कभी दूर ही ना थे हम,
मुहब्बत के रेशमी धागे से बंधे।


मुझे मुहब्बत थी तब भी तुमसे,
है आज भी मुहब्बत तुमसे,
कितना? 
समुन्दर में पानी हो जितना,
ले चलो मुझे उस बीते कल मे,
प्यार भरा था जब हर पल मे,
आँखों मे तुम्हारे डूब जाती थी,
रसीली बातों मे तुम्हारे खो जाती थी,
जब तुम और हम
चलते थे साथ साथ।


कब, कहां, कैसे,
प्यार मे इन सबके मायने नही होते,
बस सिर्फ प्यार होता है,
इक मीठा सा करार होता है,
देखो दिख रही है तुम्हारी आँखें मुझे,
डूब रही हूँ उनमें मै, प्यार के सागर में,
महसूस करती हूँ तुम्हे मेरे आसपास, 
हो नही तुम इधर मगर, फिर भी बिल्कुल पास,
नही हो सकते तुम दूर मुझसे,
साथ रहोगे हरपल तुम, मुझमे ही सिमटे।।

©मधुमिता

Saturday, 18 March 2017

शीशे के मर्तबानों के पीछे से...



कई यादें झाँकती हैं 
इन शीशे के मर्तबानों के पीछे से,
कुछ खट्टी मीठी सी,
कुछ नमकीन और तीखी सी,
मसालेदार बातें हों जैसे,
कुछ मस्त ठहाके हों जैसे।


आम के फाँकों सी
हरी-हरी, ताज़ी-ताज़ी, 
रस से सराबोर
प्यार की मानिंद,
मसालों में लिपटी,
गर्माहट मे सिमटी।


मिर्चों की लालिमा से भरी,
गुड़ की मख़मली डली,
तेल की धाराओं में खेलती,
मचलती, फिसलती,
शीशे में से झाँकती,
इतरात और इठलाती।


बरबस अपनी ओर खींचतीं, 
कभी छेड़तीं, कभी ललचाती, 
ऊष्ण सी  एक राग जगाये,
बार-बार देखो मुझे बुलाये
रंगीनियों में खो जाने को,
दिन पुराने, फिर जी जाने को।


ऊष्मा से भर-भर जाती,
हर उस स्वाद का अहसान कराती
जो संग-संग चखे थें हमने,
वो खूबसूरत सपने जो देखे थें हमने,
सब प्यार से बुलाते हैं,
गज़ब की ख़ुमारी चढ़ाते हैं।


चटख़ारों से भरी,
थोड़ी खारी,
रस भरी, 
चटपटी,
ये मचलती यादें,
झाँकती हुई, शीशे के मर्तबानों के पीछे से।।


©मधुमिता

Thursday, 9 March 2017

वक्त का आईना

काश मै इस वक्त को कैद कर पाती,
हमेशा-हमेशा के लिए!
किसी कैमरे में नही,
शायद उस आईने में?
तुम्हारे अक्स के साथ,
या उससे भी बेहतर,
इस शीशे के मर्तबान में
जो मुझे तुम्हे भूलने ही ना दे,
याद रखने को मजबूर करे
इन आँखों के सामने रह,
बार-बार ललचाये,
इन आँखों की प्यास बढ़ाये।

कुछ इस तरह मेरी ज़ुबान को
तुम्हारा ज़ायका बताये,
बिना मेरे लबों का तुम्हे छुये
या मेरे चेहरे का
तुम्हारे चेहरे के करीब आये,
फिर भी मेरी नज़रों में कैद
तुम्हारी नज़रें,
शीशे की हर दीवार को पिलाकर,
इक दूजे को सहलाती,
गले मिलती,
कुछ मीठे, कुछ नमकीन से ज़ायकों में
डूबते उतराते।

अलग-अलग मुकाम हमारे,
अलग-अलग है मंज़िल,
फिर भी इस कदर पास रखूँ तुम्हे
कि तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू,
इत्र की महक
रह रहकर मदहोश कर जाये मुझे,
हवा भी लेकिन
तुमसे मुझ तक ना आ सके,
फिर भी मेरी ज़ुल्फ़
उँगलियों के बीच तुम्हारे
इतराने लगे,
जुदा से आसमां तले।

चाहे अलग जगह हो,
या अलग ही जहाँ हो,
अलग-अलग सफ़र हो,
अलग कारवाँ हो,
मुहब्बत के धागे से
दिल अपने बंधे हो,
रूह दो आज़ाद
आसमानों में फिरते हों,
कुछ इस कदर मेरे ख़्वाब तामिल हो जायें,
कुछ हक़ीक़त में बदल जायें,
एक दूसरे में समा जायें,
वक्त के आईने में
दोनों यूँ ही कैद हो जायें।।


©मधुमिता