हाथों की लकीरें
हाथों की तंग लकीरों
की मकड़जाल सी गलियों
से बहुत दूर निकल आए,
अरमां थे कि मंजि़ल को पाएं,
अहसासों के छोर को पकड़,
अपने से उसको, बाहों में जकड़,
भरकर खुशियों से दामन
सजा लूं अपना घर आंगन l
खेल यूं रचा तकदीर ने,
घुटने टेके तदबीर ने,
ना मंज़िल मिली,ना घर आंगन,
ना थामने को कोई प्यार भरा दामन!
बंद पड़े हैं सारे दर औ दीवार,
ना कोई महफ़िल ही है, ना विसाले यार!
-मधुमिता
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