Saturday, 9 April 2016

ग़िला


किस किस से यहां ग़िला करें,
जब क़िस्मत ही अपनी दग़ा करे।

किसका यहां भरोसा करें,
जब अपना भी कोई यहां सगा नही।

बिछङने का क्या ग़म करूं,
जब दिल ही दिल से कभी मिला नही।

मौत से मैं क्या और क्यूं डरूं?
जब जीने की अब कोई हसरत ही नही।

ख्वाहिशें सब खामोश हो गईं ,
जुस्तजू बस तुझसे मिलने भर की है।

तेरी तो कोई खता थी ही नही,
किस्मत ही मेरी, बेवफ़ा, दग़ाबाज़ निकली।।

-मधुमिता

No comments:

Post a Comment