नासूर
ज़ख़्म हैं कि भरते नहीं,
बस, नासूर बने जाते हैं...
गलतियों के क्या कहने,
बस कसूर किये जाते हैँ,
वक्त बेवक्त यूंही बस,
चोट किये जाते हैं।
हम भी होंठों को सी कर,
हर चोट सहते जाते हैं,
ये चोट भी धीरे धीरे, ना
काबिले बर्दाश्त हो,दर्द बनते जाते हैं,
दर्द भी चुपके चुपके,
दबे पांव आ जाते हैं ,
तन और मन दोनो को ही,
अपनी चपेट में ले जाते हैं ।
ये दर्द और चोट धीमे धीमे,
हर सांस घोंटते जाते हैं ,
ये सांसें मेरी सिसकियाँ भरती,
गहरे ज़ख़्म बनाते जाते हैं ।
हर ज़ख़्म टीस देती रह रह कर,
क्यों ना दर्द इनसे रिस जाता है !
रिस रिस कर क्यों नही
हर ज़ख़्म सूखकर भर जाता है।
दुआ मेरी बेकार हुई,
हर दर्द भी यूँ बेकाबू हुई,
रो रो दिल नाशाद हुआ,
हर ज़र्रे का ज़ख़्म आबाद हुआ।
और ये ज़ख़्म हैं कि भरते नहीं,
बस, नासूर बने जाते हैं...।।
-मधुमिता
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