Sunday, 24 April 2016

पाषाण नही तुम हो इंसान



दूर  दूर तक  कानों  में  ना कोई धड़कन, 
ना आवाज़ , ना  ही  थिरकन 
रक्त  के  संचार  की , बस  कथन, 
बंधन ,रुदन , आदेश , निर्देशन ,
चलते  फिरते लोगों  का  जमघट,
फिर  भी  ये अँधेरे  का  झुरमुट ,
चीत्कार  है  हाहाकार  है,
फिर  भी  मानो  सब  मूक-बधिर  हैं, 
चेतना  है, तकलीफें  हैं,  दर्द  हैं, 
अहसास  सारे  फिर  भी  सर्द  हैं ।

खून  का  वो  ज़ोर  कहाँ है? 
इंसानियत  की डोर  कहाँ  है ?
थामने वाले हाथ सिमट गये,
आंतरिकता के भाव भी मिट गये,
दिल बस अब मशीन माफ़िक धङकता है, 
किसी पर भी अब ना ये मर मिटता है,
किसी का ना कोई मीत यहाँ अब,
ना कोई सगा,ना ही कोई रब,
हर कोई अपना ही भगवान है,
पत्थर की मूरत में भी अब इनसे ज़्यादा प्राण है।

क्या हुआ? कैसे हुआ?
जीव क्योंकर यूँ निर्जीव हुआ? 
जीवन क्यों इतना बदला यूँ, 
जी रही हों लाशें ज्यूँ ,
प्रेम प्यार का अब कोई ना मोल,
ना कहीं कोई बोले, दो मीठे बोल, 
बन चुके  सब क्यों यूँ  पाषाण  हैं! 
भूल चुके सब दीन ईमान हैं, 
मत बनने दो अपनी दुनिया को मशान,
जागो, क्योंकि तुम हो हाङ मांस के इंसान। 

-मधुमिता 

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