यह धरती हमारी
हरी भरी अपनी धरा को माँ सबने है माना यहाँ,
आँखें खुली तो जिसने अपनी गोद दी सबको जहाँ,
अपने आँचल में समेटा सबको अपना जानकर,
पेङ,पौधे,तरु,लता,पंछी,नदियाँ,इंसान,जानवर,
ना किसी से कोई वैर कभी,ना किसी से ईर्ष्या,
हर पल हर पीढ़ी को वो देती जा रही क्या क्या।
मदमस्त विचरते प्राणियों को माना अपना,
हर वृक्ष,पहाङ,नदी, घाटी है इसका गहना,
कल-कल बहती नदियाँ सिखाती इसका संगीत,
कलरव करते पंछी सब इसके हैं मीत,
खाद्य और जल की देवी, हो अन्नपूर्णा तुम,
तुम तो जीवन दायिनी,हैं आभारी हम।
खेलने को दिये हरेभरे मैदान,
खाने को हर अन्न और धान ,
पेङों को सींचा तुमने,
फल पर पाये सब हमने,
बसने को दी हसीन घाटियाँ,
हर ओर बसा ली हमने अपनी दुनिया ।
दुनिया एक ईंट और पत्थर की,
जिसमें जगह नही किसी और की,
जंगल हमने सब दिये हैं काट,
पशुओं की जगह कब्जाकर,उनको दे दी मात,
नदियों के हृदय भी कर दिये संकुचित,
अपने हर दुष्कर्म को ठहराते उचित।
बङे स्वार्थी निकले हम आदम की ज़ात,
तरक्की के नाम पर करते बङी बङी बात,
अपनी ही माँ को नग्न किया,
काम बङा जघन्य किया,
वो भी तो रोई होगी अनेकों बार,
पर सुना ना हमने, किया उसके आँचल को तार-तार।
हमें क्या हक़ है इन खूबसूरत वादियों को उजाड़ने का,
डाईनामाईट से इन्हें उड़ाकर, अपने आशियाने बनाने का ,
नेताओं की जेबें भर, खग,पखेरू, जानवरों को बेघर कर,
कौन सा सुकर्म, कर रहे हैं, बेखौफ़, हो निडर,
अब डोल डोल धरती हमको डरा रही है,
अब सम्भल लो ऐ दुनिया वालों,ये जता रही है ।
कर रही है आगाह हमें हर उस डरावने हकीकत से,
जब जल ना होगा, ना होगा कोई पंछी प्राणी नभ तल में,
जब शुद्ध वायु भी ना मिल पाएंगी साँसों को,
तब ख़ाक जियेंगे या जिलायेंगें अपने वंशधरों को !
अपने आने वाली पुश्तों के लिए क्या यही छोड़ जाएंगे विरासत !
ज़रा सोचें,क्या जवाब देंगें जब धरती करेगी शिकायत ।।
-मधुमिता
हरी भरी अपनी धरा को माँ सबने है माना यहाँ,
आँखें खुली तो जिसने अपनी गोद दी सबको जहाँ,
अपने आँचल में समेटा सबको अपना जानकर,
पेङ,पौधे,तरु,लता,पंछी,नदियाँ,इंसान,जानवर,
ना किसी से कोई वैर कभी,ना किसी से ईर्ष्या,
हर पल हर पीढ़ी को वो देती जा रही क्या क्या।
मदमस्त विचरते प्राणियों को माना अपना,
हर वृक्ष,पहाङ,नदी, घाटी है इसका गहना,
कल-कल बहती नदियाँ सिखाती इसका संगीत,
कलरव करते पंछी सब इसके हैं मीत,
खाद्य और जल की देवी, हो अन्नपूर्णा तुम,
तुम तो जीवन दायिनी,हैं आभारी हम।
खेलने को दिये हरेभरे मैदान,
खाने को हर अन्न और धान ,
पेङों को सींचा तुमने,
फल पर पाये सब हमने,
बसने को दी हसीन घाटियाँ,
हर ओर बसा ली हमने अपनी दुनिया ।
दुनिया एक ईंट और पत्थर की,
जिसमें जगह नही किसी और की,
जंगल हमने सब दिये हैं काट,
पशुओं की जगह कब्जाकर,उनको दे दी मात,
नदियों के हृदय भी कर दिये संकुचित,
अपने हर दुष्कर्म को ठहराते उचित।
बङे स्वार्थी निकले हम आदम की ज़ात,
तरक्की के नाम पर करते बङी बङी बात,
अपनी ही माँ को नग्न किया,
काम बङा जघन्य किया,
वो भी तो रोई होगी अनेकों बार,
पर सुना ना हमने, किया उसके आँचल को तार-तार।
हमें क्या हक़ है इन खूबसूरत वादियों को उजाड़ने का,
डाईनामाईट से इन्हें उड़ाकर, अपने आशियाने बनाने का ,
नेताओं की जेबें भर, खग,पखेरू, जानवरों को बेघर कर,
कौन सा सुकर्म, कर रहे हैं, बेखौफ़, हो निडर,
अब डोल डोल धरती हमको डरा रही है,
अब सम्भल लो ऐ दुनिया वालों,ये जता रही है ।
कर रही है आगाह हमें हर उस डरावने हकीकत से,
जब जल ना होगा, ना होगा कोई पंछी प्राणी नभ तल में,
जब शुद्ध वायु भी ना मिल पाएंगी साँसों को,
तब ख़ाक जियेंगे या जिलायेंगें अपने वंशधरों को !
अपने आने वाली पुश्तों के लिए क्या यही छोड़ जाएंगे विरासत !
ज़रा सोचें,क्या जवाब देंगें जब धरती करेगी शिकायत ।।
-मधुमिता
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