Saturday, 30 April 2016

अजब ग़जब सी दुनिया 



ये दुनिया भी गज़ब का मेला,
इतनी भीङ पर हर कोई अकेला,
कभी हँसना,तो कभी है रोना,
कुछ खोना,तो कुछ है पाना।।

खिलखिलाते कुछ चेहरे हैं,
कुछ ग़म छुपाते सेहरे हैं,
सर पर छत नीले अम्बर का,
जीवन ये सागर खुशियों  का।।

साँसों की सरगम चहुँओर, 
झरनों की कलकल का शोर, 
हर ओर मानो हो मौसीक़ी,
जमीं-आसमान की आशीकी।।

मस्तानी हवा कहीं पत्ते फङफङाती, 
कही खङी फसल को खुशी से लहलहाती, 
कभी चिरैया से करती अठखेलियां, 
कभी छेङती गेहूँ  की बालियाँ ।।

रात में चंदा की मनमानी, 
चांदनी को करती रूमानी, 
चटक चांदनी का अल्हड़पन, 
रोम रोम में भर देता दीवानापन।।

रंगबिरंगी तितलियाँ हैं उङती,  
हर फूल फूल पे बैठती,
मानों उनसे रंग चुराना,
उन रंगों से फिर दुनिया को रंगना।।

कहीं रेगिस्तान की तपती रेत,
कही नदियों के ठंडे तट,
कही उफनता सागर का रोष,
कभी बिजली दिखाती आक्रोश ।।

नदी,सागर से मिलने को रहती बेताब,
निर्मल प्यार ले बहता उसका आब,
सागर पर आता धरा से मिलने,
उसे बस छू भर कर वो लगता भागने।।

प्रकृति का करतब निराला, 
कहीं अंधेरा,तो कहीं उजाला,
ऊपर है बादलों का रेला,
नीचे धूप छांव का खेला।

अजब गजब सी दुनिया हमारी, 
प्रकृति ने प्यार से संवारी,
देते रहतें अनेकों भेंट इसके हाथ,
ढेरों प्रेम और प्यार निस्वार्थ ।।

बचपन बीता, आई जवानी, 
फिर भी उसकी वही रवानी,
बचपन में जिस आँचल में खिलाती है,
अंत में,उसी आँचल में,चिरनिद्रा में सुला लेती है ।।

-मधुमिता 

Thursday, 28 April 2016

कुछ बीते हुये दिन,कुछ अधूरे से वादें

कुछ बीते हुये वो दिन,
कुछ भूली बिसरी यादें,
कुछ पुराने से पलछिन,
कुछ अधूरे से वादें ।।

याद बहुत अाते हैं वो बीते हुए पल,
वो मीठा सा रिश्ता,वो प्यार निश्छल,
वो हमारा तुमको देख इतराना
और तुम्हारा शरारत भरी नज़रों से मुस्कुराना।।

किसी ना किसी बहाने हमारा छत पर जाना,
पीछे पीछे हमारे, तुम्हारा भी वहीं आना,
वो गुलाबी सा हर आलम,
साथ आता हर दूसरा जब लगता था ज़ालिम।।

वो तुम्हारे नाम की ओढ़नी हरी,
तुम्हारे प्यार की सौगात,लाल चूङी, 
सब कुछ आज भी रखा है सम्भाले, 
दिल है आज भी तुम्हारे हवाले ।।

माथे पर सजती बिंदु लाल,
हमारी लहराती सी चाल, 
कदमों में हमारी बला की नज़ाकत, 
तुम्हारे अदाओं की नाज़ुक नफ़ासत।।

सिले हुए से दो लब हमारे, 
गीले से वो लफ़्ज़ तुम्हारे,
रोम रोम भीगो जाते थे,
एक दूजे में हम समा जाते थे।।

ना अपना होश,ना औरों की खबर,
दो दिल एक दूजे में खो जाने को बेसब्र,
कानों में फुसफुसाते,कुछ वादे,
बांटने सब दुःख दर्द आधे आधे।।

फिर इक दिन ऐसी हवा चली,
सारे सपने और अरमान ले उङी,
जाने नज़र लगी किसकी,
साथ रह गए तमाम आँसूं और सिसकी।।

आओ वो पल फिर जी लें हम,
वादों को पूरा कर लें हम,
बीते दिन फिर ताज़ा करें,
वो सोया प्यार, ज़िन्दा करें ।।

फिर ओढ़ें हम हरी ओढ़नी, 
तुम्हारे नाम की बने बावरी,
सिंदूरी बिंदी माथे सजे,
हाथों में लाल चुङियाँ बजे।।

मौसम हो शराबी, 
मदमस्त माहौल गुलाबी, 
एक दूजे में फिर खो जायें हम,
हर दर्द सब पुराने भुलाकर हम।।

सपनों का संसार सजा लें, 
खुशियों के बाज़ार लगा लें, 
रंगीन सपनों की रोशनी में, 
खूबसूरत सी हम दुनिया बसा लें।।

आओ जी आयें कुछ बीते हुये वो दिन,
कुछ भूली बिसरी यादें,
कुछ पुराने से पलछिन,
और पूरे कर आयें,कुछ अधूरे से वादें ।।

-मधुमिता

Wednesday, 27 April 2016

shabdaamrit शब्दामृत-मधुमिता: बर्फ होते रिश्तेपगला सा ये मन मेरा,हो जाने को...

shabdaamrit शब्दामृत-मधुमिता: बर्फ होते रिश्ते



पगला सा ये मन मेरा,
हो जाने को...
: बर्फ होते रिश्ते पगला सा ये मन मेरा, हो जाने को बैठा सिर्फ तेरा, तुझमें ही रम जाना चाहे, डगर कठिन हो कितनी भी चाहे। तुझ संग ये चाहे...
बर्फ होते रिश्ते



पगला सा ये मन मेरा,
हो जाने को बैठा सिर्फ तेरा,
तुझमें ही रम जाना चाहे,
डगर कठिन हो कितनी भी चाहे।
तुझ संग ये चाहे उङना,
दुनिया में बेझिझक फिरना,
खुशियों से झोली भरना चाहे,
बाँहों में तेरी डाले बाँहें ।।

आँखें तुझ बिन खाली सी,
सपनों की एक जाली सी
इनमें,मानों मोतियाबिंद उतर आया हो,
रोशनी में भी गहरा अंधियारा छाया हो।
रंगीन सपने सम्भाले हुए, 
खुशफ़हमियाँ कुछ पाले हुए,
हठ पर ये उतर आईं हैं,
बंद होने को तैयार नही हैं।।

गरमाहट दो दिलों की मिलकर,
हर बर्फीले चट्टान को पिघलाकर,
इन आँखों में सतरंगी सपने सजायेंगे,
अपने अरमानों का जहां बसायेंगे।
ऐसे कुछ अरमान सजे थे,
कुछ ऐसे ख्वाहिश जागे थे,
धुंधली सी पर थी तस्वीर,
दग़ा दे गयी मेरी तकदीर ।। 

अब किस जहां को तलाशती हैं आँखें !
किस तपिश की चाह करता है दिल ?
बेरहम  सी  दुनिया  में ,
यूँ अहसासों की भूलभुलैय्या में।
अब तो इंतज़ार का दामन छोड़, 
खुशफहमी  के  धागे तोड़ ,
कि दिन हुए कुछ पूरे से,
घिरे हुए स्याह अंधियारे से।।

अधूरी सी है ज़िन्दगी,
अब तो वक्त है रुख़सती की,
पथराती  सी नज़रें,
थमतीं सी धङकनें,    
चरमराता यकीं,
सर्द होता बदन,
हसरतों और अरमानों की सलवटें 
और उनपर बर्फ  होते  से  रिश्ते !!

-मधुमिता

Sunday, 24 April 2016

पाषाण नही तुम हो इंसान



दूर  दूर तक  कानों  में  ना कोई धड़कन, 
ना आवाज़ , ना  ही  थिरकन 
रक्त  के  संचार  की , बस  कथन, 
बंधन ,रुदन , आदेश , निर्देशन ,
चलते  फिरते लोगों  का  जमघट,
फिर  भी  ये अँधेरे  का  झुरमुट ,
चीत्कार  है  हाहाकार  है,
फिर  भी  मानो  सब  मूक-बधिर  हैं, 
चेतना  है, तकलीफें  हैं,  दर्द  हैं, 
अहसास  सारे  फिर  भी  सर्द  हैं ।

खून  का  वो  ज़ोर  कहाँ है? 
इंसानियत  की डोर  कहाँ  है ?
थामने वाले हाथ सिमट गये,
आंतरिकता के भाव भी मिट गये,
दिल बस अब मशीन माफ़िक धङकता है, 
किसी पर भी अब ना ये मर मिटता है,
किसी का ना कोई मीत यहाँ अब,
ना कोई सगा,ना ही कोई रब,
हर कोई अपना ही भगवान है,
पत्थर की मूरत में भी अब इनसे ज़्यादा प्राण है।

क्या हुआ? कैसे हुआ?
जीव क्योंकर यूँ निर्जीव हुआ? 
जीवन क्यों इतना बदला यूँ, 
जी रही हों लाशें ज्यूँ ,
प्रेम प्यार का अब कोई ना मोल,
ना कहीं कोई बोले, दो मीठे बोल, 
बन चुके  सब क्यों यूँ  पाषाण  हैं! 
भूल चुके सब दीन ईमान हैं, 
मत बनने दो अपनी दुनिया को मशान,
जागो, क्योंकि तुम हो हाङ मांस के इंसान। 

-मधुमिता 

Saturday, 23 April 2016

shabdaamrit शब्दामृत-मधुमिता: तृष्णाना  मिट्टी  से  गढ़ी  हूँ ,ना  तराशी  ...

shabdaamrit शब्दामृत-मधुमिता:
तृष्णा



ना  मिट्टी  से  गढ़ी  हूँ ,
ना  तराशी  ...
: तृष्णा ना  मिट्टी  से  गढ़ी  हूँ , ना  तराशी  हूँ  पत्थर  से,  इंसानियत  का  अंश हू सींची  गयी  हूँ  लहू  से l दो नयन है सपनों से...

shabdaamrit शब्दामृत-मधुमिता: तृष्णाना  मिट्टी  से  गढ़ी  हूँ ,ना  तराशी  ...

shabdaamrit शब्दामृत-मधुमिता:
तृष्णा



ना  मिट्टी  से  गढ़ी  हूँ ,
ना  तराशी  ...
: तृष्णा ना  मिट्टी  से  गढ़ी  हूँ , ना  तराशी  हूँ  पत्थर  से,  इंसानियत  का  अंश हू सींची  गयी  हूँ  लहू  से l दो नयन है सपनों से...

तृष्णा



ना  मिट्टी  से  गढ़ी  हूँ ,
ना  तराशी  हूँ  पत्थर  से, 
इंसानियत  का  अंश हू
सींची  गयी  हूँ  लहू  से l

दो नयन है सपनों से लबालब ,
ढूढ़ रहे हैं उस मंज़िल को,
जहाँ मिल पाओगे तुम,
भरे हुये नीर डबाडब।

एक दिमाग जो जागता है हरपल,
हर आहट पर सतर्क रहता,
कहीं तुम्हारी आहट भी खो जाये ना उससे,
इस आस में जीवन डोर थामे बैठा ।

दो होंठ काँपते रहते हैं, 
ले लेकर तुम्हारा ही नाम,
बुदबुदाते हुये यही कहते
आओ, अब तो मेरा हाथ लो थाम।

एक ह्रदय  है  धड़कता  सा, 
कुछ  अहसास  हैं,ज़िन्दा  से,
आस का रक्त संचार है,
तुम्हे पुकारती धङकन है ।

रंगीन सी कुछ यादें हैं, 
धुंधले  से  कुछ  सपने  हैं,
बंध होती नज़रें हैं,   
मद्धिम  पड़ती  साँसे  हैं ।

आ जाओ कि अब वक्त बहुत है कम, 
आँखें मेरी पथराने लगी,हो होके नम,
मेरी दुनिया में अंधेरे से पहले तुम, 
आखिरी बार रोशन कर दो ये मन।

आखिरी झलक दिखा जाओ,
तुम्हें समाकर इन नयनों में दो,
तुमको मुक्त मैं कर जाऊँ,
आओ इस इंसान की बस,इतनी सी तृष्णा मिटा जाओ।।

-मधुमिता 

Friday, 22 April 2016

यह धरती हमारी 



हरी भरी अपनी धरा को माँ सबने है माना यहाँ, 
आँखें खुली तो जिसने अपनी गोद दी सबको जहाँ,
अपने आँचल में समेटा सबको अपना जानकर,
पेङ,पौधे,तरु,लता,पंछी,नदियाँ,इंसान,जानवर,
ना किसी से कोई वैर कभी,ना किसी से ईर्ष्या,
हर पल हर पीढ़ी को वो देती जा रही क्या क्या।

मदमस्त विचरते प्राणियों को माना अपना,
हर वृक्ष,पहाङ,नदी, घाटी है इसका गहना,
कल-कल बहती नदियाँ सिखाती इसका संगीत,
कलरव करते पंछी सब इसके हैं मीत,
खाद्य और जल की देवी, हो अन्नपूर्णा तुम,
तुम तो जीवन दायिनी,हैं आभारी हम।

खेलने को दिये हरेभरे मैदान,
खाने को हर अन्न और धान ,
पेङों को सींचा तुमने,
फल पर पाये सब हमने,
बसने को दी हसीन घाटियाँ,
हर ओर बसा ली हमने अपनी दुनिया ।

दुनिया एक ईंट और पत्थर की,
जिसमें जगह नही किसी और की,
जंगल हमने सब दिये हैं काट,
पशुओं की जगह कब्जाकर,उनको दे दी मात,
नदियों के हृदय भी कर दिये संकुचित,
अपने हर दुष्कर्म को ठहराते उचित।

बङे स्वार्थी निकले हम आदम की ज़ात,
तरक्की के नाम पर करते बङी बङी बात,
अपनी  ही माँ को नग्न किया,
काम बङा जघन्य किया,
वो भी तो रोई होगी अनेकों बार,
पर सुना ना हमने, किया उसके आँचल को तार-तार।

हमें  क्या  हक़ है इन खूबसूरत वादियों को उजाड़ने का,
डाईनामाईट से इन्हें उड़ाकर, अपने आशियाने बनाने का ,
नेताओं की जेबें भर, खग,पखेरू, जानवरों को बेघर कर,
कौन सा  सुकर्म, कर रहे हैं, बेखौफ़, हो निडर,
अब डोल डोल धरती हमको डरा रही है, 
अब सम्भल लो ऐ दुनिया वालों,ये जता रही है ।

कर रही है आगाह हमें हर उस डरावने हकीकत से,
जब जल ना होगा, ना होगा कोई पंछी प्राणी नभ तल में,  
जब शुद्ध वायु भी ना मिल पाएंगी साँसों को,
तब ख़ाक जियेंगे या जिलायेंगें अपने वंशधरों को !
अपने आने वाली पुश्तों के लिए क्या यही छोड़ जाएंगे विरासत !
ज़रा सोचें,क्या जवाब देंगें जब धरती करेगी शिकायत ।।

-मधुमिता

Thursday, 21 April 2016

सुकून से सो जाऊँगी 




खाली  कमरे   की  मानिंद ,
खाली  सा  दिल  लिए 
करती  हूँ  इंतज़ार  तुम्हारा ।

खुली  खिड़कियाँ ,
खुले  दरवाज़े  भी बाट
देख   देख  थक   गए ।

रात की चादर भी,
हौले हौले,सरकते 
हुये ढलने लगी ।

सितारे भी टिमटिमा
टिमटिमाकर,थक कर
अब सोने चले ।

हवा भी धीमे धीमे,
चलते चलते अब 
देखो, रूख़ बदलने लगी ।

चाँद भी तुम्हारी राह देख 
देख, अब बादलों के 
झुरमुट में जा छुपा ।

जुगनू भी तुमको
हर ओर ढूढ़ ढूंढ़,
जल जल मरे ।

पलकें नींद से भारी हुई जातीं हैं 
मौत भी मुझे आगोश 
में लेने को, दीवानी हुई जाती है ।   

अब  तो   आ  जाओ, कि  
अबतो  निगाहें  भी  
बंद  हुई  जातीं  हैं ।

देखो  मेरी ओर भी दो घडी , 
इस  दिल  में  बनालो 
फिर से बसेरा  अपना ।

फिर जी लूँ मैं ज़रा,
तुम्हारा दीदार कर लूँ नज़र भर,
घङी दो घङी को ही सही ।

तुम्हें नज़रों में बंद कर चली जाऊँगी,
ज़िन्दगी पूरी, दो घङी में जी जाऊँगी, 
इस दिल में तुमको बसाकर,फिर सुकून से सो जाऊँगी ।
फिर सुकून से हमेशा को सो जाऊँगी ।।

-मधुमिता

Wednesday, 20 April 2016

हाँ यही है प्यार 



स्याह,अंधियारी,सर्द  चादर  
के  नीचे,  गर्माते से 
सपनो  के  हसीन  रंग, 
शरमाती  ये  नज़रें ,
जलतरंग  है  अंग l

हलचल से मचाते कुछ जज़्बात, 
आँखें करती आँखों से बात,
शबनमी सी साँसें,
गुलाबी सा मौसम ,
उलझीं जो ये नज़रें तोसे।

दिल से यूँ दिल का खिंचाव ,
है नसीबों का अजीबोगरीब जुङाव,
प्रीत के धागे जो तुमसे उलझे,
अब तुम्ही सुझाओ 
कि ये कैसे सुलझे ।

बहकी बहकी सी मैं फिरूँ,
चहकती-लहकती सी मैं रहूँ,
अजीब नशे में मै डूब रही,
सम्भलने की लाख़ कोशिश करूँ,
फिर भी मैं लङखङा रही ।

दिल गुलज़ार है,
दबे से इज़हार हैं,
सितारे आसमां से देखते हैं,
मै ठहर सी जाती हूँ,
जब हर तरफ जुगनू से जलते हैं ,

कुछ सोचे सूझता नही,
कुछ कहते भी बनता नही,
आह सी कमबख़्त निकल आती है, 
तेरी तस्वीर देख ,
सादी सी शक्ल भी मेरी, खुदबखुद संवर जाती है।

मदहोशी  का रुमानी अहसास, 
तोसे मिलन को तकती हर आस,
साँसों की लयबद्ध झंकार 
कहे जा रही ये बारम्बार ,
हाँ यही है, यही तो है प्यार ll

-मधुमिता

Monday, 18 April 2016

नासूर 

ज़ख़्म हैं कि भरते नहीं,

बस, नासूर बने जाते हैं...

गलतियों के क्या कहने,

बस कसूर किये जाते हैँ,

वक्त बेवक्त यूंही  बस,

चोट किये जाते हैं।

हम भी होंठों को सी कर,

हर चोट सहते जाते हैं, 

ये चोट भी धीरे धीरे, ना 

काबिले बर्दाश्त हो,दर्द बनते जाते हैं,

दर्द भी चुपके चुपके,

दबे पांव आ जाते हैं ,

तन और मन दोनो को ही,

अपनी चपेट में ले जाते हैं ।

ये दर्द और चोट धीमे धीमे,

हर सांस घोंटते जाते हैं ,

ये सांसें मेरी सिसकियाँ भरती,

गहरे ज़ख़्म बनाते जाते हैं ।

हर ज़ख़्म टीस देती रह रह कर,

क्यों ना दर्द इनसे रिस जाता है !

रिस रिस कर क्यों नही

हर ज़ख़्म सूखकर भर जाता है।

दुआ मेरी बेकार हुई,

हर दर्द भी यूँ बेकाबू हुई,

रो रो दिल नाशाद हुआ,

हर ज़र्रे का ज़ख़्म आबाद हुआ।

और ये ज़ख़्म हैं कि भरते नहीं,

बस, नासूर बने जाते हैं...।।

-मधुमिता

Sunday, 17 April 2016


बेटी



माँ बाबा आज करो ज़रा हिसाब, 

दे दो आज मेरे सवालों के जवाब, 

क्यों भाई को अपना बनाया,

और मुझे सदा धन पराया?


उसके सपने सब तुम्हारे अपने ,

मेरे सपने सिर्फ मेरे सपने,

उससे हर उम्मीद है बांधी

और मैं क्यों हर परंपरा की ज़न्जीर से बंधी?


उसको उङने की दी आज़ादी,

मेरे हर कदम पर पाबंदी,

उससे है जुङाव गहरा,

और मेरी हर हरकत पर पहरा!


भाई तुम्हारे जिगर का टुकङा,

मुस्कुराते देख उसका मुखङा,

मै भी तो हूँ  तुम्हारी जाई,

फिर क्यों तुम्हारा सब कुछ सिर्फ भाई?


क्यों नही देखे सपने तुमने मेरी आँखों से?

क्यों कर दिया अलग मुझे अपनी छाँव से?

देते ज़रा लेने मेरे पंखों को भी उङान,

मै कुछ बनकर दिखाती,बनती तुम्हारी शान।


वंश का वो कुलदीप तुम्हारा ,

बताओ तो क्या नाता हमारा!

क्यों नही मैं तुम्हारा गौरव,मान?

वस्तु की भांति,क्यों कर दोगे मेरा दान?


दुनिया भर के हर अधिकार हैं उसके,

तुम्हारा घर परिवार है उसके,

हर पूजा मे भाग है उसका,

मै तो बस ताकूँ मुंह सबका।


अंतिम यात्रा में भी भाये उसका कांधा,

उसी से प्रेम प्यार का धागा बांधा,

मै भी हूं बेटी तुम्हारी ,

फिर भी ना बन सकी तुम्हारी दुलारी!


मेरे घर का खाना भी पाप,

उसका फिर खाओ क्यों आप?

मेरे प्यार में ना देखी तुमने भक्ति ,

वो क्योंकर देगा तुम लोगों को मुक्ति?


आखिर में अग्नि भी उसकी,

अब भी सुनी ना तुमने मेरी सिसकी,

मेरा भी है तुमपर अधिकार,

तुम भी तो हो मेरा परिवार !


क्यों रखा मुझे दूर,ना माना अपना?

क्यों दुनिया की सुन,मुझको हरदम पराया जाना?

हूँ तो मै अंश तुम्हारा,क्या हुआ जो आई बनकर बेटी,

आज मुझे तुम बताओ कि आख़िर मेरी क्या ग़लती?


-मधुमिता



Thursday, 14 April 2016


हम



हरे  दूब  की  चादर 

सी  फैली  खामोशी,

मखमली  अँधेरे  को 

समेटे  गीली  सी  रोशनी ,

यूँ रूह  को  भिगो  जाती ।


रंगीन  से  जज़्बात ,

नजाकत  भरे  पल ,

सर्द  गुलाबी  मौसम  

और तितली  सा  

हुआ जाता ये  मन।


सूखे हुये ये होंठ,

कांपते हुये से बोल,

सुर्ख़ से मेरे अहसास 

और इश्क से सराबोर, 

भीगा सा मेरा अन्तर्मन ।


सितारों की चमक

स्याह दुशाले से आसमाँ

को,दुल्हन सा चमकाता,

और मेरे दिल के एक कोने में,

हल्के से टिमटिमाता प्यार का दिया।


रेशमी से इस उजाले में

पास आते दो दिल हमारे,

आपस में उलझी उंगलियाँ,

थामती हुई गर्म साँसों की डोर

और उन साँसों की लहरों में डूबते हम।


धौंकनी सी चलती साँसें,

अंगारों से दहकते अहसास, 

जलते हुए से दो जिस्म

सिमटते हुये,सर्द से माहौल में,

एक दूसरे में पिघलते हम।।


-मधुमिता 


तुम्हारी  नपुंसकता



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नहीं   ये  तुम्हारी  इच्छा, मर्ज़ी  नहीं, 

ना  जोर  है  कोई ,

बल्कि  ये तो  गूँज  है

तुम्हारी  नपुंसकता  की ,

जो  सुनाई  दे   रही  है, 

दौड़ा  रही  है , भगा रही  है 

तुम्हे , मुझे  समझने   में  

असमर्थ बना  गयी  है  तुम्हे, 

एक  दीवार  खींच  ली 

है  तुमने , जो  लगातार  ताकती 

है, रोकती  है  मेरी  इच्छाओं   को, 

मेरे  उन जज्बातों  को, 

जो  सृजन  करना  चाहती  है 

नव जीवन  का , खुशियों  का 

माखौल  बनाते हुए,  हर  उस  जिद  का 

जो  जीवन  जीने  की थी ,

मेरी  इच्छा शक्ति  के  साथ  कदम  मिलाते, 

अपनों  को  सहेजते , सपनों  को  समेटते, 

अपने  पंखों  को फैलाने  की  कोशिश,  

और उड़ने  से  पहले, फिर  वही  गूँज 

गाज  गिरा  गयी  दिल  पर! 

तन  और  मन  को  लहुलुहान  करती,  

आँख  मूंदता  जीवन  और

ताकती  हुई  मेरूदंड  हीन 

तुम्हारी  नपुंसकता!!

मधुमिता 

मेरा मन

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उड़  रही  हूँ मै यहाँ ,वहाँ ,

सुक्ष्म  सी , गहनता   के 

सागर में , गोते  खाती, 

टिमटिमाती  शुन्यता को 

भीतर  भर , अपने होने 

के रहस्य  को  खोजने 

की  कोशिश  करती ,

उस अनंत ,अतल ,अदृश्य 

को  पाने  की चाहत  में,

सितारों तक ऊँचे  पहुँच, 

उनके  बीच  नर्तन  करता ,

हवा के  भंवर  में,

चक्रवाती सा,पंख  फैलाकर, 

आज़ाद, मदमस्त हुआ जाता 

ये मेरा मन , मेरा मन  !!

-मधुमिता 

चलो मिलकर  एक  गीत बनायें


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चलो मिलकर  एक  गीत बनायें,

अरमानों   के  शब्दों  को, 

अहसासों   की  रंगीन  चादर ऊढ़ाएँ,

कुछ  शब्द  तुम   चुन  लाओ ,

कुछ  शब्द  मै  भी  जोड़ (तोड़ ) लाऊं, 

कभी  मै  तुमको  पढ़ूँ ,

थोडा  मुझको  तुम  पढ़ पाओ ,

ख़ामोशी  के  पन्नों  पर ,

सपनों  के  इद्रधनुष  फैलाएँ ।

आँखों की  भाषा  को ,

नई  सी  परिभाषा  दे जाएँ , 

शब्दों  के  झालर  में  गुंथी 

मुहब्बत  झिलमिलाए, 

प्यार की  बौछारें हमें  

कुछ यूँ  भिगो  जाएँ, 

एक  दूजे में हम डूब जाएँ!

चलो  मिलकर  एक  गीत  बनायें।।


-मधुमिता 

ख्वााहिश

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वो  अजनबी  आज

अपना  सा  लगे,

खुद  अपनी  धड़कन

ही  बेगानी   सी  लगे,

यूँ  ही  मुस्कुराना  भाने  लगा ,

हवाओं   में  उड़ना  भी    अब   आने  लगा ।


बेरंग  से जीवन  को

गुलाबी  रंग  गया ,

फीकी  सी  मुस्कान को ,

जीवंत  कर  गया ,

रोज़  उससे मिलने  को ,

दिल  मचलता   है  यूँ ,

सुनने  सुनाने  को ,

ज़िद  करता है  क्यूँ !


रूठने  मनाने का  खेल,

दीवाना   किये  जाता है ,

उसे  आज़मा  लेने

को जी  चाहता  है,

जलतरंग  सा  बजता  है,

ख्वाबों  का सा  मजमा  है ,

हाथ   पकड़  तेरे   संग  चलूँ,

बस  अब तेरे  रंग  हो  लूं l


इतनी   सी  बसख्वाहिश है ,

हाँ इतनी  ही ख्वाहिश है ।।



©®मधुमिता 

अहसास


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नज़र  तुमको  तलाशती   है ,

मगर  तुम  नहीं  मिले  यहाँ,

यहाँ  वहाँ   हर  कहीं ,

तुमको  यूँ  खोजती  रही ,

पर  दिल को  है  यक़ीं,

हो  तुम  यहीं।

है  तुम्हारे  होने  का  अहसास,  कहीं 

मेरे  आस  पास  मुस्कुराते  यूँहीं ,

एक बात  जानलो  तुम ,

जो  मै  कहूँ  वो  मानलो  तुम, 

आसमाँ  में   चमकते ,

चाँद  में  तुम  दिखते  हो ,

पेड़ों  के  झुरमुट  से  झांकते हो।  

बसंत  के  फूलों  में,

एकांत में, मेलों  में ,

शरद  की  धूप  में,

हर  किसी  रूप  में , 

है  तुम्हारे  होने  का  अहसास।

दिल  कि  हर  धड़कन में ,

हर  एक  स्पंदन  में ,

संगीत  में , 

हर  गीत में,

आरोह  में और  

अवरोह  में ,

थाप  में  और  ताल  में ,

खामोशी  के  अंतराल  में, 

है  तुमको  सुनने  का  अहसास।

हर  ज़र्रा , हर  गली,

हर  तितली, हर  कली,

हर रोशनी , हर  चमक ,

हर  हवा , हर  महक ,

मुझे  बस  बहा  ले  आती  है ,

बस   उसी  ओर लिये जाती  है, 

जहाँ  तुम  हो , हाँ  सिर्फ  तुम ही  हो।।


-मधुमिता 

 ज़िद्द







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उफ्फ़  ये तुम्हारी  ज़िद्द, 
यूँ  हठ  करना 
और  आनाकानियाँ, 
मुँह   फुलाकर  करना 
बस  मनमानियाँ ,
छोडो   अब  रूठना ,
बहुत   हुआ  कट्टी  का खेल ,
जाने  दो  अब  मान   मनव्वल,
देखो  अब मानो, क्यूँकि   अब  बिगड़( उलझ ) रही हूँ मै।  
दिल  चाहता  है,
हलके  से  दो  चपत  लगाऊँ
सर   के पीछे   तुम्हारे ,
कान  पकड़  फिर  ले  आऊँ
  छोटे  से  जहाँ  में  हमारे, 
चुप करके  बैठो   बस  यहाँ ,
मत  देखो  तुम यहाँ  वहाँ, 
मुझे  सुननी  है  तुम्हारी  बातें,
तुम्हारे  दिन  और  रात  की बातेँ ,
सुनाओ  सिर्फ  मुझे  ही  तुम ,
मत  बैठो  यूँ  गुम सुम।
सुनाओ  सारे  अपने  किस्से,
तब  फिर ले  लूँगी  मै  अपने  हिस्से,
सारे दुःख  दर्द  तुम्हारे,
सारा  ज़हर , सारे आँसूं  तुम्हारे, 
चुप  ना बैठो  चलो ना  कुछ   बातें करें, 
रंग बिरंगे  अहसास  कुछ  साँझे  करें ।
किसी   और  चीज़  की जगह
  क्यूँकर  हो  बीच  हमारे ,
गुंजाइश  हो सिर्फ  ज़िंदा  अहसासों की, 
बस  हमारे और तुम्हारे ।।


-मधुमिता 
गर्मी  की छुट्टी




गर्मी बढ़तीं जाती है,चढ़ती जाती हैं सूरज की किरणें ,

आम के पेड़ की छायाँ आँगन में l
होम वर्क को नहीं करता मन 
दिल मांगे रसना हर पल   
फिर पड़ी मम्मी की डाँट 
और दोस्तों  के साथ  खानी चाट  l
आम ,रस, कोल्ड कॉफ़ी की फ़रियाद ,
चलो भागो,नानी के घर की आई याद  
जहाँ रानी  है  मम्मी की माँ,
ठंडी ठंडी प्यार की छाँ,
पढ़ाई ,टीचर का ना कोई डर,  
खत्म हुई बस  सारी  फिकर, 
मस्ती का अब  माहौल  सुहाना, 
दोस्तों  संग  खेलना  खिलाना।
गर्मी का  अब  है नो  डर ,
अब तो  बस  नानी  का घर,
फुल ओन  मस्ती  फुल ओन  फन ,
गर्मी  की हुई  छुट्टी  टन  टन टन।।

मधुमिता 

Wednesday, 13 April 2016

मेरी आरज़ू


मेरी आरजू

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मेरी आरज़ू 

 बादलों के पीछे से चाँद झांकता रहा , 
खुली आँखों से यूँ ताकता रहा , 
धीमे धीमे , दबे पांव रात चलती रही , 
चांदनी की चिलमन सरकती रही , 
सपनों की महफ़िल सजने लगी , 
रंगीनियाँ यूँ रचने लगी ! 

 शरमा के धीरे से जो लगी थामने चांदनी को, 
आग़ोश में लेने अपने , 
फिसल कर निकल गयी वो आगे 
 सितारों को छूने ,सोई -सोई सी मै, 
 अहसासों के घेरे में , 
ज़िन्दगी और ख़्वाबों के फेरे में , 
अलसाई नज़रों से जो की देखने की कोशिश , 
हकीक़त को अपने सामने मुस्कुराते पाया । 

 जता रहा हो जैसे मुझे , 
सपनो से आगे, 
आसमान और भी हैं ,
मेरे सपने , मेरी आरज़ू , 
सब तो यहीं,  
इस जहां में हैं।।

 ©®मधुमिता

प्यार

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स्याह,अंधियारी,सर्द  चादर

के  नीचे,  गर्माते से

सपनो  के  हसीन  रंग,

शरमाती   ये  नज़रें ,

जलतरंग  है  अंग l


मदहोशी  का  अहसास,

तोसे  मिलन   की आस,

साँसों  की  झंकार

कहे ये बारम्बार ,

हाँ  यही  है , यही  तो  है  प्यार ll


मधुमिता


क्या  तुझे  जानती  हूँ मै ?


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क्या  तुझे  जानती  हूँ मै ?

तू  कहीं वो  तो  नहीं,  

जिसे  पहचानती थी मै,

अपना  मानती  थी  मै।


क्यूँ  तू  तू  ना  रहा ?

क्यूँ अब  हो  रहा  पराया ?

वो  अपना  छोटा  सा  घोंसला

भी  आह! अब  बसेरा  ना  रहा।


शब्दों  की  डोर  जो

तेरे  मेरे  दरमियाँ हैं,

वो  भी  तो बस अब

ख़ामोशी  का बयान  करते हैं।


क्या कोई भूल  थी  मेरी ,

या  हुई हमसे कोई खता ,

मै  तो  समझ  ना  सकी ,

तू  ही  कुछ  मुझ  बावरी  को  बता।


बस बहुत  हुआ अब ये

जीने  का  खेल ,

उलझी  हुई  सी  ज़िन्दगी ,

भावनाएँ   बेमेल।


यूँ  तो  ये   दिल धड़कता  है ,

पर मौत  की  आहट  के साथ ,

साँसे  भी तो  चलती  हैं  ,

मगर  रुक  जाने  की इबादत  के  साथ।।


-मधुमिता

इस धरा की नारी

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महसूस करो मेरी छुवन,
अहसास करो मेरी तपन,
समेटे हुये मेरा अपनापन,
ये धरा,आकाश और पवन।
जन्मी मै करने प्रेमार्पण,
करने खुशियों के पुष्प अर्पण,
भर दूं हर घर आंगन
में,प्रेम,स्नेह और अपनापन,
सपनों के परों पर भरूं मै उड़ान,
हर दिशा मे बिखेरूं मुस्कान।।

मैं हूं इस धरा की नारी,
ऊपरवाले की, अपनी संवारी,
प्रेम,प्यार से भरी हुई डारी,
जादू की हूं अजब पिटारी।
मां हूं और बेटी भी हूं मै,
बहु भी और सहेली हूं मै,
पति की पत्नी हूं मै,
हर रिश्ते की सूत्र हूं मै,
हर दिल बेहद पास है मेरे,
फिर भी हूं मै आसमां के परे।।

मेरी तपिश से है सूरज की तीव्रता,
मेरी शीतलता से ही चंदा की शुभ्रता,
झरनों की कलकल मे है मेरा अल्हड़पन,
फूलों सा कोमल मेरा मन।
हूं फिर भी पर्वत सी सशक्त, अटल,
पी जाऊं जीवन का हर गरल,
भरे हुये हृदय में अथाह ममता,
हर रांध्र मे केवल निश्छलता,
आओ थाम लो मेरा हाथ,
देने को हरपल मेरा साथ।।

पोछूंगी मै हर आंसू,
प्यार से सहलाकर गेसू,
सारे दुःख दर्द समेटकर,
दे दूं मुस्कान झोली भर भर,
प्रेम से, प्यार से,
समर्पण और दुलार से,
हर जीवन में भर दूं खुशहाली,
हर दिन को बनाऊं एक नवीन रंगोली,
हर दुःख समेटकर आंचल में,
खो जाऊंगी इक पल में,इस अनंत नभ मे,
वादा है मेरा तुम सबसे,
हर जीवन बदलूंगी निष्ठा से ,
हर प्राण यहां है मेरा मान ,
मेरा विश्वास और आत्मसम्मान।

पृथ्वी को बेहतर बना जाऊंगी,
हर पीढ़ी को सक्षम कर जाऊंगी।।

क्यूंकि मैं हूं इस धरा की नारी,
ऊपरवाले की, अपनी संवारी,
प्रेम,प्यार से भरी हुई डारी,
जादू की हूं अजब पिटारी।।

-मधुमिता