Sunday, 23 April 2017

शहर हूँ मै..



आँकी बाँकी सड़कें दौड़ती हैं,द्रुत गति से,
कुछ अट्टालिकायें खड़ी हैं नशे मे चूर, मग़रूर,  
झोपड़ों से झाँकतीं कुछ आँखें भी हैं, मगर दूर,
धूल,धक्कड़, धुँए से सन गयी हूँ मै,
साँस भी घुट घुटकर लेती अब मै,
बदन पर इस्पात,सीमेंट और तारकोल है,
दिल कंक्रीट का हुआ जाता है,
ऐसे में जान फूँकती बस चंद बच्चों की किलकारी।।

©मधुमिता

#सूक्ष्मकाव्य 

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