दुनिया मेरी...
तो कुछ दफ़्तर,
कुछ दूर देश हो आती हैं,
कुछ आसपास ही भ्रमण करती अक्सर,
कुछ सपने सजाती हैं,
कुछ उन्हे हकीकत के रंगों में रंगती हैं,
एक मै ही हूँ अचल और स्थिर,
मूक और बधिर,
रसोई, शयनकक्ष,
बाथरूम, घर द्वार,
बस यहीं नज़र आती हूँ बार बार,
दीवारों से टकराती,
उलट पुलट लोगों के बीच,
पागल लहरों सी बनती, टूट जाती,
कोशिश करती हूँ उड़ने की,
पर नुकीले शीशे, पर नोच जाते है,
ज़ख़्मी अंतर्मन कर जाते हैं,
घिरी है एक शांत सी अशांति,
बोझिल साँसें, अभेद्य क्लान्ति,
खिड़की से देखती हूँ रोज़
इस दुनिया की चहलकदमी,
एक बुझती सी आस लिये
कि कभी तो मै भी पाऊँगी
अपना जहाँ, एक नयी दुनिया मेरी।।
©मधुमिता
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