Sunday, 16 October 2016

मुक़द्दर..





हाथों की लकीरों में छूपी होती हैं कई दास्ताने,

अश्कों को भी पी जाती हैं कई मुस्कानें,

किसी से मिलना हमारी किस्मत होती है,

मिलकर भूल जाना भी किसी किसी की फितरत होती है।



हर इंसान की ज़रुरत है ग़मों  को भुलाना,

ज़िन्दगी को जीने में, आगे को बढ़ते जाना,

मुश्किल बहुत है लेकिन यादों को दिल से मिटाना,

जिए जा रहे हैं फिर भी, ऐ खुदा!  तेरा शुकराना !



तन्हाई ही है जब हसीं अपना मुक़द्दर,

तो क्या शिकायत, क्या ही शिकवा,और क्या बगावत,

दर्द के बहाव में खुद को बिखरने से रोकना है,

बेदर्द यादों को एक ख़ूबसूरत रंग दे कर छोड़ना है।



अपने ही जब बन जाते है दर्द का सबब,

 है कोई जादू जैसे मगर ये एहसास-ए गज़ब,

ना मुहब्बत, ना जुदाई,ना कोई चाहत,

दे सुकून,गर परेशां तो मानो रूह-ए राहत..।



ना है अपना ,ना तो शुमार बेगानों में,

मिट गए है हम मगर चाहत में उसकी,

लगते बहुत अपने से हैं ,मगर फिर भी बेगाने  से,  

अनजाने से,हाय बेमुरव्वत न बाज़ आयें,हर दम हमे आज़माने से...।।



©मधुमिता

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