Saturday, 17 September 2016

मिट्टी की गुङिया 



कभी कहा तुम चली जाओ,
कभी कहा तुम मत आओ,
कभी पूछा तुम हो कौन?
तो कभी कहा,चुप करो,बैठो मौन।


मा बाबा का घर, मायका,
सास ससुर का, ससुराल,
मेरी दुनिया पर सबका राज,
मै कल भी थी मूक,मूक ही हूँ आज।


ये क्या तुम्हारे घर से आया है? 
इसपर कौन सा हक तुम्हारा है!
पर ये तो बता दो कि मेरा घर कहाँ है,
मै तो मानो अनाथ ही हूँ, इस जहाँ में ।



पति ने कहा तू घर छोङ जा,
मुझपर अपना हक ना जता, 
बेटा बङा होकर निकल गया खुद घर से,
मुझे निकाल फेंका जिगर से।



कभी बनी मै नौकर,
कभी बनाई गई जोकर,
बिस्तर पर मेनका-रंभा बनी, 
कभी ना बन पाई अर्धांगिनी ।



मायके का पराया धन,
ससुराल में खोजती अपनापन,
किसी ने ना कभी था अपनाना, 
हर एक ने मुझको था अलग जाना।


माँ-माँ करते जो छाती से रहता था चिपट,
आज वो बेटा भी दूर गया है छिटक,
माँ की ममता को कुछ यूँ निर्बल करता,
अपनी दुनिया को वो निकल पङा। 



पहले पति से पिटती थी,
अब बेटे से डरती हूँ, 
अपना ही जीवन जीने से,
क्यों मैं पीछे रहती हूँ !



हाङ-मांस सब पिस गये हैं,
पुर्ज़ा पुर्ज़ा घिस गये हैं,  
गिन गिनकर दिन काट रही,
सिसक सिसक कर जी रही।



तन मन से सबने निर्जीव किया,
दिल को मेरे चाक चाक किया,
अरमानों को तार तार किया,  
हर रेशा रेशा अलग कर रख दिया।



क्यों मिट्टी के खिलौने सी किस्मत लिख डाली
ऐ ऊपरवाले! देख हर एक ने दे मारी,
टूटने को मजबूर किया,
हर एक ने चकनाचूर किया।



औरत क्यों बनाई तूने?
बनाई तो, सबको क्यों, यूँ तोङने का हक दिया तूने?
जो मिट्टी की गुङिया ही बनाकर जग को थमा देता,
तो यूँ ज़ार ज़ार,खून के आँसू, ना मेरे दिल का टुकङा टुकङा रोता।।  
©मधुमिता

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