Saturday, 24 September 2016

गर. ..


गर ये धरती ना होती,
तो जीवन ना होता,
जीव जंतु ना होते,
मानव ना होते।


गर हवा ना होती,
तो ये साँसें ना चलती,
बादल ना उङते, 
तपते दिल को ठंडक ना पहुँचती।


गर नीर ना होता,
तो प्यास ना बुझती,
तन और मन की आग झुलसती,
हर जगह बस आग धधकती। 


गर आग ना होती,
तो जिस्म थरथराते,
अहसास बर्फाते,    
रिश्ते खुदबखुद सर्द पङ जाते।


गर मिट्टी ना होती,
तो पेङ, खग पखेरू ना होते,
फूल और पौधे ना होते,
दो गज़ ज़मीन को इंसान तरसते।


गर खुशियाँ ना होतीं, 
तो ग़म भी ना होते,
ना मुस्कान होती, ना आँसू छलकते,
जीवन का मर्म हम कभी ना समझते।


जो सूरज ना होता,
तो कुछ भी ना दिखता,
ठंड मचलता,
अंधियारे कोने में हर कोई ठिठुरता।


जो ये चंदा ना होता
रात को हमको कौन सहलाता?
साथ जो ये तारे भी ना होते,
हम सब तो अंधेरे में गुम गये होते।


जो ये बादल ना होते,
उमङ घुमङ बरसे ना होते,  
तो ठंडी फुहारें ना होतीं,
अहसासों को ना जगाती।


जो ये अहसासें ना होतीं, 
धमनियों में खून को ना दौङाती,  
दिलों में प्यार ना बसाती
तो हम दोनों को कैसे मिलाती।


गर तुम, तुम ना होते,
कोई और ही होते,
और मै, मै ना होती,
कोई और ही होती,
तो हम , हम ना होते
और ना ही ये कायनात होती!!

©मधुमिता

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