Wednesday, 28 September 2016

ये नही है तुम्हारा द्वार! 



क्यों अपना समय यूँ व्यर्थ करती हो,
पदचापों को सुनने की कोशिश करती हो!
बारबार कुंडी खङकाती हो,
अपने हाथों से दरवाज़ा खटखटाती हो।



कभी दरवाज़े पर लगी घंटी को देखती हो,
कभी पवन-झंकार को टटोलती हो,
सब ठीक है या नही,
यही सोच कि अंदर सब कुछ हो सही।



क्या पता कि अंदर अग्नि जल रही हो नरक की,
हाहाकार हो हर तरफ ही,
जो तैयार हो तुम्हे जलाने को,
दुःख देकर तङपाने को।



इसलिए मत रुको यहाँ,
चल पङो ये कदम ले चले जहाँ,
धीमे धीमे आगे बढ़ती जाओ,
मुङकर कभी वापस ना आओ।



शायद कहीं और तुम्हारा दरवाज़ा कर रहा है इंतज़ार,   
सुहानी सी रोशनी लिए, सजाकर नया संसार,
यहाँ नही कोई जीत, है बस हार,
तुमको आगे बढ़ने की दरकार।



उठाओ कदम, बढ़ो आगे,
सर उठा निकलो आगे,
यहाँ रुकना है बेकार,
ये नही तुम्हारा द्वार !!
      

©मधुमिता 
  

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