मनचला चाँद
देखो ना! ये चाँद रोज़ रात आ धमकता है,
खिड़की से मुझे रोज़ तकता है,
कितना भी मै नज़रें चुराऊँ,
पर्दे के पीछे छुप जाऊँ,
फिर भी नही हारता है,
हर कोने से झाँकता है।
चाँदनी से छिप-छिप कर,
धीमे-धीमे रुक-रुक कर,
बादलों के पीछे से निकलता है,
आँख-मिचौली खेलता है,
कभी धीमे से छूकर,
आँख मारकर,
मुझे छेड़ वो जाता है,
फिर मंद मंद मुस्कुराता है।
किस से करूँ शिकायत इसकी,
चाँदनी भी तो मतवारी इसकी,
मनचला, बावरा,
दिलफेंक, आवारा,
देखो ना! चाँद ने मुझे आज फिर आँख मारी,
अब मै इसे दे दूँगी गारी,
क्या आज चाँदनी घर नही क्या?
कितना निर्लज्ज है उसका चाँद, बेशर्म, बेहया!!
©®मधुमिता
No comments:
Post a Comment