मेरी मासी (माशीमोनी)
खूबसूरत एक रानी सी,
ज़िन्दगी की रवानी सी,
हर पल भागा दौङी और काम ,
जब भी देखो,सुबह और शाम ।
मुझे अपनी गोदी में खिलाया,
उंगली पकङ चलना भी सिखाया,
अपने हाथों से खाना खिलातीं,
सारा दिन वो लाङ लगातीं।
सुंदर-सुंदर से कपङे बनातीं,
उनपर फूल पत्तियाँ काढ़तीं,
फिर उनको मुझे पहनातीं,
मै थी उनकी गुङिया कहलाती।
दिन वह कितने अच्छे थे,
हम सब उनके जब बच्चे थे,
एक साथ खेलना और खाना,
फिर उनके साथ ठंडे से फर्श पर सो जाना।
क्या कूछ नही वो बनातीं थीं,
कभी कबाब,कभी बिरयानी,
कभी खीर,तो कभी रसभरी,
कभी स्वादिष्ट हलवा पुङी।
होली मधुरम थी उनके गुझियों से,
भरी-पूरी खोये मेवों से,
कनस्तर के कनस्तर बनते जाते,
हम बच्चे खूब चुराकर खाते।
छुट्टियों की रहती थी आस,
बुआ,नानी के बाद सीधे उनके पास,
हम बच्चों की वह नटखट सी यादें ,
माँ और उनकी सुख और दुःख बांटती, वह बातें।
देना कितनी बार मेरा साथ,
रोज़ पढ़ाना संस्कृत के पाठ,
मोदकं,बालकः,सब उनसे ही जानी थी,
मुझको इस विषय में पास कराकर ही मानीं थीं।
स्कूल में भी माँ की जगह वो ही आतीं थीं,
शुरू में मेरी माँ ही वो जानी जाती थीं,
इनाम जब मुझे मिलते तो खुश वो हो जातीं,
दर्शकों में बैठ ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजातीं।
दिन बीते महीनों में और महीने सालों में,
सफेदी सी आ गयी थी उनके बालों में,
फिर भी सारा दिन चकरघिन्नी सी घूमती,
हर काम अपनें निपटातीं, कभी ना थकतीं।
हर किसी के सुख दुःख में खङी हो जातीं,
हर किसी का साथ निभाती,
फिर भी कभी ना घबरातीं,
हर पल दिखती वो मुस्कुरातीं।
जो खटती रहती थी दिन रात,
क्यों पङी हैं निर्जीव सी आज,
देखो कितनी नलियाँ और मशीनें लगी हुई थीं,
क्यों ऐसे बेसुध,फीकी सी और स्थिर पङीं हैं।
हर सुई जो चुभी उनको,दर्द दे गया हमको,
हर खून का कतरा जो बहा उनसे,वह खाली कर गया हमको,
हर ज़ख़्म उनका रुला रहा था सबको,
मजबूर से,हाथ बांधे खङे थे हम सब तो।
आज वो दे गयीं हम सबको दग़ा,
छोङ गयीं हर उसको जो है उनका सगा,
तोङ गयीं वो सारे बंधन,
छोङ गयीं हर साँस,हर स्पन्दन ।
माँ ने भी आज पूरा मायका खो दिया,
क्यों ऊपरवाले तुमने उनको भी छीन लिया,
एक खुशी भरी उम्मीद थीं वो माँ के लिए,
रह गयीं अब अकेली,कौनसी आस लेकर माँ अब जिये।
क्यों अचानक यूँ चली गयीं वो हमें छोङकर,
नाते,रिश्ते,प्यार के हर बंधन तोड़कर,
उन्होंने ही तो रखा हूआ था सबको जोङकर,
फिर क्यों दूर गयीं वो सबसे मुँह मोङकर।
मै भी बैठी हूँ आज लाचार,
ऊपरवाले तेरा फैसला कैसे करूँ स्वीकार?
निर्बल सी ये प्रश्न पूछ रही,होकर रुआँसी,
अरे निष्ठुर!माँ ही थी वो मेरी, वो मेरी मासी।।
-मधुमिता
आज मैंने अपनी माँ समान मासी को खो दिया
ये चंद शब्द उनकी यादों को समर्पित-मेरी श्रद्धांजलि
खूबसूरत एक रानी सी,
ज़िन्दगी की रवानी सी,
हर पल भागा दौङी और काम ,
जब भी देखो,सुबह और शाम ।
मुझे अपनी गोदी में खिलाया,
उंगली पकङ चलना भी सिखाया,
अपने हाथों से खाना खिलातीं,
सारा दिन वो लाङ लगातीं।
सुंदर-सुंदर से कपङे बनातीं,
उनपर फूल पत्तियाँ काढ़तीं,
फिर उनको मुझे पहनातीं,
मै थी उनकी गुङिया कहलाती।
दिन वह कितने अच्छे थे,
हम सब उनके जब बच्चे थे,
एक साथ खेलना और खाना,
फिर उनके साथ ठंडे से फर्श पर सो जाना।
क्या कूछ नही वो बनातीं थीं,
कभी कबाब,कभी बिरयानी,
कभी खीर,तो कभी रसभरी,
कभी स्वादिष्ट हलवा पुङी।
होली मधुरम थी उनके गुझियों से,
भरी-पूरी खोये मेवों से,
कनस्तर के कनस्तर बनते जाते,
हम बच्चे खूब चुराकर खाते।
छुट्टियों की रहती थी आस,
बुआ,नानी के बाद सीधे उनके पास,
हम बच्चों की वह नटखट सी यादें ,
माँ और उनकी सुख और दुःख बांटती, वह बातें।
देना कितनी बार मेरा साथ,
रोज़ पढ़ाना संस्कृत के पाठ,
मोदकं,बालकः,सब उनसे ही जानी थी,
मुझको इस विषय में पास कराकर ही मानीं थीं।
स्कूल में भी माँ की जगह वो ही आतीं थीं,
शुरू में मेरी माँ ही वो जानी जाती थीं,
इनाम जब मुझे मिलते तो खुश वो हो जातीं,
दर्शकों में बैठ ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजातीं।
दिन बीते महीनों में और महीने सालों में,
सफेदी सी आ गयी थी उनके बालों में,
फिर भी सारा दिन चकरघिन्नी सी घूमती,
हर काम अपनें निपटातीं, कभी ना थकतीं।
हर किसी के सुख दुःख में खङी हो जातीं,
हर किसी का साथ निभाती,
फिर भी कभी ना घबरातीं,
हर पल दिखती वो मुस्कुरातीं।
जो खटती रहती थी दिन रात,
क्यों पङी हैं निर्जीव सी आज,
देखो कितनी नलियाँ और मशीनें लगी हुई थीं,
क्यों ऐसे बेसुध,फीकी सी और स्थिर पङीं हैं।
हर सुई जो चुभी उनको,दर्द दे गया हमको,
हर खून का कतरा जो बहा उनसे,वह खाली कर गया हमको,
हर ज़ख़्म उनका रुला रहा था सबको,
मजबूर से,हाथ बांधे खङे थे हम सब तो।
आज वो दे गयीं हम सबको दग़ा,
छोङ गयीं हर उसको जो है उनका सगा,
तोङ गयीं वो सारे बंधन,
छोङ गयीं हर साँस,हर स्पन्दन ।
माँ ने भी आज पूरा मायका खो दिया,
क्यों ऊपरवाले तुमने उनको भी छीन लिया,
एक खुशी भरी उम्मीद थीं वो माँ के लिए,
रह गयीं अब अकेली,कौनसी आस लेकर माँ अब जिये।
क्यों अचानक यूँ चली गयीं वो हमें छोङकर,
नाते,रिश्ते,प्यार के हर बंधन तोड़कर,
उन्होंने ही तो रखा हूआ था सबको जोङकर,
फिर क्यों दूर गयीं वो सबसे मुँह मोङकर।
मै भी बैठी हूँ आज लाचार,
ऊपरवाले तेरा फैसला कैसे करूँ स्वीकार?
निर्बल सी ये प्रश्न पूछ रही,होकर रुआँसी,
अरे निष्ठुर!माँ ही थी वो मेरी, वो मेरी मासी।।
-मधुमिता
आज मैंने अपनी माँ समान मासी को खो दिया
ये चंद शब्द उनकी यादों को समर्पित-मेरी श्रद्धांजलि
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