उपस्थिति तुम्हारी
क्या तुम्हे याद है वे दिन,
जब सर्दियों की मखमली सी
धूप में बैठ
हम सपनों की दुनिया की सैर को जाते थे!
ख्वाबों के सुन्दर से द्वीप पर
जब हम जाकर बस जाते थे,
समुन्दर की एक गर्म सी लहर
छूकर हमे निकल जाती थी,
अंदर तक सिहरा जाती थी।
फिर डूब जाते थे हम प्यार के
अथाह सागर मे ,
हाथों मे,एक दूजे का हाथ लिये
हम आगे चलते जाते,
जहाँ पेङों और दीवारों पर चढ़ती लतायें
करती थीं कानाफूसी,
और हल्के से खुद को झाङकर,
कोई पत्ता गिरा देती थीं
ठीक सामने हमारे,अवरोध की तरह,
जैसे हम चुप से गुज़रने लगते।
गहरा सा वो पत्ता,
गहरे हरे रंग का,
सोने सी रेतीली धरती पर,
किसी पन्ना सा चमचमाता,
नाज़ुक सा,
हमारे पैरों की धमक से
फङफङाता,
ठीक उसी तरह जैसे तुम धङकती,
हल्के से फङफङाती,
मेरे सीने में ।
हवा का झोंका धीरे से
उस पत्ते को उङा ले जाता,
जैसे ज़िन्दगी तुम्हे उङा कर ले आई
मेरे जीवन में,
डाल गयी तुमको मेरे अन्तर्मन में,
हम साथ चलते रहे,
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते रहे,
तुम भी त्यों-त्यों उगने लगी,
बढ़ने लगी,पीपल की भांति,
घर करने लगी मेरे अंदर।
पीपल के घेरे की तरह,
तुम्हारा क्षेत्र भी बढ़ता रहा,
मेरे तन और मन पर पूर्णतया
तुम्हारा ही आधिपत्य था,
जैसे पीपल की जङें
धरती की छाती को भेदकर
अंदर तक जाती हैं,
तुम्हारी जङें भी
मेरी छाती को भेदकर
मेरे भीतर घर कर गयीं हैं ।
नदी की धाराओं सी दिखती
वे रेशमी जङें,
गहरे तक अपने पैर पसार कर
मेरे खून की धाराओं से मिल जातीं हैं,
उन्ही के रंग में रंग जातीं हैं,
सूर्ख़, लाल,
मेरे पूरे शरीर में दौङतीं,
मुझमें,तुमको भरती,
तुमने मुझे,तुम बना दिया था,
नये से रूप में मै दिखने लगा था।
तुमने मेरे अंदर,
तन और मन के भीतर
खुद को बसा लिया था,
तुम मेरे साथ
और मै तुम्हारे साथ,
दोनों साथ-साथ खिलने लगे,
मेरे लब भी तुम्हारी ज़ुबान
लगे थे बोलने
और मेरी मुस्कान
खेलती थी अब तुम्हारे होंठों पर।
बेखौफ़,बेपरवाह
हम चले जा रहे थे,
उस बेपरवाह लहर की तरह
जो छू गयी थी उस दिन हमे,
मेरे भीतर तुम्हारी उपस्थिति
उस हरे पत्ते,पीपल,
उसकी जङों और शाखों की तरह
एक उम्र से बंजर पङे
मेरे सूने दिल को,
लहलहा गया,हरा भरा कर गया था।
मेरे दिल में अब मंदिर की घंटियाँ बजातीं,
मधुर संगीत भी बजता,
रोज़ नयी महफिलें सजतीं,
फूलों के तोरन सजते,
रंगोली सजती,
जहाँ अंधेरा घना हुआ करता था
वहाँ हर कोने कोने में
चिराग अब रौशन थे
क्योंकि मेरे नन्हे से दिल में
अब तुम जो बसती थी।
©मधुमिता
क्या तुम्हे याद है वे दिन,
जब सर्दियों की मखमली सी
धूप में बैठ
हम सपनों की दुनिया की सैर को जाते थे!
ख्वाबों के सुन्दर से द्वीप पर
जब हम जाकर बस जाते थे,
समुन्दर की एक गर्म सी लहर
छूकर हमे निकल जाती थी,
अंदर तक सिहरा जाती थी।
फिर डूब जाते थे हम प्यार के
अथाह सागर मे ,
हाथों मे,एक दूजे का हाथ लिये
हम आगे चलते जाते,
जहाँ पेङों और दीवारों पर चढ़ती लतायें
करती थीं कानाफूसी,
और हल्के से खुद को झाङकर,
कोई पत्ता गिरा देती थीं
ठीक सामने हमारे,अवरोध की तरह,
जैसे हम चुप से गुज़रने लगते।
गहरा सा वो पत्ता,
गहरे हरे रंग का,
सोने सी रेतीली धरती पर,
किसी पन्ना सा चमचमाता,
नाज़ुक सा,
हमारे पैरों की धमक से
फङफङाता,
ठीक उसी तरह जैसे तुम धङकती,
हल्के से फङफङाती,
मेरे सीने में ।
हवा का झोंका धीरे से
उस पत्ते को उङा ले जाता,
जैसे ज़िन्दगी तुम्हे उङा कर ले आई
मेरे जीवन में,
डाल गयी तुमको मेरे अन्तर्मन में,
हम साथ चलते रहे,
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते रहे,
तुम भी त्यों-त्यों उगने लगी,
बढ़ने लगी,पीपल की भांति,
घर करने लगी मेरे अंदर।
पीपल के घेरे की तरह,
तुम्हारा क्षेत्र भी बढ़ता रहा,
मेरे तन और मन पर पूर्णतया
तुम्हारा ही आधिपत्य था,
जैसे पीपल की जङें
धरती की छाती को भेदकर
अंदर तक जाती हैं,
तुम्हारी जङें भी
मेरी छाती को भेदकर
मेरे भीतर घर कर गयीं हैं ।
नदी की धाराओं सी दिखती
वे रेशमी जङें,
गहरे तक अपने पैर पसार कर
मेरे खून की धाराओं से मिल जातीं हैं,
उन्ही के रंग में रंग जातीं हैं,
सूर्ख़, लाल,
मेरे पूरे शरीर में दौङतीं,
मुझमें,तुमको भरती,
तुमने मुझे,तुम बना दिया था,
नये से रूप में मै दिखने लगा था।
तुमने मेरे अंदर,
तन और मन के भीतर
खुद को बसा लिया था,
तुम मेरे साथ
और मै तुम्हारे साथ,
दोनों साथ-साथ खिलने लगे,
मेरे लब भी तुम्हारी ज़ुबान
लगे थे बोलने
और मेरी मुस्कान
खेलती थी अब तुम्हारे होंठों पर।
बेखौफ़,बेपरवाह
हम चले जा रहे थे,
उस बेपरवाह लहर की तरह
जो छू गयी थी उस दिन हमे,
मेरे भीतर तुम्हारी उपस्थिति
उस हरे पत्ते,पीपल,
उसकी जङों और शाखों की तरह
एक उम्र से बंजर पङे
मेरे सूने दिल को,
लहलहा गया,हरा भरा कर गया था।
मेरे दिल में अब मंदिर की घंटियाँ बजातीं,
मधुर संगीत भी बजता,
रोज़ नयी महफिलें सजतीं,
फूलों के तोरन सजते,
रंगोली सजती,
जहाँ अंधेरा घना हुआ करता था
वहाँ हर कोने कोने में
चिराग अब रौशन थे
क्योंकि मेरे नन्हे से दिल में
अब तुम जो बसती थी।
©मधुमिता
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