Thursday, 7 July 2016

लहर और किनारा


समुंदर की मदमस्त, पगलाती सी लहर,
कभी खामोशी से धरती को जाती छू भर ,
कभी उसकी छाती पर ढा जाती कहर,
सुबह शाम, सांझ और सहर, 
बीच में खङे बङे बङे से चट्टान,
पत्थर कई, मानों नन्हे पहाङ,
ये लहर जब इनसे टकराती है,
टूटती नही,एक नया रूप ये पाती है।

शांत चट्टानों से लिपटने को पगली आती है,
फिर चूर चूर हो जाती है,
अनगिनत बुलबुलों के रूप में,आसपास मंडराती है
दिन की रोशनी भी इनमें से हो,बिखर बिखर जाती है,
रात की आँखों से चुराकर,सुरमा ये लगा लेतीं हैं,
अपने ही नमक से ये खुद को नमकीन बना लेतीं हैं,
अपने ही प्यार की हो जाती है,
यहीं बस कर रह जाती है ।

पानी का ये अनंत बवंडर,
मानों जैसे एक भंवर,
पल में बने बुलबुलों का झुंड ,
रौशन करे छोटा सा जल कुंड,
रेतीले साजन के सीने पर चम्पई सी झाग,
ऊपर जलता सूरज और लगाता आग, 
आते असंख्य सीप और शंख,
जो पा चुके अपना अंत,
फिर जोहते दूजी लहर की बाट,
शायद ले जाये जो उन्हे अपने साथ,
जो क्षितिज को भी छोङ ना पाये,
दो हिस्सों में बंट कर रह जाये।

चढ़ता उतरता सागर,
उसपर लहर दर लहर,
कभी टूटती लहर,
कभी टूटता उनका नमक,
कभी तो सागर दहाङ मारता,कभी चुप,
पल पल बदलता उसका रूप, 
कभी चमकीली सी छलांगें लगाना,
तो कभी शून्य में गायब हो जाना।    

सलेटी और श्वेत की धारें,
पानी की ऊँची-ऊँची मीनारें, 
कभी मख़मली कपङे सी भांज
पर मंडराती,कल और आज,
पानी के इन कतरनों में,
बेहिसाब इन आईनों में, 
लगातार रेतीला सीना नज़र आता है,
लहर और किनारे का मासूम सा,अनोखा प्यार नज़र आता है।।

©मधुमिता 

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