Wednesday, 29 June 2016

परी


मिट्टी से गढ़ी है, 
नन्ही सी परी है, 
ना माँ की दुलारी,
ना बाबा की प्यारी,
ये सङकें ही घर है इसका ,
यहीं सारा जग है जिसका ।

ना गुङिया,मोटर गाङी, 
ना बर्तन,कप-प्लेट,ना रेलगाङी,  
कोई खिलौना नही खेलने को,
नही कोई झूला झूलने को,
बस है भूख और गरीबी,
कोई और नही,बस यही दोनों इसके करीबी।

ऊपर खुला आसमान, 
नीचे गर्मी और थकान, 
कभी सर्दी की रातों की ठिठुरन,
कभी बरसात में बचता,बचाता भीगता बदन,
सूरज,चंदा इसके साथ ही चलते,
आजू-बाजू,बस,साईकिल और गाङियाँ भगते।

माँ -बाबा सब खो जाते हैं,
अपने कामों में रम जाते हैं,
रह जाती है बस यही अकेली,
ना कोई दोस्त,ना सहेली,
मिट्टी ही है इसका खिलौना, 
मिट्टी ही इसका बिछौना । 

अपनी नन्हीं मुट्ठियों में भर मिट्टी, 
कभी बिखेरती, कभी समेटती, 
कभी उसी से मानों किस्मत की लकीरें बनाती, 
फिर नन्ही उंगलियों से उन्हें मिटाती, 
देखो तो विधाता का खेल, 
नन्ही परी से करवाया मिट्टी का मेल ।

रूखे-सूखे से हैं उसके बाल, 
आज़ाद सी उसकी चाल, 
चेहरे पर छोटी सी नाक 
और मासूमियत से भरे हुए दो आँख, 
सूरज से तपा बदन, 
कुदरत का एक अनमोल रतन ।

तप-तपकर भई सोना, 
सोना तपकर भई कोयला,
जब परी बङी हो जायेगी,
क्या तब भी यहीं रह जायेगी!
या तपकर हीरा बन जायेगी, 
अपनी ही धार से कट कर,मिट्टी में ही रम जायेगी।

या अपने माँ-बाबा जैसे हो जायेगी,
अपनी ही जैसी इस सङक पर,एक दूसरी परी ले आयेगी,
इन्हीं सङकों पर यूँ ही चलती रहेगी
और एक दिन कहीं खो जायेगी ,
बन जायेगी वही मिट्टी, 
या पाऊँगी उसे,दो पंख फैलाकर,नभ में उङती,फिरती।

क्या कोई इस परी को बेटी बनायेगा! 
कोई इसको अपनायेगा ! 
इसकी मासूमियत को संभाल कर,
देकर इसको अपना एक घर,
मिट्टी से गढ़ी इस परी को दे पंख सुंदर,
ताकि उङती फिरे वो, नये आसमानों को छूकर ।।

-मधुमिता 

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