नश्वरता
आज चाँद जब कर रहा था अठखेलियाँ,
विचर रहा था मेरे आसपास की गलियाँ,
मैं भी आँखें मींचे, कर रही थी ठिठोली,
दोनों इक दूजे संग खेल रहे थे आँखमिचौली।
मैं परदे के पीछे से रहती ताकती,
छुपकर धीरे से झाँकती,
अलसाया सा वो धीमे से बढ़ता आगे को,
बदमाश देखो,ढूढ़ रहा मुझको।
कभी वो छुप जाता बादलों के पीछे,
तो कभी मैं अलगनी के नीचे,
निकल आता कभी वो अचानक,
होती ढप्पे की उसकी,हल्की सी धमक।
कभी करता सितारों से गपशप,
मैं तब उसे निहार रही थी,गुपचुप,
कभी करता वो उनसे ठिठोली,
बचपन की उसकी,ज्यों हो सहेली ।
जैसे ही मैं सामने निकल आती,
उसको मेरा मज़ाक उङाते पाती,
हँस हँस कर मेरी खिल्ली उङाता,
बेईमान देखो,मुझे कैसे हराता।
उसे मैं पकङना चाहूँ,
दिल करे,उसे अपने अंगना ले आऊँ,
बोल बोल कर उसे थका दूँ,
फिर आखिर मैं उसे हराऊँ।
पर वो नही आता किसी फेर में,
ऊपर, और ऊपर हो जाते,ज़रा सी देर में,
मैंने फिर एक जुगत लगाई,
परात भर पानी ले आई।
परात के जल भर में उसको लिया खींच,
अब रखूँगी उसको अपनी आँखों में भींच,
खूब करूँगी उसके आगे पीछे भागा दौङी,
बनूँगी अब मैं भी उसकी हमजोली ।
पर वो धीमे धीमे खिसकता गया,
पहले परात से बाहर आया,
फिर खोया उसको आंगन से
एक कोने से दूजे कोने को चल दिया वो आसमान में।
मैं कोने में खङी उसे जाते देखती रही,
रुआँसी सी हाथ मलती रही,
मुझे वाकई में देखो वो हराकर चला गया,
अपने स्थायित्व में भी नश्वरता मुझे दिखा दिया।
मैं मूर्ख उसे चली थी कैद करने,
जो चलता चलेगा,कभी ना थमने,
स्थाई होकर भी पाठ पढ़ा गया जीवन का,
सब कुछ स्वपन है,हकीक़त बस नश्वरता।।
-मधुमिता
आज चाँद जब कर रहा था अठखेलियाँ,
विचर रहा था मेरे आसपास की गलियाँ,
मैं भी आँखें मींचे, कर रही थी ठिठोली,
दोनों इक दूजे संग खेल रहे थे आँखमिचौली।
मैं परदे के पीछे से रहती ताकती,
छुपकर धीरे से झाँकती,
अलसाया सा वो धीमे से बढ़ता आगे को,
बदमाश देखो,ढूढ़ रहा मुझको।
कभी वो छुप जाता बादलों के पीछे,
तो कभी मैं अलगनी के नीचे,
निकल आता कभी वो अचानक,
होती ढप्पे की उसकी,हल्की सी धमक।
कभी करता सितारों से गपशप,
मैं तब उसे निहार रही थी,गुपचुप,
कभी करता वो उनसे ठिठोली,
बचपन की उसकी,ज्यों हो सहेली ।
जैसे ही मैं सामने निकल आती,
उसको मेरा मज़ाक उङाते पाती,
हँस हँस कर मेरी खिल्ली उङाता,
बेईमान देखो,मुझे कैसे हराता।
उसे मैं पकङना चाहूँ,
दिल करे,उसे अपने अंगना ले आऊँ,
बोल बोल कर उसे थका दूँ,
फिर आखिर मैं उसे हराऊँ।
पर वो नही आता किसी फेर में,
ऊपर, और ऊपर हो जाते,ज़रा सी देर में,
मैंने फिर एक जुगत लगाई,
परात भर पानी ले आई।
परात के जल भर में उसको लिया खींच,
अब रखूँगी उसको अपनी आँखों में भींच,
खूब करूँगी उसके आगे पीछे भागा दौङी,
बनूँगी अब मैं भी उसकी हमजोली ।
पर वो धीमे धीमे खिसकता गया,
पहले परात से बाहर आया,
फिर खोया उसको आंगन से
एक कोने से दूजे कोने को चल दिया वो आसमान में।
मैं कोने में खङी उसे जाते देखती रही,
रुआँसी सी हाथ मलती रही,
मुझे वाकई में देखो वो हराकर चला गया,
अपने स्थायित्व में भी नश्वरता मुझे दिखा दिया।
मैं मूर्ख उसे चली थी कैद करने,
जो चलता चलेगा,कभी ना थमने,
स्थाई होकर भी पाठ पढ़ा गया जीवन का,
सब कुछ स्वपन है,हकीक़त बस नश्वरता।।
-मधुमिता
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